Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : शैख़ सादी शीराज़ी

प्रकाशक : मतबा रहमानी, चेन्नई

मूल : चेन्नई

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शिक्षाप्रद, अनुवाद

पृष्ठ : 212

अनुवादक : मीर शेर अली अफ़्सोस

सहयोगी : सुमन मिश्रा

gulistan-e-hindi
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक: परिचय

शेख़ मुस्लेलहुद्दीन (उपनाम सा’दी) का जन्म सन् 1210 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अ’ब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफ़ुद्दीन था। 'शेख़इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि उनकी वृत्ति धार्मिक शिक्षा-दीक्षा देने की थी। लेकिन इनका ख़ानदान सैयद था। जिस प्रकार अन्य महान् पुरुषों के जन्म के सम्बन्ध में अनेक अलौकिक घटनाएं प्रसिद्ध  हैं उसी प्रकार सा’दी के जन्म के विषय में भी लोगों ने कल्पनायें की हैं। लेकिन उनके उल्लेख की ज़रूरत नहीं। सा’दी का जीवन हिंदी तथा संस्कृत के अनेक कवियों के जीवन की भांति ही अंधकारमय है। उनकी जीवनी के सम्बन्ध में हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है यद्यपि उनका जीवन वृत्तांत फ़ारसी ग्रन्थों में बहुत विस्तार के साथ है तथापि उसमें अनुमान की मात्रा इतनी अधिक है कि गोसेली से भीजिसने सा’दी का चरित्र अंग्रेज़ी में लिखा हैदूध और पानी का निर्णय न कर सका। कवियों का जीवन-चरित्र हम प्राय: इसलिए पढ़ते हैं कि हम कवि के मनोभावों से परिचित हो जायँ और उसकी रचनाओं को भलीभांति समझने में सहायता मिले। नहीं तो हमको उन जीवन-चरित्रों से और कोई विशेष शिक्षा नहीं मिलती। किन्तु सा’दी का चरित्र आदि से अन्त तक शिक्षापूर्ण है। उससे हमको धौर्यसाहस और कठिनाइयों में सत्पथ पर टिके रहने की शिक्षा मिलती है।

शीराज़ इस समय फ़ारस का प्रसिध्द स्थान है और उस ज़माने में तो वह सारे एशिया की विद्यागुण और कौशल की खान था। मिश्रइ’राक़हब्शचीनख़ुरासान आदि देश देशान्तरों के गुणी लोग वहाँ आश्रय पाते थे। ज्ञानविज्ञानदर्शनधर्मशास्त्र आदि के बड़े-बड़े विद्यालय खुले हुए थे। एक समुन्नत राज्य में साधारण समाज की जैसी अच्छी दशा होनी चाहिए वैसी ही वहाँ थी। इसी से सा’दी को बाल्यावस्था ही से विद्वानों के सत्संग का सुअवसर प्राप्त हुआ। सा’दी के पिता अ’ब्दुल्लाह का 'सा’द बिन ज़ंग़ी' (उस समय ईरान का बादशाह) के दरबार में बड़ा मान था। नगर में भी यह परिवार अपनी विद्या और धार्मिक जीवन के कारण बड़ी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। सा’दी बचपन से ही अपने पिता के साथ महात्माओं और गुणियों से मिलने जाया करते थे। इसका प्रभाव उनके अनुकरणशील स्वभाव पर अवश्य ही पड़ा होगा। जब सा’दी पहली बार सा’द बिन ज़ंगी के दरबार में गये तो बादशाह ने उन्हें विशेष स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखकर पूछा, ''मियां लड़केतुम्हारी उ’म्र क्या है?'' सा’दी ने अत्यंत नम्रता से उत्‍तर दिया, ''हुज़ूर के गौरवशील राज्यकाल से पूरे 12 साल छोटा हूं।'' अल्पावस्था में इस चतुराई और बुध्दि की प्रखरता पर बादशाह मुग्ध हो गया। अ’ब्दुल्लाह से कहाबालक बड़ा होनहार हैइसके पालन-पोषण तथा शिक्षा का उत्‍तम प्रबन्ध करना। सा’दी बड़े हाज़िर जवाब थेमौक़े की बात उन्हें ख़ूब सूझती थी। यह उसका पहला उदाहरण है।

शेख़ सा’दी के पिता धार्मिक वृत्ति के मनुष्य थे। अत: उन्होने अपने पुत्र की शिक्षा में भी धर्म का समावेश अवश्य किया होगा। इस धार्मिक शिक्षा का प्रभाव सा’दी पर जीवन पर्यन्त रहा। उनके मन का झुकाव भी इसी ओर था। वह बचपन ही से रोनमाज़ आदि के पाबन्द रहे। सा’दी के लिखने से प्रकट होता है कि उनके पिता का देहान्त उनके बाल्यकाल ही में हो गया था। संभव था कि ऐसी दुरवस्था में अनेक युवकों की भांति सा’दी भी दुर्व्यसनों में पड़ जाते लेकिन उनके पिता की धार्मिक शिक्षा ने उनकी रक्षा की।

यद्यपि शीराज़ में उस समय विद्वानों की कमी न थी और बड़े-बड़े विद्यालय स्थापित थेकिन्तु वहाँ के बादशाह सा’द बिन ज़ंग़ी को लड़ाई करने की ऐसी धुन थी कि वह बहुधा अपनी सेना लेकर इ’राक़ पर आक्रमण करने चला जाया करता था और राजकाज की तरफ़ से बेपरवा हो जाता था। उसके पीछे देश में घोर उपद्रव मचते रहते थे और बलवान शत्रु देश में मारकाट मचा देते थे। ऐसी कई दुर्घटनायें देखकर सा’दी का जी शीराज़ से उचट गया। ऐसी उपद्रव की दशा में पढ़ाई क्या होतीइसलिए सा’दी ने युवावस्था में ही शीराज़ से बग़दाद को प्रस्थान किया।

