aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
شاد عظیم آبادی کا شمار اردو کے کلاسیکی شعرأ میں ہوتا ہے ۔ انہوں نے نثر اور نظم میں پچاسوں کتابیں یادگار چھوڑی ہیں ،جن سے ان کی گونا گوں خوبیوں کا علم ہوتا ہے ۔ ساتھ ہی یہ بھی محسوس ہوتا ہے کہ شادؔ اپنی ذات میں ایک انجمن تھے ۔ ازیر نظر کتاب ،شاد عظیم آبادی کے تذکروں پر مشتمل ہے ، اس کتاب میں ، مرثیہ گویاں باکمال مرزا دل گیر ، میر خلیق ، میر ضمیر ، مرزا فصیح ،مرزا دبیر ، میر انیس ، میر مونس ، مرزا نس ، میر عشق ، اور میر تعیش وغیرہ جیسی شخصیات کے تذکرے شامل ہیں ۔
नम आलूदगियों का शायर
शाद की अहमियत साहित्यिक भी है और ऐतिहासिक भी। तारीख़ी इस मायनी में कि जब ग़ज़ल के ऊपर हमले हो रहे थे और चांदमारियां हो रही थीं, उस ज़माने में शाद ग़ज़ल के अलम को बुलंद किए रहे। अदबी बात ये हुई कि क्लासिकी ग़ज़ल के कई रंगों को अख़्तियार कर के उन्हें सच्चे और ख़ालिस अदब में पेश करना शाद का कारनामा है।
शम्स उर्रहमान फ़ारूक़ी
शाद अज़ीमाबादी उर्दू के एक बड़े और अहम शायर, विद्वान, शोधकर्ता, इतिहासकार और उच्च कोटि के गद्यकार थे। मशहूर आलोचक कलीम उद्दीन अहमद ने उन्हें उर्दू ग़ज़ल की त्रिमूर्ति में मीर और ग़ालिब के बाद तीसरे शायर के रूप में शामिल किया। मजनूं गोरखपुरी ने उन्हें नम आलूदगियों का शायर कहा। अल्लामा इक़बाल भी उनकी शायरी के प्रशंसक थे। उनकी शायरी एक हकीमाना मिज़ाज रखती है। प्रस्तुतिकरण और शैली बहुत ही परिष्कृत, सजी हुई और प्रतिष्ठित है और उनके अशआर की शीरीनी, घुलावट और आकर्षण लाजवाब है। ज़िंदगी और उसकी असमानताओं पर वो गहरी नज़र रखते हैं। उनके अशआर में एक ख़ास तरह की गर्मी, सोज़ और कसक है। उनके कलाम में आनंद के साथ साथ अंतर्दृष्टि भी स्पष्ट है। शाद अज़ीमाबादी का गौरव ये है कि वो अपने हुनर को क्लासीकियत की एक नई सतह पर इस तरह आज़माते हैं कि न तो उन्हें सपाट और बेरंग होने से डर लगता है और न वो ग़ज़ल की तराश-ख़राश, नफ़ासत और तग़ज़्ज़ुल की आम धारणा से प्रभावित होते हैं। शाद की शायरी में परंपरा को तोड़ने की नहीं बल्कि परंपरा में विस्तार के चिन्ह मिलते हैं इसलिए उनकी शायरी पर एक व्यक्तिगत चेतना की मुहर लगी है और उसे परंपरा की भीड़ में अलग से पहचाना जा सकता है।
शाद अज़ीमाबादी 1846 में अज़ीमाबाद (पटना) के एक रईस घराने में पैदा हुए। उनका असल नाम सय्यद अली मुहम्मद था। उनके वालिद सय्यद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन की गणना पटना के धनाड्यों में होती थी। उनके घर का माहौल मज़हबी और अदबी था। शाद बचपन से ही बहुत ही ज़हीन थे और दस बरस की उम्र में ही उन्होंने फ़ारसी भाषा साहित्य पर ख़ासी दस्तरस हासिल कर ली थी और शे’र भी कहने लगे थे। उनके माता-पिता उनकी शायरी के विरुद्ध थे और उनको इराक़ भेज मज़हबी शिक्षा दिलाना चाहते थे लेकिन शाद उनसे छुप छुपा कर शायरी करते रहे और सय्यद अलताफ़ हुसैन फ़र्याद की शागिर्दी अख़्तियार कर ली। अध्ययन के बढ़े हुए शौक़ और उसके नतीजे में रात्रि जागरण की वजह से वो मेदे की कमज़ोरी और ह्रदय के मरीज़ बन गए लेकिन चिकित्सकों की चेतावनी के बावजूद उन्होंने अपना रवैया नहीं बदला जिसका असर ये हुआ कि स्थायी रोगी बन कर रह गए। एक शायर के रूप में शाद की शोहरत का आग़ाज़ उस वक़्त हुआ जब उस वक़्त की विश्वस्त साहित्यिक पत्रिका “मख़ज़न” के