aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
नई नज़्म के निर्माता
''हाली और आज़ाद के समकालीन, उन्नीसवीं सदी के बेहतरीन शायर मौलवी इस्माईल मेरठी हैं जिनकी नज़्में मुहासिन शायरी में आज़ाद व हाली दोनों से बेहतर हैं''।
प्रोफ़ेसर हामिद हुसैन क़ादरी
उर्दू को जदीद नज़्म से परिचय कराने वालों में इस्माईल मेरठी को नुमायां मक़ाम हासिल है। 1857 की नाकाम जंग-ए-आज़ादी के बाद सर सय्यद आंदोलन से तार्किकता और मानसिक जागरूकता का जो वातावरण बना था उसमें बड़ों के लहजे में बातें करने वाले तो बहुत थे लेकिन बच्चोँ के लहजे में सामने की बातें करने वाला कोई नहीं था। उस वक़्त तक उर्दू में जो किताबें लिखी जा रही थीं वो सामाजिक या विज्ञान के विषयों पर थीं और उर्दू ज़बान पढ़ाने के लिए जो किताबें लिखी गई थीं वो विदेशी शासकों और उनके अमले के लिए थीं। पहले-पहल उर्दू के क़ायदों और आरंभिक किताबों के संपादन का काम पंजाब में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने और संयुक्त प्रांत आगरा व अवध में इस्माईल मेरठी ने किया। लेकिन बच्चों का अदब इस्माईल मेरठी के व्यक्तित्व का मात्र एक रुख है। वो उर्दू के उन शायरों में हैं जिन्होंने आधुनिक उर्दू नज़्म की संरचना में प्रथम प्रयोग किए और मोअर्रा नज़्में लिखीं। यूं तो आधुनिक नज़्म के पुरोधा के रूप में आज़ाद और हाली का नाम लिया जाता है लेकिन आज़ाद की कोशिशों से, अंजुमन तहरीक पंजाब के तहत 9 अप्रैल 1874 को आयोजित ऐतिहासिक मुशायरे से बहुत पहले मेरठ में क़लक़ और इस्माईल मेरठी आधुनिक नज़्म के विकास के अध्याय लिख चुके थे। इस तरह इस्माईल मेरठी को मात्र बच्चोँ का शायर समझना ग़लत है। उनके समस्त लेखन का संबोधन बड़ों से न सही, उनके उद्देश्य बड़े थे। उनका व्यक्तित्व और शायरी बहुआयामी थी। बच्चों का अदब हो, आधुनिक नज़्म के संरचनात्मक प्रयोग हों या ग़ज़ल, क़सीदा, मसनवी, रुबाई और काव्य की दूसरी विधाएं, इस्माईल मेरठी ने हर मैदान में अपना लोहा मनवाया। इस्माईल मेरठी की नज़्मों का प्रथम संग्रह ‘रेज़ा-ए-जवाहर’ के नाम से 1885 में प्रकाशित हुआ था जिसमें कई नज़्में अंग्रेज़ी नज़्मों का तर्जुमा हैं। उनकी नज़्मों की भाषा बहुत सरल व आसान है और ख़्यालात साफ़ और पाकीज़ा। वो सूफ़ी मनिश थे इसलिए उनकी नज़्मों में मज़हबी रुजहानात की झलक मिलती है। उनका मुख्य उद्देश्य एक सोई हुई क़ौम को मानसिक, बौद्धिक और व्यावहारिक रूप से, बदलती राष्ट्रीय स्थिति के अनुकूल बनाना था। इसीलिए उन्होंने बच्चोँ की मानसिकता को विशेष महत्व दिया। उनकी ख्वाहिश थी कि बच्चे केवल ज्ञान न सीखें बल्कि अपनी सांस्कृतिक और नैतिक परंपराओं से भी अवगत हों।