बग़दाद उस समय तुर्क साम्राज्य की राजधानी था। मुसलमानों ने बसरा से यूनान तक विजय प्राप्त कर ली थी और सम्पूर्ण एशिया ही में नहींयूरोप में भी उनका-सा वैभवशाली और कोई राज्य नहीं था। राज्य विक्रमादित्य के समय में उज्जैन की और मौर्यवंश राज्य काल में पाटलिपुत्र की जो उन्नति थी वही इस समय बग़दाद की थी। बग़दाद के बादशाह ख़लीफ़ा कहलाते थे। रौनक़ और आबादी में यह शहर शीराज़ से कहीं चढा बढा था। यहाँ के कई ख़लीफ़ा बड़े विद्याप्रेमी थे। उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किये थे। दूर-दूर से विद्वान लोग पठन-पाठन के निमित्त आया करते थे। यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि बग़दाद का सा उन्नत नगर उस समय संसार में नहीं था। बड़े-बड़े आ’लिमफ़ाज़िलमौलवीमुल्लाविज्ञानवेत्‍त और दार्शनिकों ने जिनकी रचनायें आज भी गौरव की दृष्टि से देखी जाती हैं बग़दाद ही के विद्यालय में शिक्षा पायी। विशेषत: 'मद्रसए निज़मियावत्‍तमान आक्सफ़ोर्ड या बर्लिन की यूनिवर्सिटियों से किसी तरह कम न था। सात-आठसहस्र छात्र उनमें शिक्षा पाते थे। उसके अध्‍यापकों और अधिष्ठाताओं में ऐसे-ऐसे लोग हो गये हैं जिनके नाम पर मुसलमानों को आज भी गर्व है। इस मद्रसे की बुनियाद एक ऐसे विद्या प्रेमी ने डाली थी जिसके शिक्षा प्रेम के सामने शायद कारनेगी भी लज्जित हो जायं। उसका नाम निज़ामुलमुल्क तूसी था। जलालुद्दीन सलजूक़ी के समय में वह राज्य का प्रधानमंत्री था। उसने बग़दाद के अतिरिक्त बसरानेशापुरइसफ़ाहन आदि नगरों में भी विद्यालय स्थापित किये थे। राज्यकोष के अतिरिक्त अपने निज के असंख्य रुपये शिक्षोन्नति में व्यय किया करता था। 'निज़ामियामद्रसे की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। सा’दी ने इसी मद्रसे में प्रवेश किया। यह निश्चित नहीं है कि वह कितने दिनों बग़दाद में रहे। लेकिन उनके लेखों से मालूम होता है कि वहाँ फिक़ह (धर्मशास्त्र)हदीस आदि के अतिरिक्त उन्होंने विज्ञानगणितखगोलभूगोलइतिहास आदि विषयों का अच्छी तरह अध्‍ययन किया और 'अ’ल्लामाकी सनद प्राप्त की। इतने गहन विषयों के पण्डित होने के लिए सा’दी से दस वर्ष से कम न लगे होंगे।

काल की गति विचित्र है। जिस समय सा’दी ने बग़दाद से प्रस्थान किया उस समय उस नगर पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही की कृपा थीलेकिन लगभग बीस वर्ष बाद उन्होंने उसी समृध्दशाली नगर को हलाकू ख़ाँ के हाथों नष्ट-भ्रष्ट होते देखा और अन्तिम ख़लीफ़ा जिसके दरबार में बड़े-बड़े राजा रईसों की भी मुश्किल से पहुंच होती थीबड़े अपमान और क्रूरता से मारा गया।

सा’दी के हृदय पर इस घोर विप्लव का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने लेखों में बारम्बार नीतिरक्षाप्रजापालन तथा न्यायपरता का उपदेश दिया है। उनका विचार था और उसके यथार्थ होने में कोई सन्देह नहीं कि न्यायप्रियप्रजा वत्सल राजा को कोई शत्रु पराजित नहीं कर सकता। जब इन गुणों में कोई अंश कम हो जाता है तभी उसे बुरे दिन देखने पड़ते हैं। सादी ने दीनों पर दयादुखियों से सहानुभूतिदेशभाइयों से प्रेम आदि गुणों का बड़ा महत्व दर्शाया है। कोई आश्‍चर्य नहीं कि उनके उपदेशों में जो सजीवता दिख पड़ती है वह इन्हीं हृदय विचारक दृश्यों से उत्पन्न हुई हो।

