aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
منشی پریم چند کا یہ ناول 1936ء میں شائع ہوا۔ اسے پریم چند کا سب سے بہترین ناول مانا جاتا ہے۔ ناول ہندوستان کے پسے ہوئے کسانوں کی دکھ بھری زندگی کا احاطہ کرتا ہے۔ پریم چند نے نہایت بے باکی سے دہقانوں سے روا رکھے جانے والے ریاستی مظالم کا نقشہ کھینچا ہے۔ گئو دان پہلے دیوناگری رسم الخط میں لکھا گیا تھا پھر اقبال بہادر ورما ساحر نے اسے اردو زبان کے قالب میں ڈھالا۔ یہ پڑھنے کے بعد احساس ہوتا ہے کہ کیوں اسے اردو زبان کا سب سے عظیم ناول قرار دیا جاتا ہے۔
जदीद उर्दू फ़िक्शन का बादशाह
“उत्कृष्ट अफ़साना वो होता है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर रखी जाये, बुरा व्यक्ति बिल्कुल ही बुरा नहीं होता, उसमें कहीं फ़रिश्ता ज़रूर छुपा होता है। उस पोशीदा और ख़्वाबीदा फ़रिश्ते को उभारना और उसका सामने लाना एक कामयाब अफ़साना निगार का शेवा है।”
मुंशी प्रेमचंद
प्रेमचंद उर्दू और हिन्दी दोनों ज़बानों के एक बड़े अफ़साना निगार और उससे भी बड़े नॉवेल निगार समझे जाते हैं। हिन्दी वाले उन्हें “उपनियास सम्राट” यानी नॉवेल निगारी का बादशाह कहते हैं। अपने लगभग 35 वर्ष के साहित्यिक जीवन में उन्होंने जो कुछ लिखा उस पर एक बुलंद राष्ट्रीय मिशन की मुहर लगी हुई है। उनकी रचनाओं में देशभक्ति का जो तीव्र भावना नज़र आती है उसकी उर्दू अफ़साना निगारी में कोई मिसाल नहीं मिलती। वो स्वतंत्रता आंदोलन के मतवाले थे यहां तक कि उन्होंने महात्मा गांधी के “असहयोग आंदोलन” पर लब्बैक कहते हुए अपनी 20 साल की अच्छी भली नौकरी से, जो उन्हें लंबी ग़रीबी और कड़ी मशक्कत के बाद हासिल हुई थी, इस्तीफ़ा दे दिया था। उनके लेखन में बीसवीं सदी के आरंभिक 30-35 वर्षों की सियासी और सामाजिक ज़िंदगी की जीती-जागती तस्वीरें मिलती हैं, उन्होंने अपने पात्र आम ज़िंदगी से एकत्र किए लेकिन ये आम पात्र प्रेमचंद के हाथों में आकर ख़ास हो जाते हैं। वो अपने पात्रों के अन्तर में झाँकते हैं, उनमें पोशीदा या छुपे हुए अच्छे-बुरे का अनुभव करते हैं, उनके अंदर जारी द्वंद्व को महसूस करते हैं और फिर उन पात्रों को इस तरह पेश करते हैं कि वो पात्र पाठक को जाने-पहचाने मालूम होने लगते हैं। नारी की महानता, उसके नारीत्व के आयाम और उसके अधिकारों की पासदारी का जैसा एहसास प्रेमचंद के यहां मिलता है वैसा और कहीं नहीं मिलता। प्रेमचंद एक आदर्शवादी, यथार्थवादी थे। उनके लेखन में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच संतुलन की तलाश की एक निरंतर प्रक्रिया जारी नज़र आती है।
मुंशी प्रेमचंद 31 जुलाई 1880 को बनारस के नज़दीक लमही गांव में पैदा हुए। उनका असल नाम धनपत राय था और घर में उन्हें नवाब राय कहा जाता था। इसी नाम से उन्होंने अपनी अदबी ज़िंदगी का आग़ाज़ किया। उनके पिता अजायब राय डाकखाने में 20 रुपये मासिक के मुलाज़िम थे और ज़िंदगी तंगी से बसर होती थी। ज़माने के नियम के अनुसार प्रेमचंद ने आरंभिक शिक्षा गांव के मौलवी से मकतब में हासिल की, फिर उनके पिता का तबादला गोरखपुर हो गया तो उन्हें वहां के स्कूल में दाख़िल किया गया। लेकिन कुछ ही समय बाद अजायब राय तबदील हो कर अपने गांव वापस आगए। जब प्रेमचंद की उम्र सात बरस थी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया और बाप ने दूसरी शादी करली। उसके बाद घर का वातावरण पहले से भी ज़्यादा कटु हो गया जिससे फ़रार के लिए प्रेमचंद ने किताबों में पनाह ढूंढी। वो एक पुस्तक विक्रेता से सरशार, शरर और रुसवा के उपन्यास ले कर, तिलिस्म होश-रुबा और जॉर्ज रेनॉल्ड्स वग़ैरा के नाविलों के अनुवाद पढ़ने लगे। पंद्रह साल की उम्र में उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनकी शादी उनसे ज़्यादा उम्र की एक कुरूप लड़की से कर दी गई। कुछ दिन बाद अजायब राय भी चल बसे और बीवी के अलावा सौतेली माँ और दो सौतेले भाईयों की ज़िम्मेदारी उनके सर पर आगई। उन्होंने अभी दसवीं जमात भी नहीं पास की थी। वो रोज़ाना नंगे पैर दस मील चल कर बनारस जाते, ट्युशन पढ़ाते और रात को घर वापस आकर दीये की राश्नी में पढ़ते। इस तरह उन्होंने 1889 में मैट्रिक का इम्तहान पास किया। हिसाब में कमज़ोर होने की वजह से उन्हें कॉलेज में दाख़िला नहीं मिला तो 18 रूपये मासिक पर एक स्कूल में मुलाज़िम हो गए। इसके बाद उन्होंने 1904 में इलाहाबाद ट्रेनिंग स्कूल से अध्यापन की सनद हासिल की और 1905 में उनकी नियुक्ति कानपुर के सरकारी स्कूल में हो गई। यहीं उनकी मुलाक़ात पत्रिका “ज़माना” के संपादक मुंशी दया नरायन निगम से हुई। यही पत्रिका अदब में उनके लिए लॉंचिंग पैड बना। 1908 में प्रेमचंद मदरसों के सब इंस्पेक्टर की हैसियत से महोबा(ज़िला हमीरपुर) चले गए। 1914 में वो बतौर मास्टर नॉर्मल स्कूल बस्ती भेजे गए और 1918 में तबदील हो कर गोरखपुर आ गए। अगले साल उन्होंने अंग्रेज़ी अदब, फ़ारसी और इतिहास के साथ बी.ए किया। 1920 में, जब असहयोग आंदोलन शबाब पर था और जलियांवाला बाग़ का वाक़िया गुज़रे थोड़ा ही अरसा हुआ था, गांधी जी गोरखपुर आए। उनके एक भाषण का प्रेमचंद ने ये असर लिया कि अपनी बीस साल की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और एक बार फिर आर्थिक तंगी का शिकार हो गए। 1922 में उन्होंने चर्खों की दुकान खोली जो नहीं चली तो कानपुर में एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। यहां भी नहीं टिक सके। तब उन्होंने बनारस में सरस्वती प्रेस लगाया जिसमें घाटा हुआ और बंद करना पड़ा। 1925 और 1929 में दो बार उन्होंने लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस में नौकरी की, पाठ्य पुस्तकें लिखीं और एक हिन्दी पत्रिका “माधुरी” का संपादन किया। 1929 में उन्होंने हिन्दी/ उर्दू पत्रिका “हंस” निकाली। सरकार ने कई बार उसकी ज़मानत ज़ब्त की लेकिन वो उसे किसी तरह निकालते रहे। 