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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ

संपादक : सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू, कराची

मूल : कराची, पाकिस्तान

प्रकाशन वर्ष : 1950

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : दीवान

पृष्ठ : 211

सहयोगी : सेंट्रल लाइब्रेरी ऑफ़ इलाहबाद यूनिवर्सिटी, इलाहबाद

deewan-e-fughan
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पुस्तक: परिचय

میر تقی میر اور محمد رفیع سودا اپنے زمانہ میں شاعری کی سُپر پاور تھے ۔ ان لوگوں نے ایہام گوئی کی سلطنت کے زوال کے بعد زبان و بیان کے نئے علاقوں کو فتح کیا تھا۔ ان قد آور شخصیتوں کا کوئی مد مقابل نہیں تھا لیکن کچھ دوسرے شعراء اپنے شعری اظہار کے لئے نئی وادیوں کی تلاش میں تھے ۔ان میں انعام اللہ خاں یقینؔ اور اشرف علی فغاںؔ پیش پیش تھے۔دونوں کا میدان عمل مضامین تازہ کی تلاش تھا۔ عبدالسلام ندوی نے تو انھیں میر وسودا کا ہم پلہ قرار دے دیا۔ فغاں فارسی اور اردو دونوں زبانوں میں اشعار کہتے تھے ۔ زیر نظر دیوان میں انکے فارسی کلام کا بھی نمونہ آخر میں دیا گیا ہے۔ اس کے علاوہ مرتب نے طویل مقدمہ کے تحت فغاں کی حالات زندگی کے علاوہ تمام اصناف پر باقاعدہ گفتگو کی ہے۔ ان کے اردو قصائد، غزلیات، رباعیات، قطعات اور ہجویات وغیرہ کو اس دیوان میں پڑھا جاسکتا ہے۔

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लेखक: परिचय

मीर तक़ी मीर और मुहम्मद रफ़ी सौदा अपने ज़माने में शायरी के सुपर पावर थे। उन लोगों ने ईहाम गोई की सलतनत के पतन के बाद भाषा और अभिव्यक्ति के नए क्षेत्रोँ में विजय प्राप्त की थी। इन क़दआवर शख़्सियतों का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था लेकिन कुछ दूसरे शायर अपने काव्य अभिव्यक्ति के लिए नई वादीयों की तलाश में थे। उनमें इनाम उल्लाह ख़ां यक़ीन और अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ पेश पेश थे। दोनों का कार्य क्षेत्र ताज़ा विषयों की तलाश था। यक़ीन की उम्र ने वफ़ा न की लेकिन वो अपने ज़माने में बहुत लोकप्रिय होने के साथ साथ विवादास्पद भी थे। अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ को ज़माने के हालात ने दिल्ली से, जो उत्तर भारत में साहित्य का केंद्र था, उखाड़ कर बहुत दूर ऐसे मुक़ाम पर डाल दिया जहां वो अपनी अंदरूनी ताक़त के बल पर ज़िंदा तो ज़रूर रहे लेकिन उन लोगों की तरह फल-फूल नहीं सके जिनको शायरी के लिए लखनऊ की साज़गार सरज़मीन मिल गई थी। शायरी में मीर-ओ-सौदा का तूती बोलता रहा और उसके बाद जुरअत, इंशा, मुसहफ़ी और नासिख़ के डंके कुछ इस तरह बजे कि फ़ुग़ां उन जैसे दूसरे शायरों को लोगों ने लगभग भुला ही दिया। उनका दीवान पहली बार 1950 ई. में प्रकाशित हो सका। तब तक ज़माने की रूचि कहाँ से कहाँ पहुंच चुकी थी। श्रोताओं व पाठकों के ज़ेहनों पर फ़ानी, फ़िराक़, जोश, अख़तर शीरानी, मजाज़, फ़ैज़ और जिगर राज कर रहे थे। फ़ुग़ां के दीवान को बुज़ुर्गों के तबर्रुक से ज़्यादा अहमियत नहीं मिली और उनके मुल्यांकन का उचित निर्धारण अभी तक बाक़ी है। फ़ुग़ां उन शायरों में से एक हैं जिनकी अहमियत को सभी तज़किरा लेखकों ने स्वीकार किया है। मीर तक़ी मीर ने भी, जो बमुश्किल किसी को ख़ातिर में लाते थे, फ़ुग़ां का उल्लेख अच्छे शब्दों में किया है। सौदा तो उनकी शायरी के बड़े प्रशंसक थे और बक़ौल आज़ाद उनके शे’र मज़े ले-ले कर पढ़ते थे। उन्होंने उनके एक शे’र; 
शिकवा तू क्यों करे है मिरे अश्क-ए-सुर्ख़ का
तेरी कब आस्तीं मिरे लहू से भर गई

