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लेखक : जिगर मुरादाबादी

प्रकाशक : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), अलीगढ

मूल : अलीगढ़, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1958

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : नज़्म, ग़ज़ल, काव्य संग्रह

पृष्ठ : 254

सहयोगी : रामपुर रज़ा लाइब्रेरी,रामपुर

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लेखक: परिचय

जिगर मुरादाबादी को अपने दौर में जो शोहरत और लोकप्रियता मिली उसकी कोई मिसाल मिलनी मुश्किल है। उनकी ये लोकप्रियता उनकी रंगारंग शख़्सियत, ग़ज़ल कहने का रंग और नग़मा-ओ-तरन्नुम की बदौलत थी, जब उनकी शायरी तरक्क़ी की मंज़िलें तय कर के सामने आई तो सारे मुल्क की शायरी का रंग ही बदल गया और बहुत से शायरों ने न सिर्फ़ उनके रंग-ए-कलाम की बल्कि तरन्नुम की भी नक़ल करने की कोशिश की और जब जिगर अपने तरन्नुम का अंदाज़ बदल देते तो इसकी भी नक़ल होने लगती। बहरहाल दूसरों से उनके शे’री अंदाज़ या सुरीली आवाज़ की नक़ल तो मुम्किन थी लेकिन उनकी शख़्सियत की नक़ल नामुमकिन थी। जिगर की शायरी असल में उनकी शख़्सियत का आईना थी। इसलिए जिगर, जिगर रहे, उनके समकालिकों में या बाद में भी कोई उनके रंग को नहीं पा सका।

जिगर मुरादाबादी का नाम अली सिकन्दर था और वो 1890 ई. में मुरादाबाद में पैदा हुए। जिगर को शायरी विरासत में मिली थी, उनके वालिद मौलवी अली नज़र और चचा मौलवी अली ज़फ़र दोनों शायर थे और शहर के बाइज़्ज़त लोगों में शुमार होते थे। जिगर के पूर्वज मुहम्मद समीअ का सम्बंध दिल्ली से था और शाहजहाँ के दरबार से संबद्ध थे लेकिन शाही क्रोध के कारण मुरादाबाद में आकर बस गए थे। 
जिगर के वालिद, ख़्वाजा वज़ीर लखनवी के शागिर्द थे, उनका काव्य संग्रह “बाग़-ए-नज़र” के नाम से मिलता है। जिगर की आरम्भिक शिक्षा घर पर और फिर मकतब में हुई। प्राच्य शिक्षा की प्राप्ति के बाद अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए उन्हें चचा के पास लखनऊ भेज दिया गया, जहां उन्होंने नौवीं जमाअत तक शिक्षा प्राप्त की। उनको अंग्रेज़ी ता’लीम से कोई दिलचस्पी नहीं थी और नौवीं जमाअत में दो साल फ़ेल हुए थे। इसी अर्से में वालिद का भी देहांत हो गया था और जिगर को वापस मुरादाबाद आना पड़ा था।

जिगर को स्कूल के दिनों से ही शायरी का शौक़ पैदा हो गया था लेकिन विद्यार्थी जीवन में वो उसे अवाम के सामने नहीं लाए। जिगर आज़ाद तबीयत के मालिक थे और बेहद हुस्न परस्त थे। शिक्षा छोड़ने के बाद उनके चचा ने उन्हें मुरादाबाद में ही किसी विभाग में नौकरी दिला दी थी और उनके घर के पास ही उनके चचा के एक तहसीलदार दोस्त रहते थे जिन्होंने एक तवाएफ़ से शादी कर रखी थी। जिगर का उनके यहां आना जाना था। उस वक़्त जिगर की उम्र 15-16 साल थी और उसी उम्र में तहसीलदार साहिब की बीवी से इश्क़ करने लगे और उन्हें एक मुहब्बतनामा थमा दिया, जो उन्होंने तहसीलदार साहिब के हवाले कर दिया और तहसीलदार साहिब ने वो जिगर के चचा को भेज दिया।
चचा को जब उनकी हरकत की ख़बर मिली तो उन्होंने जिगर को लिखा कि वो उनके पास पहुंच रहे हैं। घबराहट में जिगर ने बड़ी मात्रा में भांग खा ली। बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई गई जिसके बाद वो मुरादाबाद से फ़रार हो गए और कभी चचा को शक्ल नहीं दिखाई। कुछ ही समय  बाद चचा का इंतिक़ाल हो गया था।