1934 में वो एक फ़िल्म कंपनी के बुलावे पर बंबई आए और एक फ़िल्म “मज़दूर” की कहानी लिखी लेकिन कुछ प्रभावी लोगों ने बंबई में उसकी नुमाइश पर पाबंदी लगवा दी। ये फ़िल्म दिल्ली और लाहौर में रीलीज़ हुई लेकिन बाद में वहां भी पाबंदी लग गई क्योंकि फ़िल्म से उद्योगों में अशांति का भय था। उस फ़िल्म में उन्होंने ख़ुद भी मज़दूरों के लीडर का रोल अदा किया था। बंबई में उन्हें फिल्मों में और भी लेखन का काम मिल सकता था लेकिन उन्हें फ़िल्मी दुनिया के तौर-तरीक़े पसंद नहीं आए और वो बनारस लौट गए। 1936 में प्रेमचंद को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष चुना गया। प्रेमचंद की ज़िंदगी के अंतिम दिन कष्ट और निरंतर बीमारी के सबब बहुत तकलीफ़ से गुज़रे। 8 अक्तूबर 1936 को उनका स्वर्गवास हो गया।
प्रेमचंद का अपनी पहली पत्नी से निबाह नहीं हो सका था और वो अलग हो कर अपने मायके चली गई थीं उनके अलग हो जाने के बाद प्रेमचंद ने घर वालों की मर्ज़ी और रीति के विरुद्ध एक कमसिन विधवा शिव रानी देवी से शादी कर ली थी। उनसे उनके एक बेटी कमला और दो बेटे श्रीपत राय और अमृत राय पैदा हुए।
प्रेम चंद की पहली रचना एक हास्य नाटक था जो उन्होंने 14 साल की उम्र में अपने बुरे चाल चलन मामूं का रेखाचित्र उड़ाते हुए लिखा था। अगले साल उन्होंने एक और ड्रामा “होनहार बिरवा के चिकने चिकने पात” लिखा। ये दोनों नाटक प्रकाशित नहीं हुए। उनके साहित्यिक जीवन की औपचारिक शुरुआत पाँच छ: बरस बाद एक संक्षिप्त उपन्यास “इसरार-ए-मुआबिद” से हुई जो 1903 और 1904 के दौरान बनारस के साप्ताहिक “आवाज़ा-ए-हक़” में क़िस्तवार प्रकाशित हुआ। लेकिन प्रेमचंद के एक दोस्त मुंशी बेताब बरेलवी का दावा है कि उनका पहला उपन्यास “प्रताप चन्द्र” था जो 1901 में लिखा गया लेकिन प्रकाशित नहीं होसका और बाद में “जलवा-ए-ईसार” के रूप में सामने आया (संदर्भ, ज़माना, प्रेमचंद नंबर पृ.54) उनका तीसरा उपन्यास “कृष्णा” 1904 के आख़िर में प्रकाशित हुआ और अब अनुपलब्ध है। चौथा उपन्यास “हम ख़ुरमा-ओ-हम सवाब” (हिन्दी में प्रेमा) था जो 1906 में छपा। 1912 में “जलवा-ए-ईसार” (हिन्दी में वरदान) प्रकाशित हुआ। 1916 में उन्होंने अपना वृहत उपन्यास “बाज़ार-ए-हुस्न” मुकम्मल किया जिसे कोई प्रकाशक नहीं मिल सका और हिन्दी में “सेवा सदन” के नाम से प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हुआ। उर्दू में यह उपन्यास 1922 में प्रकाशित हो सका। इसके बाद जो उपन्यास लिखे गए उनके साथ भी यही स्थिति रही। “गोश-ए-आफ़ियत” 1922 में मुकम्मल हुआ और 1928 में छप सका। जबकि उसका हिन्दी संस्करण “प्रेम आश्रम” 1922 में ही छप गया था। हिन्दी में “निर्मला” 1923 में और उर्दू में 1929 में प्रकाशित हुआ। “चौगान-ए-हस्ती” 1924 में लिखा गया और “रंग-भूमि” के नाम से प्रकाशित हो कर हिन्दुस्तानी अकेडमी की तरफ़ से वर्ष की सर्वश्रेष्ठ रचना की घोषणा की जा चुकी थी लेकिन