को आधार बना कर ऐसा लाजवाब क़तअ लिखा कि मीर साहब भी वाह वाह कह उठे। शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ ने फ़ुग़ाँ के दीवान को अपने हाथ से नक़ल किया था। मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने जब उस दीवान को पढ़ा तो उनकी आँखें रोशन हो गईं और आब-ए-हयात में लिखा कि “फ़ुग़ाँ  शाइरी के फ़न के एतबार से बहुतही सिद्धांतवादी और अविचारित थे और शब्दों की बंदिश उनकी शायरी के अभ्यास पर गवाही देती है... उनकी तबीयत एशियाई शायरी के लिए बहुत उपयुक्त थी।” और अब्दुस्सलाम नदवी ने तो उन्हें मीर व सौदा के बराबर क़रार दे दिया।

फ़ुग़ां के ज़िंदगी के हालात के बारे में हमारी जानकारी सीमित है। उनकी सही जन्म तिथि भी नहीं मालूम हो सकी है लेकिन इस बुनियाद पर कि वो अहमद बादशाह के दूध शरीक भाई थे, अनुमान से उनकी पैदाइश 1728 ई. दर्ज की गई है। उनके वालिद का नाम मिर्ज़ा अली ख़ां नुक्ता था जिससे अंदाज़ा होता है कि वो भी शायर थे। बादशाह के दूध शरीक भाई होने के सिवा शाही ख़ानदान से उनके रिश्ते की नौईयत मालूम नहीं। लेकिन उनकी गिनती अमीरों में थी और उनको पांच हज़ारी मन्सब के इलावा बादशाह की तरफ़ से ज़रीफ़-उल-मुल्क कोका ख़ां का ख़िताब भी मिला हुआ था। फ़ुग़ाँ के हास्य-व्यंग्य और लतीफ़ेबाज़ी का ज़िक्र सारे तज़किरा लिखनेवालों ने किया है। शायद स्वभाव के इसी संयोग ने उनसे निंदाएं भी लिखवाईं। ख़ुद कहते थे, मैं दिल्ली से अज़ीमाबाद तक हास्य-व्यंग्य और लतीफ़ेबाज़ी में किसी से नहीं हारा सिवाए एक गाने वाली औरत से। एक दिन एक मजलिस में बहुत से शिष्ट थे और मैं अच्छी शायरी व शिष्ट लतीफ़ों से हाज़िरीन-ए-मजलिस को ख़ुश कर रहा था और गाने वालियों को जो इस मजलिस में हाज़िर थीं और हाज़िर जवाबी पर आमादा थीं, हर बात पर शर्मिंदा कर रहा था कि अचानक इस गिरोह की एक औरत वहां आई। जब फ़र्श के किनारे तक आई तो चाहती थी कि पैरों से जूतीयां उतार कर फ़र्श पर आए लेकिन संयोग से एक जूती उसके दामन से उलझ कर फ़र्श पर आ पड़ी। मैंने मज़ाक़ के तौर पर उपस्थित लोगों को संबोधित करके कहा, "दोस्तो, देखो बीबी साहिबा जब किसी मजलिस में जाती हैं तो अपने जोड़े को जुदा नहीं करतीं, साथ लाती हैं।” वो शर्मिंदा तो हुई लेकिन हाथ जोड़ कहा, “बजा है, कनीज़ का यही हाल है लेकिन आप जब मजलिस में रौनक़ अफ़रोज़ होते हैं तो आप अपने जोड़े को ख़िदमतगारों और ख़वासों के हवाले करके आते हैं। इंसाफ़ कीजिए कि हक़ बजानिब कौन है?” ये जवाब सुनकर मैं बहुत ख़जल और शर्मसार हुआ और मुझसे कोई जवाब न बन पड़ा।” मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने एक और लतीफ़ा लिखा है कि फ़ुग़ां ने अज़ीमाबाद में एक ग़ज़ल कही जिसका क़ाफ़िया लालियाँ, जालियाँ था लेकिन उस ग़ज़ल में तालियाँ का क़ाफ़िया अशिष्ट समझ कर छोड़ दिया था। दरबार में एक मस्ख़रा जुगनू नाम का था। उसने कहा कि नवाब साहिब तालियाँ का क़ाफ़िया रह गया। फ़ुग़ां उसकी बात को टाल गए लेकिन राजा शताब राय ने कहा, “नवाब साहब सुनिए, मियां जुगनू क्या कहते हैं, तब फ़ुग़ां ने फ़िलबदीह कहा;
जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात को
सब देख देख उसको बजाते हैं तालियाँ

अहमद शाह बादशाह के हुकूमत के दौर में फ़ुग़ां दिल्ली में इज़्ज़त-ओ-आराम की ज़िंदगी गुज़ारते रहे लेकिन जब इमादा-उल-मुल्क ने बादशाह को तख़्त से उतार कर उनकी आँखों में सलाईयाँ फेरवा दें तो फ़ुग़ां के लिए ये दोहरा सदमा था। उनको बादशाह से दिली मुहब्बत थी। बादशाह की अपदस्थता के साथ उनके मुसाहिब भी लाभ से वंचित हो गए। उधर सगे भाई ने समस्त पैतृक संपत्तियों पर क़ब्ज़ा कर लिया। कुछ अर्सा हालात का मुक़ाबला करने के बाद फ़ुग़ां अपने चचा ऐरज ख़ान के पास चले गए जो मुर्शिदाबाद में एक उच्च पद पर आसीन थे। सफ़र में वो इलाहाबाद से गुज़रे जो उनको बिल्कुल पसंद नहीं आया और उसकी निंदा लिखी; 
ये वो शहर जिसको कहें हैं पराग 
मिरा बस चले आज दूं इसको आग

