ख़लीलुर्रहमान आ’ज़मी को उर्दू की नई शाइ’री और आलोचना के शिखर-पुरूषों में शुमार किया जाता है। उनकी नज़्मों और ग़ज़लों ने, अपने समय के सवालों से जूझते हुए आदमी की गहरी वेदना को ज़बान दी, तो आलोचना ने 1960 और 1970 के दशकों में, एक संतुलित और वस्तु-परक दृष्टि देकर नए शाइ’रों का मार्गदर्शन किया। 1927 में आ’ज़मगढ़ में जन्मे आ’ज़मी ने मुस्लिम युनिवर्सिटी अ’लीगढ़ में शिक्षा पाई और वहीं शिक्षण कार्य किया। बी़ ए़ करने के दौरान ही ख़्वाजा हैदर अ’ली ‘आतिश’ पर अपने आलोचनात्मक लेख से मशहूर हो गए। 1947 में, ट्रेन से देहली से अ’लीगढ़ के सफ़र के दौरान दंगाइयों का हमला हुआ और तक़रीबन मुर्दा हालत में अस्पताल लाए गए। ये घटना सारी ज़िन्दगी उनके दिल-ओ-दिमाग़ पर तारी रही। 1955 में पहला कविता-संग्रह ‘काग़ज़ी पैरहन’, 1965 में दूसरा संग्रह ‘नया अह्दनामा’ और 1983 में ‘ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी’ नाम से तीसरी संग्रह उनके देहांत के बा’द छपा। उन्होंने 1978 में कैंसर से हार कर आख़िरी सांस ली।