मुसलमान यात्रियों में इब्‍न-ए-बतुता (प्रख्‍यात यात्री एवं महत्‍वपूर्णग्रं‍थ सफ़रनामा’ का लेखक) सबसे श्रेष्‍ठ जाता है। सा’दी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उनकी यात्रायें 'बतूतासे कुछ ही कम थीं। उस समय के सभ्य संसार में ऐसा कोई स्थान न था जहाँ सा’दी ने पदार्पण न किया हो। वह सदैव पैदल सफ़र किया करते थे। इससे विदित हो सकता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा अच्छा रहा होगा और वह कितने बड़े परिश्रमी थे। साधारण वस्त्रों के सिवा वह अपने साथ और कोई सामान न रखते थे। हाँरक्षा के लिए एक कुल्हाड़ा ले लिया करते थे। आजकल के यात्रियों की भांति पाकेट में नोटबुक दाबकर गाइड (पथदर्शक) के साथ प्रसिध्द स्थानों का देखना और घर पहुंच यात्रा का वृत्तांत छपवाकर अपनी विद्वता दर्शाना सा’दी का उद्देश्य न था। वह जहाँ जाते थे महीनों रहते थे। जन- समुदाय के रीति-रिवाजरहन-सहन और आचार-व्यवहार को देखते थेविद्वानों का सत्संग करते थे और जो विचित्र बातें देखते थे उन्हें अपने स्मरण-कोष में संग्रह करते जाते थे। उनकी गुलिस्तां और बोस्तां दोनों ही पुस्तकें इन्हीं अनुभवों के फल हैं। लेकिन उन्होंने विचित्र जीव जन्तुओंकोरे प्राकृतिक दृश्यों अथवा उद्भुत वस्त्राभूषणों के गपोड़ों से अपनी किताबें नहीं भरीं। उनकी दृष्टि सदैव ऐसी बातों पर रहा करती थी जिनका कोई सदाचार सम्बन्धी परिणाम हो सकता होजिनसे मनोवेग और वृत्तियों का ज्ञान होजिनसे मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता का पता चलता होसदाचरणपारस्परिक व्यवहार और नीति पालन उनके उपदेशों के विषय थे। वह ऐसी ही घटनाओं पर विचार करते थेजिनसे इन उच्च उद्देश्यों की पूर्ति हो। यह आवश्यक नहीं था कि घटनाएं अद्भुत ही हों। नहींवह साधारण बातों से भी ऐसे सिध्दान्त निकाल लेते थे जो साधारण बुध्दि की पहुंच से बाहर होते थे। निम्नलिखित दो-चार उदाहरणों से उनकी यह सूक्ष्मदर्शिता स्पष्ट हो जाएगी।

मुझे 'केशनामी द्वीप में एक सौदागर से मिलने का संयोग हुआ। उसके पास सामान से लदे हुए एक सौ पचास ऊंटऔर चालीस ख़िदमतगार थे। उसने मुझे अपना अतिथि बनाया। सारी रात अपनी राम कहानी सुनाता रहा कि मेरा इतना माल तुर्किस्तान में पड़ा हैइतना हिन्दुस्तान मेंइतनी भूमि अमुक स्थान पर हैइतने मकान अमुक स्थान परकभी कहतामुझे मिश्र जाने का शौक है लेकिन वहाँ की जलवायु हानिकारक है। जनाब शेख़ साहिबमेरा विचार एक और यात्रा करने का हैअगर वह पूरी हो जाय तो फिर एकान्तवास करने लगूं। मैंने पूछा वह कौन-सी यात्रा हैतो आप बोलेपारस का गन्धाक चीन देश में ले जाना चाहता हूंक्योंकि सुना हैवहाँ इसके अच्छे दाम खड़े होते हैं। चीन के प्याले रूम ले जाना चाहता हूंवहाँ से रूम का। 'देबा' (एक प्रकार का बहुमूल्य रेशमी कपड़ा) लेकर हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान का फ़ौलाद  'हलबमें और हलब का आईना यमन में और यमन की चादरें लेकर पारस लौट जाऊंगा। फिर चुपके से एक दुकान कर लूंगा और सफ़र छोड़ दूंगाआगे ईश्‍वर मालिक है। उसकी यह तृष्णा देखकर मैं उकता गया और बोला''आपने सुना होगा कि 'ग़ोरका एक बहुत बड़ा सौदागर जब घोड़े से गिरकर मरने लगा तो उसने एक ठंडी सांस लेकर कहातृष्णावान मनुष्य की इन दो आंखों को सन्तोष ही भर सकता है या क़ब्र की मिट्टी।

कोई थका-मांदा भूख का मारा बटोही एक धनवान के घर जा निकला। वहाँ उस समय आमोद-प्रमोद की बातें हो रही थीं। किन्तु उस बेचारे को उनमें ज़रा  भी मज़ा न आता था। अन्त में गृहस्वामी ने कहाजनाबकुछ आप भी कहिये। मुसाफ़िर ने जवाब दियाक्या कहूं मेरा भूख से बुरा हाल है। स्वामी ने लौंडी से कहाखाना ला। दस्तरख़्वा न बिछाकर खाना रक्खा गया। लेकिन अभी सभी चीज़ें तैयार न थीं। स्वामी ने कहाकृपा कर ज़रा ठहर जाइए अभी कोफ़ता  तैयार नहीं है। इस पर मुसाफ़िर ने एक  शे’र पढ़ा-

जिसका भावार्थ  है - मुझे कोफ़ते की ज़रूरत नहीं है। भूखे आदमी को  ख़ाली रोटी ही कोफ़ता है।

एक बार मैं मित्रों और बन्धुओं से उकताकर फ़िलस्तीन के जंगल में रहने लगा। उस समय मुसलमानों और ई’साइयों में लड़ाई हो रही थी। एक दिन ई’साइयों ने मुझे क़ैद कर लिया और खाई खोदने के काम पर लगा दिया। कुछ दिन बा’द वहाँ हलब देश का एक धनाड्य मनुष्य आयावह मुझे पहचानता था। उसे मुझ पर दया आयी। वह दस दीनार देकर मुझे क़ैद  से छुड़ाकर अपने घर ले गया और कुछ दिन बा’द अपनी लड़की से मेरा निकाह करा दिया। वह स्त्री कर्कशा थी। आदर-सत्कार तो दूरएक दिन क्रुध्द होकर बोलीक्यों साहिबतुम वही हो न जिसे मेरे पिता ने दस दीनार पर ख़रीदा था। मैंने कहाजी हाँमैं वहीं लाभकारी वस्तु हूं जिसे आपके पिता ने दस दीनार पर ख़रीद कर आपके हाथ सौ दीनार पर बेच दिया। यह वही मसल हुई कि एक धर्मात्मा पुरुष किसी बकरी को भेड़िये के पंजे से छुड़ा लाया। लेकिन रात को उस बकरी को उसने ख़ुद ही मार डाला।