जहां तक तिरी है वहां सेल है
नज़र आई ख़ुशकी तो खपरैल है

लिखूँ ख़ाक नक़्शा मैं इस शहर का
कि ये तो है बैत-उल-ख़ला दह्र का 

फ़ुग़ां का दिल मुर्शिदाबाद में भी नहीं लगा और वो दिल्ली वापस आ गए। लेकिन वहां के हालात दिन प्रति दिन ख़राब से ख़राब तर होते जा रहे थे। इस बार उन्होंने अवध का रुख़ किया। नवाब शुजा उद्दौला ने उनकी आव भगत की। नवाब ने एक दिन मज़ाक़ ही मज़ाक़ में एक तप्ता हुआ पैसा उनके हाथ पर रख दिया जिससे उनको सख़्त तकलीफ़ हुई। इसके बाद उनका दिल नवाब की तरफ़ से फीका पड़ गया और वो अज़ीमाबाद चले गए जहां राजा शताब राय ने उनको हाथों-हाथ लिया और अपना मुसाहिब बना कर एक जागीर उनको दे दी। फ़ुग़ाँ ने बाक़ी ज़िंदगी आराम के साथ अज़ीमाबाद में गुज़ारी। फ़ुग़ाँ नाज़ुक-मिज़ाज भी बहुत थे। एक बयान ये भी है कि ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में वो राजा साहब मज़कूर से भी ख़फ़ा हो गए थे और अंग्रेज़ अफ़सरों की इनायात हासिल कर ली थीं। राजा ने एक दिन व्यंग्य से या फिर अपनी सादगी में उनसे पूछ लिया था, “नवाब साहब! नादिर शाह मलिका ज़मानी को क्योंकर साथ ले गया?” फ़ुग़ां को ये बात बहुत नागवार गुज़री और उन्होंने जल कर कहा, “महाराज, उसी तरह जिस तरह रावण सीता को उठा ले गया था।” और उसके बाद दरबार में जाना छोड़ दिया। फ़ुग़ाँ ने ज़िंदगी का बाक़ी हिस्सा अज़ीमाबाद में ही गुज़ारा और 1773 ई. में वहीं उनका स्वर्गवास हुआ। उनकी क़ब्र शेर शाही मस्जिद के क़रीब बावन बुर्ज के इमाम बाड़े के अहाते में है।

शायरी फ़ुग़ाँ के लिए पेशा नहीं थी लेकिन शुरू उम्र से ही शायरी का शौक़ था और तबीयत ऐसी उपयुक्त पाई थी कि जल्द ही मशहूर हो गए। उनकी शायरी गुदाज़ का आईना और मश्शाक़ी का सबूत है। ज़बान इतनी साफ़ है कि अगर उनके शे’र को वर्तमान समय के किसी शायर का कलाम कह कर सुना दिया जाये तो वो शक नहीं करेगा, जैसे; 

बिठा गया है कहाँ यार बेवफा मुझको 
कोई उठा न सका मिस्ल-ए-नक़श-ए-पा मुझको
  या
शब-ए-फ़िराक़ में अक्सर मैं आईना लेकर
ये देखता हूँ कि आँखों में ख़्वाब आता है 
 और
तू भी हैरत में रहा देख के आईने को
जो तुझे देख के हैराँ न हुआ था सो हुआ
 या फिर
दस्त-बरदार नहीं ख़ून-ए-शहीदाँ से हनूज़
कब हुए सुर्ख़ हिना से मिरे दिलदार के हाथ 
 और
आलम को जलाती है तिरी गर्मी-ए-मजलिस
मरते हम अगर साया-ए-दीवार न होता

इन सभी अशआर में ज़बान की सफ़ाई के साथ विषय का नयापन उल्लेखनीय है। मीर तक़ी मीर का ये लाजवाब शे’र;
शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए

सभी ने सुन रखा है, उसी ज़मीन में फ़ुग़ाँ का शे’र भी सुन लीजिए; 
पास रहा क्या जिसे बर्बाद दूं
ख़ाना-ख़राबी को भी घर चाहिए

(दूसरा मिसरा ज़रा ध्यान से पढ़िए। ख़ाना-ख़राबी को भी अपने लिए इक घर की ज़रूरत है)। क़तअ बंद अशआर पुरानों के कलाम की एक विशेषता रही है। लेकिन फ़ुग़ाँ ने उसे दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा बरता है। सोच का नयापन, नए विषयों की तलाश और ज़बान की सफ़ाई फ़ुग़ाँ की वो विशेषताएं हैं जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करती हैं।
 

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