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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : मिर्ज़ा ग़ालिब

संपादक : ख़लीक़ अंजुम

प्रकाशक : मॉनूमेन्टल पब्लिशर्स, दिल्ली

मूल : दिल्ली, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1989

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : पत्र

पृष्ठ : 209

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली

intikhab-e-khutoot-e-ghalib
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पुस्तक: परिचय

غالب کی دیگر نامہ نگاروں کے مقابلہ میں امتیازی شان یہ ہے کہ وہ اپنے خطوط میں بے تکلفانہ زبان کا استعمال کرتے ہیں۔ خط کو پڑھ کر یوں محسوس ہوتا ہے کہ گویا سامنے بیٹھ کر بات کر رہے ہوں۔ طنز و ظرافت ان کا خاصہ ہے اس لئے وہ اپنے خطوط میں جا بجا ظرافت کا پہلو نکال ہی لیتے ہیں۔ غالب کے خطوط اردو ادب میں ایک طرز نو کا باب کھولتے ہیں اور اپنے مکتوب الیہ کو اپنے دل کا حال صاف صاف بتانے کی کوشش کرتے ہیں۔ مکتوبات غالب ادب عالیہ کا ایک بہترین نمونہ ہیں۔ اسی لئے خطوط غالب کو کئی لوگوں نے مرتب کیا ہے۔ خلیق انجم نے غالب کے خطوط کو ان کی خصوصیات اور دیگر معلومات کے ساتھ کئی جلدوں میں مرتب کیا ہے۔ زیر نظر انہیں جلدوں سے انتخاب ہے جس کو خود خلیق انجم نے انجام دیا ہے، اور خیال رکھا ہے کہ اس انتخاب میں وہی خطوط شامل ہوں جو غالب کے اسلوب نثر کی نمائندگی کریں۔