मुझे एक बार कई फ़क़ीर साथ सफ़र करते हुए मिले। मैं अकेला था। उनसे कहा कि मुझे भी साथ लेते चलिये। उन्होंने स्वीकार न किया। मैंने कहायह रुखाई साधुओं को शोभा नहीं देती। तब उन्होंने जवाब दियानाराज़ होने की बात नहींकुछ दिन हुए एक मुसाफ़िर को इसी तरह साथ ले लिया थाएक दिन एक क़िले’ के नीचे हम लोग ठहरे। उस मुसाफ़िर ने आधी रात को हमारा लोटा उठाया कि लघुशंका करने जाता हूं। लेकिन ख़ुद ग़ायब हो गया। यहाँ तक भी कुशल थी। लेकिन उसने क़िले’ में जाकर कुछ जवाहरात चुराये और खिसक गया। प्रात:काल किले वालों ने हमें पकड़ा। बहुत खोज के पीछे उस दुष्ट का पता मिलातब हम लोग कैद से मुक्त हुए। इसलिए हम लोगों ने प्रण कर लिया है कि अनजान आदमी को अपने साथ न लेंगे।

दो ख़ुरासानी फ़क़ीर साथ सफ़र  कर रहे थे। उनमें एक बुङ्ढा दो दिन के बा’द खाना खाता था। दूसरा जवान दिन में तीन बार भोजन पर हाथ फेरता था। संयोग  से दोनों किसी शहर में जासूसी के भ्रम में पकड़े गये। उन्हें एक कोठरी में बंद करके दीवार चुनवा दी गयी। दो सप्ताह बाद मा’लूम हुआ कि दोनों निरपराध हैं। इसलिये बादशाह ने आज्ञा दी कि उन्हें छोड़ दिया जाय। कोठरी की दीवार तोड़ी गयीजवान मरा मिला और बूढ़ा जीवित। इस पर लोग बड़ा कौतूहल करने लगे। इतने में एक बुध्दिमान पुरुष उधर से आ निकला। उसने कहाइसमें आश्‍चर्य क्या हैइसके विपरीत होता तो आश्‍चर्य की बात थी।

एक साल हाजियों के काफ़िले में फूट पड़ गयी। मैं भी साथ ही यात्रा कर रहा था। हमने खूब लड़ाई की। एक ऊंटवान ने हमारी यह दशा देखकर अपने साथी से कहाखेद की बात है कि शतरंज के प्यादे तो जब मैदान पार कर लेते हैंतो वजी़र बन जाते हैंमगर हाजी प्यादे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैंपहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहोतुम क्या हज करोगे जो यों एक-दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैंजो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।

रूम में एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुनकर हम उनसे मिलने गये। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत कियाकिन्तु खाना न खिलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद नहीं आयी। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरंभ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहामहात्मनअतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक ज़रूरत भोजन की है। भला ऐसी उपासना से कभी उपकार हो सकता है जब कई आदमी घर में भूख के मारे करवटें बदलते रहें।

एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहासादी डरता क्यों हैयह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्‍वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।

सा’दी ने भारत की यात्रा भी की थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह चार बार हिन्दुस्तान आयेपरन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं। हाँउनका एक बार यहाँ आना निर्भ्रान्त है। वह गुजरात तक आये और शायद वहीं से लौट गये। सोमनाथ के विषय में उन्होंने एक घटना लिखी है जो शायद सा’दी के यात्रा वृत्‍तांत में सबसे अधिक कौतूहल जनक है।

तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सा’दी को जन्‍मभूमि का स्‍मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थेवहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सा’दी ने देशत्याग किया था। लेकिन अब शीराज़ की वह दशा न थी। सा’द बिन ज़ंग़ी की मृत्यु हो चुकी थी और उसका बेटा अताबक अबूबक राजगद्दी पर था। यह न्याय-प्रियराज्य-कार्य-कुशल राजा था। उसके सुशासन ने देश की बिगड़ी हुई अवस्था को बहुत कुछ सुधार दिया था। सा’दी संसार को देख चुके थे। अवस्था वह आ पहुंची थी जब मनुष्य को एकांतवास की इच्छा होने लगती हैसांसारिक झगड़ों से मन उदासीन हो जाता है। अतएव अनुमान कहता है कि पैंसठ या सत्‍तर वर्ष की अवस्था में सा’दी शीराज़ आये। यहाँ समाज और राजा दोनों ने ही उनका उचित आदर किया। लेकिन सा’दी अधिकतर एकांतवास ही में रहते थे। राज-दरबार में बहुत कम आते-जाते। समाज से भी किनारे रहते। इसका कदाचित्‍त एक कारण यह भी था कि अताबक अबूबक को मुल्लाओं और विद्वानों से कुछ चिढ़ थी। वह उन्हें पाखंडी और उपद्रवी समझता था। कितने ही सर्वमान्य विद्वानों को उसने देश से निकाल दिया था। इसके विपरीत वह मूर्ख फ़क़ीरों की बहुत सेवा और सत्कार करताजितना ही अपढ़ फ़क़ीर होता उतना ही उसका मान अधिक करता था। सा’दी विद्वान भी थेमुल्ला भी थेयदि प्रजा से मिलते-जुलते तो उनका गौरव अवश्य बढ़ता और बादशाह को उनसे खटका हो जाता। इसके सिवा यदि वह राज-दरबार के उपासक बन जाते तो विद्वान लोग उन पर कटाक्ष करते। इसलिए सा’दी ने दोनों से मुंह मोड़ने में ही अपना कल्याण समझा और तटस्थ रहकर दोनों के कृपापात्र बने रहे। उन्होंने गुलिस्तां और बोस्तां की रचना शीराज़ ही में कीदोनों ग्रंथों में सा’दी ने मूर्ख साधुफ़क़ीरों की ख़ूब ख़बर ली है और राजाबादशाहों को भी न्यायधर्म और दया का उपदेश किया है। अंध-विश्‍वास पर सैकड़ों जगह धार्मिक चोटें की हैं। इनका तात्पर्य यही था कि अताबक अबूबक सचेत हो जाय और विद्वानों से द्रोह करना छोड़ दे। सा’दी को बादशाह की अपेक्षा युवराज से अधिक स्नेह था। इसका नाम फ़ख़रूददीन था। वह बग़दाद के ख़लीफ़ा के पास कुछ तुहफ़े भेंट लेकर मिलने गया था। लौटती बार मार्ग ही में उसे अपने पिता के मरने का समाचार मिला। युवराज बड़ा पितृभक्त था। यह ख़बर सुनते ही शोक से बीमार पड़ गया और रास्ते ही में परलोक सिधार गया। इन दोनों मृत्युओं से सा’दी को इतना शोक हुआ कि वह शीराज़ से फिर निकल खड़े हुए और बहुत दिनों तक देश-भ्रमण करते रहे। मा’लूम होता है कि कुछ काल के उपरांत वह फिर शीराज़ आ गये थेक्योंकि उनका देहांत यहीं हुआ। उनकी क़ब्र अभी तक मौजूद हैलोग उसकी पूजादर्शन (जि़यारत) करने जाया करते हैं। लेकिन उनकी संतानों का कुछ हाल नहीं मिलता है। संभवत: सा’दी की मृत्यु 1288 ई. के लगभग हुई। उस समय उनकी अवस्था एक सौ सोलह वर्ष की थी। शायद ही किसी साहित्य सेवी ने इतनी बड़ी उ’म्र पायी हो।

सा’दी के प्रेमियों में अ’लाउद्दीन नाम का एक बड़ा उदार व्यक्ति था। जिन दिनों युवराज फ़ख़रूद्दीन की मृत्यु के पीछे सा’दी बग़दाद आए तो अ’लाउद्दीन वहाँ के सुल्तान अबाक़ ख़ांका वज़ीर था। एक दिन मार्ग में सा’दी से उसकी भेंट हो गयी। उसने बड़ा आदर-सत्कार किया। उस समय से अन्त तक वह बड़ी भक्ति से सा’दी की सेवा करता रहा। उसके दिये हुए धन से सा’दी अपने ब्याह के लिए थोड़ा-सा लेकर शेष दीनों को दान कर दिया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि अ’लाउद्दीन ने अपने एक ग़ुलाम के हाथ सा’दी के पास पांच सौ दीनार भेजे। ग़ुलाम जानता था कि शेख़ साहब कभी किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहींअतएव उसने धूर्तता से एक सौ पचास दीनार निकाल लिये। सा’दी ने धन्यवाद में एक कविता लिखकर भेजीउसमें तीन सौ पचास दीनारों का ही जिश्क्र था। अ’लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआग़ुलाम को दंड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सा’दी को दस हज़ार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से दो दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थेरुपये कौन देताइसके बा’द अ’लाउद्दीन ने अपने एक परम विश्‍वस्त मनुष्य के हाथ सा’दी के पास पचास हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सा’दी ने एक धर्मशाला बनवा दी। मरते समय तक शेख़ शा’दी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है।

 

सा’दी उन कवियों में हैं, जिनके चरित्र का प्रतिबिंब उनके काव्‍य रूपी दर्पण में स्‍पष्‍ट दिखाई देता हैं।