संपादक सर अब्दुल क़ादिर सरवरी पटना आए और उनकी मुलाक़ात शाद से हुई। वो शाद की शायरी से बहुत प्रभावित हुए और उनका कलाम अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने लगे। शाद ने शायरी में ग़ज़ल के अलावा मरसिए, रुबाईयाँ, क़ेतात, मुख़म्मस और मुसद्दस भी लिखे। वो अच्छे गद्यकार भी थे। उन्होंने कई उपन्यास लिखे जिनमें उनका उपन्यास “पीर अली” जो पहली स्वतंत्रता संग्राम के विषय पर उर्दू का पहला उपन्यास है, उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओँ में प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने बड़ी संख्या में पत्र भी लिखे। “शाद की कहानी शाद की ज़बानी” उनकी आत्मकथा है। 1876 में प्रिंस आफ़ वेल्ज़ हिंदुस्तान आए तो उन्होंने शाद से बिहार का इतिहास लिखने की फ़र्माइश की। शाद ने तीन खंडों में बिहार का इतिहास लिखा जिसके दो खंड प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी किताब “नवाए वतन” पर बिहार में बड़ा तूफ़ान खड़ा हुआ था। उस किताब में शाद ने अज़ीमाबाद और बिहार के दूसरे स्थानों के शरीफ़ों की ज़बान में ख़राबियों को रेखांकित किया था। उस पर बिहार के अख़बारात व पत्रिकाओं में उन पर ख़ूब ले दे हुई। उनके ख़िलाफ़ एक पर्चा भी निकाला गया, रात के अंधेरे में लोग जुलूस की शक्ल में उनके घर के बाहर खड़े हो कर उनके ख़िलाफ़ नौहे पढ़ते। उनके समर्थकों ने भी जवाब में “अख़बार-ए-आलम” निकाला जिसमें उनके विरोधियों को जवाब दिए जाते। उन वाक़ियात के बाद वो पटना में ज़्यादा हरदिल अज़ीज़ नहीं रह गए थे। बहरहाल वो सियासी और सामाजिक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते रहे। वो पटना म्युनिस्पिल्टी के सदस्य और म्युनिस्पल कमिशनर भी रहे।1889 में उन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी नामज़द किया गया। शाद ने ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा ठाट बाट से गुज़ारा। सफ़र के दौरान भी आठ दस मुलाज़िम उनके साथ होते थे लेकिन ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में उन्हें अंग्रेज़ का वज़ीफ़ा-ख़्वार होना पड़ा। सरकार की तरफ़ से उनको घर की मरम्मत की मदद में एक हज़ार रुपये, किताबों के प्रकाशन के लिए नौ सौ रुपये और निजी ख़र्च के लिए वार्षिक एक हज़ार रुपये मिलते थे। शाद को पत्रकारिता से भी दिलचस्पी थी। 1874 में उन्होंने एक साप्ताहिक “नसीम-ए-सहर” के नाम से जारी किया था जो सात बरस तक निकलता रहा। उसमें वो मानद संपादक थे। शाद ने सारा जीवन लेखन और संपादन में गुज़ारा। उनकी अनगिनत रचनाओं में से मात्र दस का प्रकाशन हो सका। उन्होंने विभिन्न विधाओं और विषयों पर लगभग एक लाख शे’र कहे और कई दर्जन गद्य रचनाएं सम्पादित कीं। उनका बहुत सा कलाम नष्ट हो गया।
शाद अज़ीमाबादी ने उर्दू ग़ज़ल में सच्ची भावनाओं व संवेनाओं के प्रतिनिधित्व के साथ एक नए रंग-ओ-आहंग की ताज़गी-ओ-तवानाई पेश करने की कोशिश की। इशारों इशारों में वो अपने वक़्त के हालात पर भी तब्सिरा कर जाते हैं। उनके कलाम में इंसान की ख़ुदग़र्ज़ियों और गुमराहियों का भी बयान है। उन्होंने सारी उम्र शे’र-ओ-अदब की ख़िदमत में गुज़ार दी और वो आजीवन बीमारियों से लड़ते और समकालिकों के विरोधों को झेलते रहे। 8 जनवरी 1927 को उनका देहांत हो गया।
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