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लेखक: परिचय

‘ग़ालिब’ की अव्वलीन ख़ुसूसियत तुर्फ़गी-ए-अदा और जिद्दत-ए-उस्लूब-ए-बयान है लेकिन तुर्फ़गी से अपने ख़्यालात, जज़बात या मवाद को वही ख़ुश-नुमाई और तरह तरह की मौज़ूं सूरत में पेश कर सकता है जो अपने मवाद की माहियत से तमाम-तर आगाही और वाक़फ़िय्यत रखता हो। ‘मीर’ के दौर में शायरी इबारत थी महज़ रुहानी और क़लबी एहसासात-ओ-जज़बात को बे-ऐनिही अदा कर देने से गोया शायर ख़ुद मजबूर था कि अपनी तसकीन-ए-रूह की ख़ातिर रूह और क़लब का ये बोझ हल्का कर दे। एक तरह की सुपुर्दगी थी जिस में शायर का कमाल महज़ ये रह जाता है कि जज़बे की गहराई और रुहानी तड़प को अपने तमाम अम्न और असर के साथ अदा कर सके। इस लिए बेहद हस्सास दिल का मालिक होना अव्वल शर्त है और शिद्दत-ए-एहसास के वो सुपुर्दगी और बे-चारगी नहीं है ये शिद्दत और कर्ब को महज़ बयान कर देने से रूह को हल्का करना नहीं चाहते बल्कि उनका दिमाग़ उस पर क़ाबू पा जाता है और अपने जज़बात और एहसासात से बुलंद हो कर उन में एक लज़्ज़त हासिल करना चाहते हैं या यूं कहिए कि तड़प उठने के बाद फिर अपने जज़बात से खेल कर अपनी रूह के सुकून के लिए एक फ़लसफ़ियाना बे-हिसी या बे-परवाई पैदा कर लेते हैं। अगर ‘मीर’ ने चर के सहते सहते अपनी हालत ये बनाई थी कि। मज़ाजों में यास आ गई है हमारे ना मरने का ग़म है ना जीने की शादी तो ग़ालिब अपने दिल-ओ-दिमाग़ को यूं तसकीन देते हैं कि ग़ालिब की शायरी में ‘ग़ालिब’ के मिज़ाज और उनके अक़ाइद-ए-फ़िक्री को भी बहुत दख़ल है तबीअतन वो आज़ाद मशरब मिज़ाज पसंद हर हाल में ख़ुश रहने वाले रिंद मनश थे लेकिन निगाह सूफ़ियों की रखते थे। बावजूद इस के कि ज़माने ने जितनी चाहिए उनकी क़दर ना की और जिसका उन्हें अफ़सोस भी था फिर भी उनके सूफ़ियाना और फ़लसफ़ियाना तरीक़-ए-तफ़क्कुर ने उन्हें हर क़िस्म के तरदुदात से बचा लिया। (अल्ख़) और इसी लिए उस शब-ओ-रोज़ के तमाशे को महज़ बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल समझते थे। दीन-ओ-दुनिया, जन्नत-ओ-दोज़ख़, दैर-ओ-हरम सबको वो दामानदगी-ए-शौक़ की पनाहें समझते हैं। (अल्ख़) जज़बात और एहसासात के साथ ऐसे फ़लसफ़ियाना बे-हमा दबा-हमा तअ'ल्लुक़ात रखने के बाइस ही ‘ग़ालिब’ अपनी शिद्दत-ए-एहसास पर क़ाबू पा सके और इसी वास्ते तुर्फ़गी-ए-अदा के फ़न में कामयाब हो सके और ‘मीर’ की यक-रंगी के मुक़ाबले में गुलहा-ए-रंग रंग खिला सके। “लौह से तम्मत तक सौ सफ़े हैं लेकिन क्या है जो यहाँ हाज़िर नहीं कौन सा नग़्मा है जो इस ज़िंदगी के तारों में बेदार या ख़्वाबीदा मौजूद नहीं।” लेकिन ‘ग़ालिब’ को अपना फ़न पुख़्ता करने और अपनी राह निकालने में कई तजुर्बात करने पड़े। अव्वल तो ‘बे-दिल’ का रंग इख़्तियार किया लेकिन उस में उन्हें कामयाबी ना हुई सख़ियों कि उर्दू ज़बान फ़ारसी की तरह दरिया को कूज़े में बंद नहीं कर सकती थी मजबूरन उन्हें अपने जोश-ए-तख़य्युल को दीगर मुताअख़्रीन शोअ'रा-ए-उर्दू और फ़ारसी के ढंग पर लाना पड़ा। ‘साइब’ की तमसील-निगारी उनके मज़ाक़ के मुताबिक़ ना ठहरी ‘मीर’ की सादगी उन्हें रास ना आई आख़िर-कार ‘उर्फ़ी’-ओ-‘नज़ीरी’ का ढंग उन्हें पसंद आया उस में ना ‘बे-दिल’ का सा इग़लाक़ था ना ‘मीर’ की सी सादगी। इसी लिए इसी मुतवाज़िन अंदाज़ में उनका अपना रंग निखर सका और अब ग़ैब से ख़्याल में आते हुए मज़ामीन को मुनासिब और हम-आहंग नशिस्त में ‘ग़ालिब’ ने एक माहिर फ़न-कार की तरह तुर्फ़ा-ए-दिलकश और मुतरन्नुम-अंदाज़ में पेश करना शुरू कर दिया। आशिक़ाना मज़ामीन के इज़हार में भी ग़ालिब ने अपना रास्ता नया निकाला शिद्दत-ए-एहसास ने उनके तख़य्युल की बारीक-तर मज़ामीन की तरफ़ रहनुमाई की गहरे वारदात-ए- क़लबिया का ये पर-लुत्फ़ नफ़सियाती तजज़िया उर्दू शायरी में उस वक़्त तक (सिवाए मोमिन के) किसी ने नहीं बरता था। इसलिए लतीफ़ एहसासात रखने वाले दिल और दिमाग़ों को इस में एक तरफ़ा लज़्ज़त नज़र आई। ‘वली’, ‘मीर’-ओ-‘सौदा’ से लेकर अब तक दिल की वारदातें सीधी-सादी तरह बयान होती थीं। ‘ग़ालिब’ ने मोतअख़्रिन शोअ'रा-ए-फ़ारसी की रहनुमाई में उस पुर-लुत्फ़ तरीक़े से काम लेकर उन्हीं मुआ'मलात को उस बारीक-बीनी से बरता कि लज़्ज़त काम-ओ-दहन के नाज़-तर पहलू निकल आए। ग़रज़ कि ऐसा बुलंद फ़िक्र गीराई गहराई रखने वाला वसीअ मशरब, जामा' और बलीग़ रूमानी शायर हिन्दुस्तान की शायद ही किसी ज़बान को नसीब हुआ हो मौज़ू और मतालिब के लिहाज़ से अल्फ़ाज़ का इंतिख़ाब (मसलन जोश के मौक़ा पर फ़ारसी का इस्तिमाल और दर्द-ओ-ग़म के मौक़ा पर ‘मीर’ की सी सादगी का बंदिश और तर्ज़-ए-अदा का लिहाज़ रखना ग़ालिब का अपना ऐसा फ़न है जिस पर वो जितना नाज़ करें कम है।

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