उनके उपदेश हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उपदेशकों की भांति वह दूसरों को परमार्थ सिखाकर आप स्वार्थ पर जान न देते थे। दूसरों को न्यायधर्म और कर्तव्‍य पालन की शिक्षा देकर आप विलासिता में लिप्त न रहते थे। उनकी वृत्ति स्वभावत: सात्विक थी। उनका मन कभी वासनाओं से विचलित नहीं हुआ। अन्य कवियों की भांति उन्होंने किसी राज-दरबार का आश्रय नहीं लिया। लोभ को कभी अपने पास नहीं आने दिया। यश और ऐश्‍वर्य दोनों ही सत्कर्म के फल हैं। यश दैविक हैऐश्‍वर्य मानुषिक। सादी ने दैविक फल पर संतोष कियामानुषिक के लिए हाथ नहीं फैलाया। धन की देवी जो बलिदान चाहती है वह देने की सामर्थ्य सादी में नहीं थी। वह अपनी आत्मा का अल्पांश भी उसे भेंट न कर सकते थे। यही उनकी निर्भीकता का अवलंब है। राजाओं को उपदेश देना सांप के बिल में उंगली डालने के समान है। यहाँ एक पांव अगर फूलों पर रहता है तो दूसरा कांटों में। विशेषकर सा’दी के समय में तो राजनीति का उपदेश और भी जोखिम का काम था। ईरान और बग़दाद दोनों ही देश में अरबों का’ पतन हो रहा थातातारी बादशाह प्रजा को पैरों तले कुचले डालते थे। लेकिन सा’दी ने उस कठिन समय में भी अपनी टेक न छोड़ी। जब वह शीराज़ से दूसरी बार बग़दाद गये तो वहाँ हलाकू ख़ां मुग़ल का बेटा अबाक़ ख़ां बादशाह था। हलाकू ख़ां के घोर अत्याचार चंगीज़ और तैमूर की पैशाचिक क्रूरताओं को भी लज्जित करते थे। अबाक़ खां यद्यपि ऐसा अत्याचारी न था तथापि उसके भय से प्रजा थर-थर कांपती थी। उसके दो प्रधान कर्मचारी सा’दी के भक्त थे। एक दिन सा’दी बाज़ार में घूम रहे थे कि बादशाह की सवारी धूमधाम से उनके सामने से निकली। उनके दोनों कर्मचारी उनके साथ थे। उन्होंने सा’दी को देखा तो घोड़ों से उतर पड़े और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह को अपने वज़ीरों की यह श्रध्दा देखकर बड़ा कौतूहल हुआ। उसने पूछा यह कौन आदमी है। वजी़रों ने सा’दी का नाम और गुण बताया। बादशाह के हृदय में भी सादी की परीक्षा करने का विचार पैदा हुआ। बोलाकुछ उपदेश मुझे भी कीजिये। संभवत: उसने सा’दी से अपनी प्रशंसा करानी चाही होगी। लेकिन सा’दी ने निर्भयता से यह उद्देश्यपूर्ण शे’र पढ़े-

शहे कि पासे रई’यत निगाह मी-दारद,

हलाल बाद ख़िराज कि मुज्‍दे  चौपानीस्त।

बगर न राइ’ये ख़ल्क़स्‍त   ज़हरमारश बाद;

कि हरचे मी ख़ुरद अज़ जिज़ा-ए- मुसलमानीस्त।

भावार्थ - बादशाह जो प्रजा-पालन का ध्‍यान रखता है। एक चरवाहे के समान है। यह प्रजा से जो कर लेता है वह उसकी मजदूरी है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो हराम का धन खाता है!

अबाक़ खां यह उपदेश सुनकर चकित हो गया। सा’दी की निर्भयता ने उसे भी सा’दी का भक्त बना दिया। उसने सा’दी को बड़े सम्मान के साथ विदा’ किया।

सा’दी में आत्मगौरव की मात्रा भी कम न थी। वह आन पर जान देने वाले मनुष्यों में थे। नीचता से उन्हें घृणा थी। एक बार इस्कन दरिया में बड़ा अकाल पड़ा। लोग इधर- उधर भागने लगे। वहाँ एक बडा संपत्तिशाली ख़ोजा था। वह ग़रीबों को खाना खिलाता और अम्यागतों की अच्छी सेवा-सम्मान करता। सा’दी भी वहीं थे। लोगों ने कहाआप भी उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइए। इस पर सा’दी ने उत्‍तर दिया शेर कभी कुत्तों का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखों मर भले ही जाय।

सा’दी को धर्मध्‍वजीपन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फंदे में पड़ते देखकर जल जाते थे। उन्होंने काशीमथुरावृन्दावन या प्रयाग के पाखंडी पंडों की पोपलीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी और भी तीव्र हो जाती। छत्रधारी हाथी पर बैठने वाले महंतपालकियों में चंवर डुलाने वाले पुजारीघंटों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पंडित और राजारईसों के दरबार में खिलौना बनने वाले महात्मा उनकी समालोचना को कितनी रोचक और हृदयग्राही बना देतेएक बार लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेलगाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेंट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेंटों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृध्द यात्री खड़े-खड़े थककर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग शक्ति ने प्रचंड रूप धारण कियाबुङ्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आयास्टेशन-मास्टर के पास जाकर फ़रियाद की कि बाबायह बूढ़ा यात्री साधुओं को बैठने नहीं देता। मास्टर साहब ने साधुओं की डिगरी कर दी। भस्म और जटा की यह चमत्कारिक शक्ति देखकर सारे यात्री रो’ब में आ गये और फिर किसी को उनकी उस गाड़ी को अपवित्र करने का साहस नहीं हुआ। इसी तरह रीवां में लेखक की मुलाक़ात एक संन्यासी से हुई। वह स्वयं अपने गेरुवें बाने पर लज्जित थे। लेखक ने कहाआप कोई और उद्यम क्यों नहीं करतेबोलेअब उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं और करू भी तो क्या। मेहनत-मजूरी होती नहींविद्या कुछ पढ़ी नहींयह जीवन तो इसी भांति कटेगा। हाँईश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि दूसरे जन्म में मुझे सद्बुध्दि दे और इस पाखंड में न फंसावे। सा’दी ने ऐसी हज़ारों घटनायें देखी होंगीऔर कोई आश्‍चर्य नहीं कि इन्हीं बातों से उनका दयालु हृदय भी पाखंडियों के प्रति ऐसा कठोर हो गया हो।