मुरादाबाद से भाग कर जिगर आगरा पहुंचे और वहां एक चश्मा बनानेवाली कंपनी के विक्रय एजेंट बन गए। इस काम में जिगर को जगह जगह घूम कर आर्डर लाने होते थे। शराब की लत वो विद्यार्थी जीवन ही में लगा चुके थे। उन दौरों में शायरी और शराब उनकी हमसफ़र रहती थी। आगरा में उन्होंने वहीदन नाम की एक लड़की से शादी कर ली थी। वो उसे लेकर अपनी माँ के पास मुरादाबाद आ गए। कुछ ही दिनों बाद माँ का इंतिक़ाल हो गया। 
जिगर के यहां वहीदन के एक रिश्ते के भाई का आना-जाना था और हालात कुछ ऐसे बने कि जिगर को वहीदन के चाल चलन पर शक पैदा हुआ और ये बात इतनी बढ़ी कि वो घर छोड़कर चले गए। वहीदन ने छः माह उनका इंतिज़ार किया फिर उसी शख़्स से शादी कर ली।
 
जिगर बे सर-ओ-सामान और बे-यार-ओ-मददगार थे। और इस नई मानसिक और भावनात्मक पीड़ा का समाधान उनकी शराबनोशी भी नहीं कर पा रही थी। इसी अर्से में वो घूमते घामते गोंडा पहुंचे जहां उनकी मुलाक़ात असग़र गोंडवी से हुई। असग़र ने उनकी सलाहियतों को भाँप लिया, उनको सँभाला, उनको  दिलासा दिया और अपनी साली नसीम से उनका निकाह कर दिया। इस तरह जिगर उनके घर के एक फ़र्द बन गए। मगर सफ़र, शायरी और मदिरापान ने जिगर को इस तरह जकड़ रखा था कि शादीशुदा ज़िंदगी की बेड़ी भी उनको बांध कर नहीं रख सकी।
जगह जगह सफ़र की वजह से जिगर का परिचय विभिन्न जगहों पर एक शायर के रूप में हो चुका था। शायरी की तरक्क़ी की मंज़िलों में भी जिगर इस तरह के अच्छे शे’र कह लेते थे: 
"हाँ ठेस न लग जाये ऐ दर्द-ए-ग़म-ए-फुर्क़त
दिल आईना-ख़ाना है आईना जमालों का" 
और
आह, रो लेने से भी कब बोझ दिल का कम हुआ
जब किसी की याद आई फिर वही आलम हुआ।
कुछ शायरी की लोकप्रियता का नशा, कुछ शराब का नशा और कुछ पेशे की ज़िम्मेदारियाँ, ग़रज़ जिगर बीवी को छोड़कर महीनों घर से ग़ायब रहते और कभी आते तो दो-चार दिन बाद फिर निकल जाते। बीवी अपने ज़ेवर बेच बेच कर घर चलाती। जब कभी घर आते तो ज़ेवर बनवा भी देते लेकिन बाद में फिर वही चक्कर चलता।
 
इन परिस्थितियों ने असग़र की पोज़ीशन बहुत ख़राब कर दी थी क्योंकि उन्होंने ही यह शादी कराई थी। असग़र की बीवी का आग्रह था कि असग़र नसीम से शादी कर लें लेकिन वो दो बहनों को एक साथ एक ही घर में इस्लामी क़ानून के अनुसार नहीं रख सकते थे। इसलिए तय पाया कि असग़र अपनी बीवी या’नी नसीम की बड़ी बहन को तलाक़ दें और जिगर नसीम को। जिगर इसके लिए राज़ी हो गए और असग़र ने नसीम से शादी कर ली।
असग़र की मौत के बाद जिगर ने दुबारा नसीम से, उनकी इस शर्त पर निकाह किया कि वो शराब छोड़ देंगे। दूसरी बार जिगर ने अपनी तमाम पुरानी बुराइयों की न सिर्फ़ भरपाई कर दी बल्कि नसीम को ज़ेवरों और कपड़ों से लाद दिया। दूसरी बार नसीम से शादी से पहले जिगर की अकेलेपन का ख़्याल करते हुए कुछ संभ्रांत लोगों ने उन पर शादी के लिए दबाव भी डाला था और भोपाल से कुछ रिश्ते भी आए थे लेकिन जिगर राज़ी नहीं हुए। ये भी मशहूर है कि मैनपुरी की एक तवाएफ़ शिराज़न उनसे निकाह की इच्छुक थी।

जिगर बहुत भावुक, निष्ठावान, स्पष्ट वक्ता, देशप्रेमी और हमदर्द इन्सान थे। किसी की तकलीफ़ उनसे नहीं देखी जाती थी, वो किसी से डरते भी नहीं थे। लखनऊ के वार फ़ंड के मुशायरे में, जिसकी सदारत एक अंग्रेज़ गवर्नर कर रहा था, उन्होंने अपनी नज़्म "क़हत-ए-बंगाल” पढ़ कर सनसनी मचा दी थी। कई रियास्तों के प्रमुख उनको अपने दरबार से संबद्ध करना चाहते थे और उनकी शर्तों को मानने को तैयार थे लेकिन वो हमेशा इस तरह की पेशकश को टाल जाते थे। उनको पाकिस्तान की शहरीयत और ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी की ज़मानत दी गई तो साफ़ कह दिया जहां, पैदा हुआ हूँ वहीं मरूँगा। गोपी नाथ अमन से उनके बहुत पुराने सम्बंध थे। जब वो रियास्ती वज़ीर बन गए और एक मुशायरे की महफ़िल में उनको शिरकत की दा’वत दी तो वो सिर्फ़ इसलिए शामिल नहीं हुए कि निमंत्रण पत्र मंत्रालय के लेटर हेड पर भेजा गया था। पाकिस्तान में एक शख़्स जो मुरादाबाद का ही था उनसे मिलने आया और हिन्दोस्तान की बुराई शुरू कर दी। जिगर को ग़ुस्सा आ गया और बोले, "नमक हराम तो बहुत देखे, आज वतन हराम भी देख लिया।”

जिगर ने कभी अपनी शराबनोशी पर फ़ख्र नहीं किया और हमेशा अपने उस दौर को अज्ञानता का दौर कहते रहे। बहरहाल उन्होंने शराब छोड़ने के बाद रमी खेलने की आदत डाल ली थी जिसमें खाने-पीने का भी होश नहीं रहता था। इसके लिए वो कहते थे, “किसी चीज़ में डूबे रहना या’नी ख़ुद को भुला देना मेरा स्वभाव है या बन गया है। ख़ुद को भुलाने और वक़्त गुज़ारी के लिए कुछ तो करना चाहिए और मेरी आदत है कि जो काम भी करता हूँ उसमें मध्यम की हदों पर नज़र नहीं रहती।"
 
जिगर आख़िरी ज़माने में बहुत मज़हबी हो गए थे। 1953 ई. में उन्होंने हज किया। ज़िंदगी की लापरवाहियों ने उनके दिल-दिमाग़ आदि को तबाह कर दिया था। 1941 ई. में उनको दिल का दौरा पड़ा। उनका वज़न घट कर सिर्फ़ 100 पौंड रह गया था। 1958 ई. में उन्हें दिल और दिमाग़ पर क़ाबू नहीं रह गया था। लखनऊ में उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा और ऑक्सीजन पर रखे गए। नींद की दवाओं के बावजूद रात रात-भर नींद नहीं आती थी। 1960 ई.  में उनको अपनी मौत का यक़ीन हो गया था और लोगों को अपनी चीज़ें बतौर यादगार देने लगे थे।

जिगर ऐसे शायर हैं जिनकी ग़ज़ल ग़ज़ल कहने की पुरानी परंपरा और बीसवीं सदी के मध्य और अंत की रंगीन निगारी का ख़ूबसूरत सम्मिश्रण है। जिगर शायरी में नैतिकता की शिक्षा नहीं देते लेकिन उनकी शायरी का नैतिक स्तर बहुत बुलंद है। वो ग़ज़ल कहने के पर्दे में इन्सानी ख़ामियों पर वार करते गुज़र जाते हैं। जिगर ने पुराने और आधुनिक सारे शायरों के चिंतन से लाभ उठाया। वो बहुत ज़्यादा आज़ाद ना सही लेकिन मकतबी काव्य-त्रुटियों की ज़्यादा पर्वा नहीं करते थे। वो चिंतन और गेयता को इन छोटी छोटी बातों पर क़ुर्बान नहीं करते थे। उनका कलाम बिना बनावट और आमद से भरा हुआ है, सरमस्ती और दिल-फ़िगारी, प्रभाव और सम्पूर्णता उनके कलाम की विशिष्टताएं है। उनकी ज़िंदगी और उनकी शायरी में पूर्ण समानता है। आपसी संवाद के एतबार से अक्सर ऐसे मुक़ामात मिलेंगे कि चित्रकार के सारे हुनर उनकी चित्रकारी के सामने फीके नज़र आएँगे। जिगर हुस्न-ओ-इशक़ को बराबरी का दर्जा देते हैं। उनके नज़दीक हुस्न और इश्क़ दोनों एक दूसरे के प्रतिबिम्ब हैं। जिगर ने ग़ज़ल कहने के हुनर को कला की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया और यही उनका सबसे बड़ा कारनामा है।

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