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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : ख़्वाजा मीर दर्द

संपादक : निसार आज़मी

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष : 1997

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : संकलन

पृष्ठ : 118

सहयोगी : सौलत पब्लिक लाइब्रेरी, रामपुर (यू. पी.)

intikhab-e-kalam khwaja meer dard
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पुस्तक: परिचय

خواجہ میر درد ؔکو اردو میں صوفیانہ شاعری کا امام کہا جاتا ہے۔ دردؔ اور تصوف لازم و ملزوم بن کر رہ گئے ہیں ،میر تقی میرؔ نےانہیں ریختہ کا "زور آور" شاعر کہتے ہوئے انہیں "خوش بہار گلستان ، سخن" قرار دیا۔محمد حسین آزاد نے کہا کہ کہ دردؔ تلواروں کی آبداری اپنے نشتروں میں بھر دیتے ہیں ،مرزا لطف علی صاحب ،"گلشن سخن" کے مطابق دردؔ کا کلام "سراپا درد و اثر "ہے۔میر حسن نے انھیں ، آسمان ، سخن کا خورشیدقرار دیا ،پھر امداد اثرنے کہا کہ معاملات تصوف میں ان سے بڑھ کر اردو میں کوئی شاعر نہیں گزرا اور عبد السلام ندوی نے کہا کہ خواجہ میر دردؔ نے اس زبان (اردو)کو سب سے پہلے صوفیانہ خیالات سےآشنا کیا۔زیر نظر کتاب" انتخاب کلام خواجہ میر در د"نثار اعظمی کی مرتب کردہ کتاب ہے ، کتاب کے شروع میں نثار احمد اعظمی کا لکھا ہوا مفصل مقدمہ ہے ، جس میں خواجہ میر درد کے حالات زندگی اور ان کے دور کے سیاسی ،سماجی پس منظر کو بیان یا گیا ہے ، اس کے بعد درد کا منتخبہ کلام پیش کیا گیا ہے۔

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लेखक: परिचय

ख़्वाजा मीर दर्द को उर्दू में सूफ़ियाना शायरी का इमाम कहा जाता है। दर्द और तसव्वुफ़ एक दूसरे के पूरक बन कर रह गए हैं। बेशक दर्द के कलाम में सूफ़ीवाद की समस्या और सूफ़ियाना संवेदना के वाहक अशआर की अधिकता है लेकिन उन्हें मात्र एक सूफ़ी शायर कहना उनकी शायरी के साथ नाइंसाफ़ी है। आरम्भ के तज़किरा लिख नेवालों ने उनकी शायरी को इस तरह सीमित नहीं किया था, सूफ़ी शायर होने का ठप्पा उन पर बाद में लगाया गया। मीर तक़ी मीर ने, जो अपने सिवा कम ही किसी को ख़ातिर में लाते थे, उन्हें रेख़्ता का “ज़ोर-आवर” शायर कहते हुए उन्हें “ख़ुश बहार गुलिस्तान-ए-सुख़न” क़रार दिया। मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने कहा कि दर्द तलवारों की आबदारी अपने नश्तरों में भर देते हैं, मिर्ज़ा लुत्फ़ अली साहिब,”गुलशन-ए- सुख़न” के मुताबिक़ दर्द का कलाम “सरापा दर्द-ओ-असर” है। मीर हसन ने उन्हें, आसमान-ए-सुख़न का ख़ुरशीद क़रार दिया, फिर इमदाद असर ने कहा कि तसव्वुफ़ के मुआमलात में उनसे बढ़कर उर्दू में कोई शायर नहीं गुज़रा और अब्दुस्सलाम नदवी ने कहा कि ख़्वाजा मीर दर्द ने इस ज़बान (उर्दू)को सबसे पहले सूफ़ियाना ख़्यालात से रूबरू किया। इन हज़रात ने भी दर्द को तसव्वुफ़ का एक बड़ा शायर ही माना है। उनके कलाम की दूसरी विशेषताओं से इनकार नहीं किया है। शायरी की परख, यूं भी “क्या कहा है” से ज़्यादा “कैसे कहा है” पर आधारित होती है, दर्द की शायरी के लिए भी यही उसूल अपनाना होगा। दर्द एक साहिब-ए-उसलूब शायर हैं। उनके कुछ सादा अशआर पर मीर की शैली का धोखा ज़रूर होता है लेकिन ध्यान से देखा जाये तो दोनों की शैली बिल्कुल अलग है। दर्द की शायरी में सोच-विचार के तत्व स्पष्ट हैं जबकि मीर विचार को भावना के अधीन रखते हैं, अलबत्ता इश्क़ में सुपुर्दगी और नर्मी दोनों के यहां साझा है और दोनों आहिस्ता आहिस्ता सुलगते हैं। दर्द के यहां मजाज़ी इश्क़ भी कम नहीं। जीते जागते महबूब की झलकियाँ जगह जगह उनके कलाम में मिल जाती हैं। उनका मशहूर शे’र है;