सा’दी मुसलमानी धर्मशास्त्र के पूर्ण पंडित थे। लेकिन दर्शन में उनकी गति बहुत कम थी। उनकी नीति शिक्षा स्वर्ग और नर्कतथा भय पर ही अवलंबित है। उपयोगवाद तथा परमार्थवाद की उनके यहाँ कोई चर्चा नहीं है। सच तो यह है कि सर्वसाधारण में नीति का उपदेश करने के लिए इनकी आवश्यकता ही क्या थी। वह सदाचार जिसकी नींव दर्शन के सिध्दांतों पर होती है धार्मिक सदाचार से कितने ही विषयों में विरोध रखता है और यदि उसका पूरा-पूरा पालन किया जाय तो संभव है समाज में घोर विप्लव मच जाय।

सा’दी ने संतोष पर बड़ा जोर दिया है। यह उनकी सदाचार शिक्षा का एकमात्र मूलाधार है। वह स्वयं बड़े संतोषी मनुष्य थे। एक बार उनके पैरों में जूते नहीं थेरास्ता चलने में कष्ट होता था। आर्थिक दशा भी ऐसी नहीं थी कि जूता मोल लेते। चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। इसी विकलता में कूफ़ा की मस्जिद में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिसके पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देखकर सा’दी की आंखें खुल गयीं। मस्जिद से चले आये और ईश्‍वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वंचित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दी में कुछ अनुपयुक्त-सी प्रतीत होती है। यह असंतोष का समय है। आजकल संतोष और उदासीनता में कोई अंतर नहीं समझा जाता। समाज की उन्नति असंतोष की ऋणि समझी जाती है। लेकिन सा’दी की संतोष शिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्‍वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम् कर्तव्‍य है।

यद्यपि सा’दी के भाषा लालित्य को हिंदी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। नि:संदेह वह समस्त साहित्य संसार के एक समुज्ज्वल रत्‍न हैंऔर मनुष्य समाज के एक सच्चे पथ प्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वालेऔर भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सा’दी का सुयश जीवित रहेगाऔर उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे।

सा’दी के रचित ग्रंथों की संख्‍या पंद्रह से अधिक हैं । इनमें चार ग्रंथ केवल ग़ज़लों के हैं । एक दो ग्रंथों मेंक़सीदे दर्ज हैं जो उन्होंने समय-समय पर बादशाहों या वज़ीरों की प्रशंसा में लिखे थे। इनमें एक अरबी भाषा में है। दो ग्रंथ भक्तिमार्ग पर हैं। उनकी समस्त रचना में मौलिकता और ओज विद्यमान हैकितने ही बड़े-बड़े कवियों ने उन्हें गज़लों का बादशाह माना है। लेकिन सा’दी की ख्याति और कीर्ति विशेषकर उनकी गुलिस्तां और बोस्तां पर निर्भर है। सा’दी ने सदाचार का उपदेश करने के लिए जन्म लिया था और उनके क़सीदों और ग़ज़लों में भी यही गुण प्रधान है। उन्होंने क़सीदों में भाटपना नहीं किया हैझूठी ता’रिफ़ों के पुल नहीं बांधे हैं। ग़ज़लों में भी हिज्र और विशालजुल्‍फ़ और कमर के दुखड़े नहीं रोये हैं। कहीं भी सदाचार को नहीं छोड़ा। गुलिस्तां और बोस्तां का तो कहना ही क्या हैइनकी तो रचना ही उपदेश के निमित्त हुई थी। इन दोनों ग्रंथों को फ़ारसी साहित्य का सूर्य और चंद्र कहें तो अत्युक्ति न होगी। उपदेश का विषय बहुत शुष्क समझा जाता हैऔर उपदेशक सदा से अपनी कड़वीऔर नीरस बातों के लिये बदनाम रहते आये हैं। नसीहत किसी को अच्छी नहीं लगती। इसीलिए विद्वानों ने इस कड़वी औषधि को भांति-भांति के मीठे शर्बतों के साथ पिलाने की चेष्टा की है। कोई चील-कौवे की कहानियाँ गढ़ता हैकोई कल्पित कथायें नमक-मिर्च लगाकर बखानता है। लेकिन सा’दी ने इस दुस्तर कार्य को ऐसी विलक्षण कुशलता और बुध्दिमत्‍त से पूरा किया है कि उनका उपदेश काव्य से भी अधिक सरस और सुबोध हो गया है। ऐसा चतुर उपदेशक कदाचित ही किसी दूसरे देश में उत्पन्न हुआ हो।

सा’दी का सर्वोत्तमगुण वह वाक्य निपुणता हैजो स्वाभाविक होती है और उद्योग से प्राप्त नहीं हो सकती। वह जिस बात को लेते हैं उसे ऐसे उत्कृष्ट और भावपूर्ण शब्दों में वर्णन करते हैंजो अन्य किसी के ध्‍यान में भी नहीं आ सकती। उनमें कटाक्ष करने की शक्ति के साथ-साथ ऐसी मार्मिकता होती है कि पढ़ने वाले मुग्ध हो जाते हैं। उदाहरण की भांति इस बात को कि पेट पापी हैइसके कारण मनुष्य को बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैंवह इस प्रकार वर्णन करते हैं-

अगर जौरे शिकम न बूदेहेच मुर्ग़ दर

दाम न उफ़तादेबल्कि सैयाद ख़ुद दाम न निहादे ।

भाव - यदि पेट की चिंता न होती तो कोई चिड़िया जाल में न फंसतीबल्कि कोई बहेलिया जाल ही न बिछाता।

इसी तरह इस बात को कि न्यायाधीश भी रिश्‍वत से वश में हो जाते हैंवह यों बयान करते हैं

हमा कसरा दन्दां बतुर्शी कुन्द गरदद,

मगर काज़ियां रा बशीरीनी।

भाव - अन्य मनुष्यों के दांत खटाई से गुट्ठल हो जाते हैं लेकिन न्यायकारियों के मिठाई से।