इस्माईल मेरठी 12 नवंबर 1844 को मेरठ में पैदा हुए। उनके वालिद का नाम शेख़ पीर बख़्श था। उनकी आरंभिक शिक्षा घर पर हुई जिसके बाद फ़ारसी की उच्च शिक्षा मिर्ज़ा रहीम बेग से हासिल की जिन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की “क़ाते बुरहान” के जवाब में “सातेअ बुरहान” लिखी थी। फ़ारसी में अच्छी दक्षता प्राप्त करने के बाद वो मेरठ के नॉर्मल स्कूल टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में दाख़िल हो गए और वहां से अध्यापन की योग्यता की सनद प्राप्त की। नॉर्मल स्कूल में इस्माईल मेरठी को ज्यामिति से ख़ास दिलचस्पी थी, इसके इलावा उस स्कूल में उन्होंने अपने शौक़ से फ़िज़ीकल साईंस और शरीर विज्ञान भी पढ़ा। स्कूल से फ़ारिग़ हो कर उन्होंने रुड़की कॉलेज में ओवरसियवर के कोर्स में दाख़िला लिया लेकिन उसमें उन जी नहीं लगा और वो उसे छोड़कर मेरठ वापस आ गए और 16 साल की ही उम्र में शिक्षा विभाग में क्लर्क के रूप में नौकरी कर ली। 1867 में उनकी नियुक्ति सहारनपुर में फ़ारसी के उस्ताद की हैसियत से हो गई जहां उन्होंने तीन साल काम किया और फिर मेरठ अपने पुराने दफ़्तर में आ गए। 1888 में उनको आगरा के सेंट्रल नॉर्मल स्कूल में फ़ारसी का उस्ताद नियुक्त किया गया। वहीं से वो 1899 में रिटायर हो कर स्थाई रूप मेरठ में बस गए। नौकरी के ज़माने में उनको डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूलज़ का पद पेश किया गया था लेकिन उन्होंने ये कह कर इनकार कर दिया था कि इसमें सफ़र बहुत करना पड़ता है। मौलाना की सेहत कभी अच्छी नहीं रही। उनको बार-बार गुर्दे का दर्द और शूल की शिकायत हो जाती थी। हुक्का बहुत पीते थे जिसकी वजह से ब्रॉन्काइटिस में भी मुब्तला थे। एक नवंबर 1917 को उनका देहांत हो गया।
इस्माईल मेरठी को शुरू में शायरी से दिलचस्पी नहीं थी लेकिन समकालीनों विशेष रूप से क़लक़ की संगत ने उन्हें शे’र कहने की तरफ़ उन्मुख किया। आरंभ में कुछ ग़ज़लें कहीं जिन्हें फ़र्ज़ी नामों से प्रकाशित कराया। उसके बाद वो नज़्मों की तरफ़ मुतवज्जा हुए। उन्होंने अंग्रेज़ी नज़्मों के अनुवाद किए जिनको पसंद किया गया। फिर उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला मुंशी ज़का उल्लाह और मुहम्मद हुसैन आज़ाद से चल पड़ा और इस तरह उर्दू में उनकी नज़्मों की धूम मच गई। उनकी योग्यता और साहित्यिक सेवाओं के लिए तत्कालीन सरकार ने उनको “ख़ान साहब” का ख़िताब दिया था।
इस्माईल मेरठी के कलाम के अध्ययन से हमें एक ऐसे ज़ेहन का पता चलता है जो सदाचारी और सच्चा है जो काल्पनिक दुनिया के बजाए वास्तविक संसार में रहना पसंद करता है। उन्होंने सृष्टि के सौंदर्य की तस्वीरें बड़ी कुशलता से खींची हैं। उनके हाँ मानवीय पीड़ा और कठिनाइयों की छाया में एक नर्म दिली और ईमानदारी की लहरें लहराती नज़र आती हैं। वो ज़िंदगी की अपूर्णता के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन उसके हुस्न से मुँह मोड़ने का आग्रह नहीं करते। उनके कलाम में एक रुहानी ख़लिश और इसके साथ दुख की एक हल्की सी परत नज़र आती है। वो ख़्वाब-ओ-ख़्याल की दुनिया के शायर नहीं बल्कि एक व्यवहारिक इंसान थे।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
Get Tickets