कहा जब मैं तिरा बोसा तो जैसे क़ंद है प्यारे
लगा तब कहने पर क़ंद-ए-मुकर्रर हो नहीं सकता

दर्द की शायरी बुनियादी तौर पर इश्क़िया शायरी है, उनका इश्क़ मजाज़ी भी है, हक़ीक़ी भी और ऐसा भी जहां इश्क़-ओ-मजाज़ की सरहदें बाक़ी नहीं रहतीं। लेकिन इन तीनों तरह के अशआर में एहसास की सच्चाई स्पष्ट रूप से नज़र आती है, इसीलिए उनके कलाम में प्रभावशीलता है जो कारीगरी के शौक़ीन शो’रा के हाथ से निकल जाती है। दर्द ने ख़ुद कहा है, “फ़क़ीर ने कभी शे’र आवुर्द से मौज़ूं नहीं किया और न कभी इसमें लीन हुआ। कभी किसी की प्रशंसा नहीं की न निंदा लिखी और फ़र्माइश से शे’र नहीं कहा”, दर्द के इश्क़ में बेचैनी नहीं बल्कि एक तरह का दिल का सुकून और पाकीज़गी है। बक़ौल जाफ़र अली ख़ां असर दर्द के पाकीज़ा कलाम के लिए पाकीज़ा निगाह दरकार है।

दर्द के कलाम में इश्क़-ओ-अक़ल, उत्पीड़न व शक्ति, एकांत व संघ, सफ़र दर सफ़र, अस्थिरता व अविश्वास, अस्तित्व व विनाश, मकां-ओ-लामकां, एकता व बहुलता, अंश व सम्पूर्ण विश्वास और ग़रीबी के विषय अधिकता से मिलते हैं। फ़ी ज़माना, तसव्वुफ़ का वो ब्रांड, जिसके दर्द ताजिर थे, अब फ़ैशन से बाहर हो गया है। इसकी जगह संजीदा तबक़े में सरमद और रूमी का ब्रांड और
जनसाधारण में बुल्हे शाह, सुलतान बाहु और “दमा दम मस्त क़लंदर” वाला ब्रांड ज़्यादा लोकप्रिय है।

ग़ज़ल की शायरी खुले तौर पर कम और इशारों में ज़्यादा बात करती है इसलिए इसमें मायनी के इच्छानुरूप आयाम तलाश कर लेना कोई मुश्किल काम नहीं। ये ग़ज़ल की ऐसी ताक़त है कि वक़्त के तेज़ झोंके भी इस चिराग़ को नहीं बुझा सके। ऐसे में अगर मजनूं गोरखपुरी ने दर्द के कलाम में “कहीं दबी हुई और कहीं घोषित रूप से, कभी होंटों में और कभी खिले होंटों शदीद तंज़ के साथ ज़माने की शिकायत और ज़िंदगी से निराशा के लक्षण” तलाश किये तो बहरहाल
उनका स्रोत दर्द का कलाम ही था। मजनूं कहते हैं दर्द अपने ज़माने के हालात से असंतुष्टि को व्यक्त करते हैं।

दर्द के कलाम को उनके ज़माने के सामाजिक और बौद्धिक परिवेश और उनकी निजी व्यक्तित्व के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। जहां तक वर्णन शैली का सम्बंध है अपनी बात को दबे शब्दों में व्याख्या को अधूरा छोड़ देना दर्द को अन्य समस्त शायरों से अलग करता है। इस तरह के अशआर में अनकही बात, वर्णन के मुक़ाबिले में ज़्यादा असरदार होती है। हैरत-ओ-हसरत की ये धुँधली सी अभिव्यक्ति उनके अशआर का ख़ास जौहर है। इस सिलसिले में रशीद हसन ख़ां ने पते की बात कही है, वो कहते हैं, “दर्द के जिन अशआर में ख़ालिस तसव्वुफ़ की इस्तेलाहें इस्तेमाल हुई हैं या जिनमें मजाज़ियात को साफ़ साफ़ पेश किया गया है वो न दर्द के नुमाइंदा अशआर हैं न ही उर्दू ग़ज़ल के। ये बात हमको मान लेनी चाहिए कि उर्दू में फ़ारसी की सूफ़ियाना शायरी की तरह उत्कृष्ट सुफ़ियाना शायरी का अभाव है। हाँ, इसके बजाय उर्दू में हसरत, तिश्नगी और निराशा का जो ताक़तवर सामंजस्य सक्रिय है, फ़ारसी ग़ज़ल इससे बड़ी हद तक ख़ाली है।” समग्र रूप से दर्द की शायरी दिल और रूह को प्रभावित करती है। भावपूर्ण और काव्यात्मक “उस्तादी” की अभिव्यक्ति उनकी आदत नहीं, दर्द संगीत के माहिर थे, उनके कलाम में भी संगीत है। दर्द तभी शे’र कहते थे जब शे’र ख़ुद को उनकी ज़बान से कहलवाए, इसीलिए उनका दीवान बहुत मुख़्तसर है।

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