उनको यह लिखना था कि भीख मांगना जो एक निंद्य कर्म है उसका अपराध केवल फ़क़ीरों पर ही नहीं बल्कि अमीरों पर भी हैइसको वह इस तरह लिखते हैं-

 अगर शुमा रा इन्साफ़ बूदे व मारा क़नाअ’त,

 रस्मे सवाल अज़ जहान बरख़ास्ते।

भाव - यदि तुममें न्याय होता और हममें संतोषतो संसार में मांगने की प्रथा ही उठ जाती।

इनके प्रधान ग्रंथ गुलिस्तां और बोस्तां का दूसरा गुण उनकी सरलता है। यद्यपि इनमें एक वाक्य भी नीरस नहीं हैकिन्तु भाषा ऐसी मधुर और सरल है कि उस पर आश्‍चर्य होता है। साधारण लेखक जब सजीली भाषा लिखने की चेष्टा करता है तो उसमें कृत्रिमता आ जाती है लेकिन सादी ने सादगी और सजावट का ऐसा मिश्रण कर दिया है कि आज तक किसी अन्य लेखक को उस शैली के अनुकरण करने का साहस न हुआऔर जिन्होंने साहस कियाउन्हें मुंह की खानी पड़ी। जिस समय गुलिस्तां की रचना हुई उस समय फ़ारसी भाषा अपनी बाल्यावस्था में थी। पद्य का तो प्रचार हो गया था लेकिन गद्य का प्रचार केवल बातचीतहाट-बाज़ार में था। इसलिए सा’दी को अपना मार्ग आप बनाना था। वह फ़ारसी गद्य के जन्मदाता थे। यह उनकी अद्भुत प्रतिभा है कि आज छ: सौ वर्ष के उपरांत भी उनकी भाषा सर्वोत्‍तम समझी जाती है। उनके पीछे कितनी ही पुस्तकें गद्य में लिखी गयींलेकिन उनकी भाषा को पुरानी होने का कलंक लग गया। गुलिस्तां जिसकी रचना आदि में हुई थी आज भी फ़ारसी भाषा का शृंगार समझी जाती है। उसकी भाषा पर समय का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।

साहित्य संसार और कवि वर्ग में ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि एक ही विषय पर गद्य और पद्य के दो ग्रथों में गद्य रचना अधिक श्रेष्ठ हो। किन्तु सा’दी ने यही कर दिखाया है। गुलिस्तां और बोस्तां दोनों में नीति का विषय लिया गया है। लेकिन जो आदर और प्रचार गुलिस्तां का है वह बोस्तां का नहीं। बोस्तां के जोड़ की कई किताबें फ़ारसी भाषा में वर्तमान हैं। मसनवी (भक्ति के विषय में मौलाना जलालुद्दीन का महाकाव्य)सिकन्दरनामा (सिकन्दर बादशाह के चरित्र पर निज़ामी का काव्य) और शाहनामा (फ़िरदोसी का अपूर्व काव्यईरान देश के बादशाहों के विषय मेंफ़ारसी का महाभारत) यह तीनों ग्रंथ उच्चकोटि के हैं और उनमें यद्यपि शब्द योजनाकाव्यसौदर्यअलंकार और वर्णन शक्ति बोस्तां से अधिक है तथापि उसकी सरलताऔर उसकी गुप्त चुटकियॉं और युक्तियॉं उनमें नहीं है। लेकिन गुलिस्तां के जोड़ का कोई ग्रंथ फ़ारसी भाषा में है ही नहीं। उसका विषय नया नहीं है। उसके बा’द से नीति पर फ़ारसी में सैकड़ों ही किताबें लिखी जा चुकी हैं। उसमें जो कुछ चमत्कार है वह सादी के भाषा लालित्य और वाक्य चातुरी का है। उसमें बहुत-सी कथायें और घटनायें स्वयं लेखक ने अनुभव की हैंइसलिए उनमें ऐसी सजीवता और प्रभावोत्पादकता का संचार हो गया है जो केवल अनुभव से ही हो सकता है। सा’दी पहले एक बहुत साधारण कथा छेड़ते हैं लेकिन अंत में एक ऐसी चुटीली और मर्मभेदी बात कह देते हैं कि जिससे सारी कथा अलंकृत हो जाती है। यूरोप के समालोचकों ने सा’दी की तुलना 'होरेस' (यूनान का सर्वश्रेष्ठ कवि) से की है। अंग्रेज़ विद्वान ने उन्हें एशिया के शेक्सपियर की पदवी दी है इससे विदित होता है कि यूरोप में भी सा’दी का कितना आदर है। गुलिस्तां के लैटिनफ्रेंचजर्मनडचअंग्रेजीतुर्की आदि भाषाओं में एक नहीं कई अनुवाद हैं। भारतीय भाषाओं में उर्दूगुजरातीबंगला में उसका अनुवाद हो चुका है। हिंदी भाषा में भी महाशय मेहरचन्द दास का किया हुआ गुलिस्तां का गद्य-पद्यमय अनुवाद 1888 में प्रकाशित हो चुका है। संसार में ऐसे थोड़े ही ग्रंथ हैं जिनका इतना आदर हुआ हो।


.....और पढ़िए
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक की अन्य पुस्तकें

लेखक की अन्य पुस्तकें यहाँ पढ़ें।

पूरा देखिए

लोकप्रिय और ट्रेंडिंग

सबसे लोकप्रिय और ट्रेंडिंग उर्दू पुस्तकों का पता लगाएँ।

पूरा देखिए

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए