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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : सुहैल अज़ीमाबादी

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : नुसरत पब्लिशर्स, लखनऊ

मूल : लखनऊ, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1972

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : नॉवेल / उपन्यास

उप श्रेणियां : सामाजिक

पृष्ठ : 128

सहयोगी : सेंट्रल लाइब्रेरी ऑफ़ इलाहबाद यूनिवर्सिटी, इलाहबाद

be-jad ke paude
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पुस्तक: परिचय

سہیل عظیم آبادی کے بارے میں کچھ ناقدین کی رائے یہ ہے کہ انہوں نے اپنے ادبی سفر میں جو راہ اپنائی تھی وہ دراصل پریم چند کی بنائی ہوئی تھی۔ سادہ ، آسان اور بے باک لہجے میں انہوں نے اپنی نگارشات جس طرح پیش کیں ان کے بارے یہ خیال مسلم ہو جاتا ہے کہ پریم چند کا اسلوب تو انہوں نے اپنایا لیکن موضوعات کا تنوع انہیں الگ کردیتا ہے۔ مثلاً زیر نظر ناول ’بے جڑ کے پودے‘ میں انہوں نے جس موضوع کو ہاتھ لگایا ہے وہ ایک الگ دنیا کا قصہ بیان کرتا ہے۔ یعنی ہماری وہ معاشرت جس میں مغربی تہذیب بھی شامل ہے جہاں والدین میں جنسی بے راہ روی عام ہے۔ اسی بے راہ روی کا نتیجہ وہ بچے ہوتے ہیں جنہیں سماج حرامی کہہ کر مخاطب کرتا ہے، جبکہ اس میں ان بچوں کا کوئی دوش نہیں ہوتا۔ اس ناولٹ میں مزید وضاحت کے لیے بطور مقدمہ عبد المغنی کا وہ مضمون بھی شامل ہے جو انہوں نے اس ناولٹ پر لکھا تھا، یہ مضمون اس ناولٹ کے حوالے سے بہت اہم ہے۔

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लेखक: परिचय

सुहेल अज़ीमाबादी उर्दू के एक नामवर कहानीकार हैं। प्रेमचंद की परंपरा बिहार की सरज़मीन पर उन्ही के दम से आगे बढ़ी। मौलवी अब्दुलहक़ के संरक्षण में उन्होंने बिहार में उर्दू के विकास के लिए आन्दोलन चलाया। अपने मशहूर अख़बार “साथी” से उन्हें इस काम में बहुत मदद मिली। इसके अलावा मासिक “तहज़ीब” ने भी इस उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश की।

सुहेल अज़ीमाबादी ने बहुत सी कहानियां लिखीं और उन कहानियों में वास्तविक जीवन की रंगीनियों को प्रस्तुत करने की कामयाब कोशिश की। उनकी कहानियों का दायरा बहुत विस्तृत है। प्रेमचंद की पैरवी में वो ग्रामीण जीवन को अपना विषय बनाते हैं लेकिन शहरी ज़िंदगी को भी नहीं भूलते। 
सुहेल अज़ीमाबादी पर प्रगतिशील आन्दोलन का प्रभाव भी साफ़ देखा जा सकता है। उन्होंने ग़रीबों और पीड़ितों के समर्थन में आवाज़ उठाई और अपनी कहानियों में उनकी समस्याओं को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।

वो एक सफल कलमकार हैं उनके कलम में गहराई है क्योंकि वो मुद्दों पर गंभीरता से विचार करते हैं। यह दिलचस्प है वो कथानक और पात्र संरचना पर ख़ून-ए-जिगर सर्फ़ करते हैं और आख़िरी बात ये कि भाषा पर उन्हें पूरी महारत हासिल है इसलिए उनकी प्रस्तुति शैली बहुत प्रभावी है। वक़ार अज़ीम लिखते हैं, “सुहेल के अफ़सानों में न ज़िंदगी पर ज़्यादा ज़ोर पड़ता है और न फ़न पर, उनके यहाँ तंज़ है लेकिन उसमें तल्ख़ी नहीं, साहित्यिकता है लेकिन इसका शायराना अतिश्योक्ति नहीं, ज़िंदगी की सच्चाई है लेकिन उसमें ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं। उनकी कहानियां ज़िंदगी की तड़प हैं लेकिन मन के शांति का संदेश हैं।” 

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