उर्दू में यह उपन्यास 1927 में प्रकाशित हो सका। इस तरह प्रेमचंद धीरे धीरे हिन्दी के होते गए क्योंकि हिन्दी प्रकाशकों से उन्हें बेहतर मुआवज़ा मिल जाता था। यही हाल “ग़बन” और “मैदान-ए-अमल” (हिन्दी में कर्मभूमि) का हुआ। “गऊ दान” प्रेमचंद का आख़िरी उपन्यास है जो 1936 में प्रकाशित हुआ। आख़िरी दिनों में प्रेमचंद ने “मंगल सूत्र” लिखना शुरू किया था जो अपूर्ण रहा। उसे हिन्दी में प्रकाशित कर दिया गया है।
उपन्यास के अलावा प्रेमचंद के कहानियों के ग्यारह संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी अफ़साना निगारी का आग़ाज़ 1907 से हुआ जब उन्होंने “दुनिया का सबसे अनमोल रतन” लिखा। 1936 तक उन्होंने सैकड़ों कहानियां लिखीं लेकिन उर्दू में उनकी तादाद लगभग 200 है क्योंकि बहुत सी हिन्दी कहानियां उर्दू में रूपांतरित नहीं हो सकीं। अफ़सानों का उनका पहला संग्रह “सोज़-ए-वतन” नवाब राय के नाम से छपा था। उस पर उनसे सरकारी पूछताछ हुई और किताब की सभी प्रतियों को जला दिया गया। उसके बाद उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया। उनके दूसरे संग्रहों में प्रेम पचीसी, प्रेम बत्तीसी, प्रेम चालीसी, फ़िर्दोस-ए-ख़्याल, ख़ाक-ए-परवाना, ख़्वाब-ओ-ख़्याल, आख़िरी तोहफ़ा, ज़ाद-ए-राह, दूध की क़ीमत, और वारदात शामिल हैं।
उर्दू का कहानी साहित्य जितना प्रेमचंद से प्रभावित हुआ उतना किसी दूसरे लेखक से नहीं हुआ। उनकी अनगिनत रचनाओं का दूसरी भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है। प्रेमचंद की एक बड़ी ख़ूबी उनकी सादा और सरल भाषा और शफ़्फ़ाफ़-ओ-बेतकल्लुफ़ लेखन शैली है, उन्होंने सामान्य बोल-चाल की भाषा को रचनात्मक भाषा में बदल दिया और काल्पनिक साहित्य को ऐसी जीवंत और कोमल शैली दी जो बनावट और औपचारिकता से मुक्त है। उन्होंने ऐसे वक़्त लिखना शुरू किया था जब इश्क़ व मुहब्बत की फ़र्ज़ी दास्तानों और तिलिस्मी क़िस्सा कहानियों का दौर दौरा था। प्रेमचंद ने आकर उस तूफ़ानी दरिया के धारे का रुख मोड़ दिया और कहानी को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया। प्रेमचंद ने अपने अफ़सानों और नाविलों में राष्ट्रीय जीवन के मूल तथ्यों को प्रस्तुत कर के उर्दू साहित्य को नए पात्रों, नए माहौल और नए स्वाद से परिचय कराया। वो अपने पाठकों को शहर की रोशन और रंगीन दुनिया से निकाल कर गांव की अँधेरी और बदहाल दुनिया में ले गए। ये उर्दू के कथा साहित्य में एक नई दुनिया की दरयाफ़्त थी। उस दुनिया के विशालता और गहराई को समझे बिना प्रेमचंद के अध्ययन का हक़ अदा नहीं हो सकता क्योंकि प्रेमचंद की कला के सौंदर्य और उसके मूल सच्चाईयां उसी व्यापक परिदृश्य में परवरिश पा कर इस योग्य हुईं कि उर्दू और हिन्दी कथा साहित्य की स्थायी परंपरा का दर्जा हासिल कर सकें।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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