aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
"جام سرشار" رتن ناتھ سرشار کا لکھا ہوا ناول ہے، جسے تکنیکی اعتبار سے مکمل ناول کہا گیا ہے۔ اس ناول میں نوابین کی گھناؤنی عیاشیاں، ان کی خلقی کمزوریاں اور درباریوں کا ذکر ہے۔ اس عہد میں فاحشہ عورتوں کا اثر کس قدر تھا۔ پونجی داروں کی دولت کس طرح ختم ہو رہی تھی۔ جام سرشار اس تمام سوالوں کا مختصر جواب ہے۔ جام سرشار کی زبان صاف اور منجھی ہوئی ہے لیکن اس میں وہ بذلہ سنجی نہیں ہے جو فسانہ آزاد میں ہے۔ اس ناول کا قصہ مختصر اور مربوط اور دلچسپ ہے، ساتھ ہی ساتھ پلاٹ کا شعور بھی ہے۔ اس ناول پر بدر عالم کا مقدمہ اور چکبست نے سرشار کے حالات زندگی قلم بند کئے ہیں۔ تقریظ پندت مادھو پرشاد کی ہے۔ ناول کے آخر میں مشکل الفاظ کی فرہنگ بھی شامل کی گئی ہے۔
उर्दू के मुमताज़ अदीबों में एक अहम नाम पण्डित रतन नाथ सरशार का है। ये 1846ई. में लखनऊ में पैदा हुए। ये कश्मीरी पण्डित थे। उनके पिता का देहांत सरशार के बचपन में ही हो गया और उनका भरण पोषण उनकी माँ करती रहीं। आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद कॉलेज में दाख़िल हुए लेकिन कोई डिग्री हासिल न हो सकी और कॉलेज छोड़ना पड़ा। फिर ज़िला खेलरी में एक स्कूल में पठन पाठन की ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने लगे। लिखने पढ़ने का शौक़ बे-इंतिहा था। किताबों से वाबस्तगी हमेशा रही नतीजे में वो हरहाल में अपने समय के मुद्दों के संपर्क में रहते थे। उनके आरंभिक आलेख “अवध पंच” और “मरासल-ए-कश्मीर” में प्रकाशित हुए। फिर कई पत्रिकाओं और अख़बारों से उनका सम्बंध स्थापित हुआ जैसे “अवध अख़बार”, “रियाज़ उल अख़बार”, “मुराआत उल-हिंद” वग़ैरा। जब मुंशी नवलकिशोर ने “अवध अख़बार” जारी किया तो वो उसके एडिटर हुए। याद रखने की बात है कि उनकी मशहूर रचना “फ़साना-ए-आज़ाद” की क़िस्तें उसी में प्रकाशित होती रहीं। फिर “अवध अख़बार” से अलग हुए और महाराजा कृष्ण प्रसाद की दावत पर हैदराबाद चले आए और “दबदबा-ए-आसफी” के एडिटर बन गए। उनका देहावसान 1895ई. में हुआ। आख़िर वक़्त में वो हैदराबाद में थे।
रतन नाथ सरशार को मुसलमानों की तहज़ीब, समाज, संस्कृति, नैतिकता, तेवर आदि से बहुत लगाव था। उनके मिलने-जुलने वालों की भारी संख्या मुसलमानों ही की थी। हिंदू व मुस्लिम समाज के पेचीदगियों को बख़ूबी समझते थे। लेकिन स्वभाव चंचल था। आज़ाद मनिश होने की वजह से ज़िंदगी में जीने की सीमाएं निर्धारित नहीं रखीं। शराब-ओ-कबाब के आदी हो गए और इंतिहाई लापरवाह और बे परवाह ज़िंदगी गुज़ारी। ये और बात है कि उन हालात में भी लिखने लिखाने से परहेज़ नहीं किया। लेकिन स्वभाव की तीव्रता एकरूपता की अनुमति नहीं देता नतीजे में वो किस्तें जो अख़बार में छपती रहीं उनके लिए भी कोई ऐसी प्रतिबद्धता नहीं की ताकि क्रम व सम्बंध शुरू से आख़िर तक बना रहे। अख़बार के अनुरोध पर किस्तें लिखते। इस तरह “फ़साना-ए-आज़ाद” मुकम्मल हुआ।
सरशार जो कुछ थे वो उनकी शाहकार में पूरा का पूरा Reflect होता है। जिस तरह वो ख़ुद हाज़िरजवाब थे, हंसी मज़ाक़ के पैकर थे उसी तरह उनके कुछ किरदार सामने आए हैं। लेकिन ऐसे तमाम मामलों में वे समाज की सुख-सुविधाओं को नहीं भूलते। नतीजे में एक पतनशील सभ्यता उनके “फ़साना-ए-आज़ाद” में परिलक्षित हो गई है। लखनऊ जिन हालात से गुज़र रहा था उसकी अगर तस्वीर देखनी हो तो उनकी यह रचना काफ़ी है। इसके दो किरदार आज़ाद और खोजी लखनऊ के समाज को पूरी तरह से प्रतिबिंबित करते हैं।
सरशार को अंग्रेज़ी नाविलों से एक विशेष लगाव था। उनकी निगाह में सर्वेन्ट्स की “डॉन क्विगज़िट” ज़रूर होगी, इसलिए कि उसके दो किरदार बेशक “फ़साना-ए-आज़ाद” के भी किरदार बनते हैं। मेरा तात्पर्य किरदार डॉन क्विगज़िट नाइट से है और दूसरे किरदार सानकोपाज़ा से। उस ज़माने में नाइट (Knight) की अपनी एक हैसियत थी और वो हैसियत बड़ी मिसाल होती थी। डॉन क्विगज़िट ऐसे उदाहरण से इनकार करता है, उसी तरह सानकोपाज़ा जो मुलाज़िम है, हालात के नुक्ताचीं के रूप में सामने आता है। ये दोनों स्थितियां “फ़साना आज़ाद” में पाई जाती हैं। एक तरफ़ खोजी है जो Knight की एक स्थिति है। दूसरी तरफ़ आज़ाद है। इन दोनों पात्रों के माध्यम से सरशार ने वर्तमान स्थिति के साथ जिस तरह तालमेल बिठाया है और जिस तरह चित्रित किया है वो दर्शनीय है। इस सिलसिले में वज़ीर आग़ा लिखते हैं कि “खोजी प्राचीन की पैदावार ही नहीं उसकी विकृति भी है। ये प्राचीन सरशार के ज़माने के लखनऊ में अपनी बाहरी स्वरुप के साथ ज़िन्दा था। लिबास, रीति रिवाज, बोलचाल, रहन सहन के आदाब और उनसे भी ज़्यादा एक विशिष्ट दृष्टिकोण। इन सब बातों पर लखनवी सभ्यता के प्रभाव दर्ज थे। यह लखनवी तहज़ीब उस त्रासदी से पलायन करने की एक कोशिश थी जिसने मुग़ल सलतनत के पतन और उससे पैदा होने वाली अराजकता के वातावरण से जन्म लिया था। उस तहज़ीब की दाग़ बेल उस वक़्त पड़ी जब अवध के हुकमरानों ने ‘हक़ीक़त’ का सामना न कर सकने के कारण अपनी आँखें मीच लीं और ‘बाबर ब ऐश कोश कि आलम दुबारा नीस्त’ के तहत ख़ुद को अतीत और भविष्य दोनों से अलग कर के वर्तमान के क्षणों पर केन्द्रित कर लिया। जब भविष्य के सपने दृष्टि से ओझल हों और अतीत के उदय की दास्तान भी ज़ेहन से मिट जाए तो मानव कर्म में ठहराव और इन्द्रियों में अवसाद का आविर्भूत होना अपरिहार्य है। फिर जब कल्पना कमज़ोर और इन्द्रियां क्रुद्ध हों तो गोश्त-पोस्त की ज़िन्दगी अपेक्षाकृत अधिक केन्द्रित हो जाती है। लखनवी तहज़ीब दरअसल स्वभावतः एक ज़मीनी तहज़ीब थी जिसमें देह-संतुष्टि का मामला जीवन-दर्शन का रूप धारण कर गया था। इस तरह का सांसारिक समाज धार्मिक अनुष्ठानों, भाषा और मुहावरों, इश्क़िया वासना और सौन्दर्य सम्बंधी रूचि या हीन प्रकार के लज़्ज़त परस्ती में ढल जाता है।”
यह स्पष्टता भी दुरुस्त है कि इस तरह की अभिव्यक्ति में सरशार ने सर्वेन्ट्स के नाविलों के दोनों पात्रों को इस तरह से बदल दिया कि डॉन क्विगज़ोट का मुलाज़िम “फ़साना-ए-आज़ाद” के हीरो आज़ाद में सिमट आया जबकि ख़ुद डॉन क्विगज़ोट खोजी में बदल गया।
सरशार का कमाल ये है कि वो धार्मिक मामलों को भी नज़र में रखते हैं। दरअसल समाज के चित्रण के लिए ये ज़रूरी होता है कि बयान में शिद्दत पैदा की जाए और ये शिद्दत उस समय अधिक प्रभावी होती है जब अतिशयोक्ति और से मदद ली जाए, छोटी छोटी चीज़ों को बुलंद कर दिया जाए और ऊँचाइयों को नीचा बना दिया जाए। बेशक सरशार ने ऐसा ही किया, नतीजे में लखनऊ का समाज दूसरे पात्रों के अलावा उन दोनों पात्र में सिमट आया। ये बड़ा अदबी कमाल है और उर्दू फ़िक्शन में बहुत कम ऐसे ख़ुशक़िस्मत फ़नकार हैं जिनके पात्र ज़िंदा और प्रकाशमान हैं। सरशार के ये दोनों पात्र आदर्श बन गए हैं और हालात के चित्रण का आदर्श प्रतीक। ये अलग बहस है कि सरशार ने सर्वेन्ट्स से कितना लिया और कितना ख़ारिज किया। लेकिन जो कुछ भी लिया उसे नए रंग-ओ-आहंग में और इस तरह ढाला कि सब अपना जवाब ख़ुद बन गए। इस बहस को आगे बढ़ाते हुए वज़ीर आग़ा ने एक पते की बात कही है जो हर तरह से क़ाबिल-ए- लिहाज़ है:
“प्राचीन और उसका प्रतीक खोजी को उपहास का निशाना बनाने का क़दम तो समझ में आता है, लेकिन ख़ुरशीद उल-इस्लाम की ये राय महल्ल-ए-नज़र है कि सरशार ने जदीद और उसका प्रतीक आज़ाद को भी तंज़ का निशाना बनाया। चुनांचे देखना चाहिए कि सरशार ने आज़ाद को देव क़ामत और खोजी को छोटा क़द बना कर क्यों पेश किया। सचेत स्तर पर तो शायद सरशार के सामने कोई मक़सद न हो, लेकिन कदापि अवचेतन रूप से उन्होंने आधुनिक से अपने सद्भाव और प्राचीन से अपनी घृणा को उजागर करने के लिए उन दोनों पात्रों से मदद ली है। आधुनिक से उनका भावनात्मक लगाव इस तरह से स्पष्ट है कि उन्होंने आज़ाद के गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया और प्राचीन से उनकी नफ़रत इस बात से परिलक्षित होती है कि इस सम्बंध में भी उन्होंने अत्युक्ति से काम लेते हुए खोजी को आम इंसानी सतह से बहुत नीचे का स्थान प्रदान किया। इस कार्य से सरशार के हाँ सुधारवाद की प्रवृति भी साबित होती है कि वो समाज के सुधार के लिए नए ज़माने के साथ चलना और पुराने ज़माने से अलग होना चाहते थे। मुम्किन है उनके इस रवय्ये पर सर सय्यद अहमद ख़ां की आन्दोलन के प्रभाव भी दर्ज हों, लेकिन एक शिक्षित, परिपक्व और संवेदनशील व्यक्ति के रूप में भी उनके इस ख़ास रवय्ये के कारणों को समझा जा सकता है। इसके अलावा सुधारवाद के सिलसिले में ये बात भी उल्लेखनीय है कि सरशार की अपनी ज़िन्दगी शराबनोशी और असंतुलन को समर्पित रही और आम क़ायदा ये है कि जो शख़्स किसी बुरी आदत में मुब्तला या बुरे वातावरण में गिरफ़्तार रहा हो वो चाहता है कि आने वाली नसलें उससे सीखें और उस अंधे कुँवें में न गिरें जिसमें ख़ुद गिर गया था। सरशार के अधिकांश लेखन में शराबनोशी और दूसरी बुरी रीतियों और आदतों के ख़िलाफ़ उनका अभियान इसी भावना की पैदावार है। इसलिए खोजी और आज़ाद के मामले में भी सुधारवाद की यह भावना बार-बार झलकती है।”
सरशार ने समाज की आलोचना का जो अंदाज़ इख़्तियार किया उसमें उपहास का अंदाज़ नहीं है बल्कि हास्य की चाशनी है। नतीजा ये है कि जो कुछ भी सामने आता है वो हास्य के रूप में आता है। हास्यकार वास्तव में सदैव अपने ज़ेहन-ओ-दिमाग़ में उतार-चढ़ाव को दर्शाता रहता है और जहाँ असमानता होती है वहाँ वो हास्य के अंदाज़ में उसकी रेखांकित कर देता है। लेकिन जब हास्य में शिद्दत पैदा होती है तो वो व्यंग्य का रूप धारण कर लेता है। सरशार के यहाँ ये पहलू बहुत कम पैदा हुआ है और मुझे महसूस होता है कि ज़्यादातर उन्होंने वाक़ियात, त्रासदियों और पात्रों से असमानताओं की निशानदेही के लिए हास्य शैली अपनाने में रूचि महसूस की और व्यंग्य का अंदाज़ कम से कम अपनाया।
सरशार की दूसरी रचनाएँ भी उल्लेखनीय हैं जैसे, “शम्स-उल-ज़ुहा”, “जाम-ए-सरशार”, “आमाल नामा-ए-रूस”, “सैर-ए-कुहसार”, “कामिनी”, “अलिफ़-लैला”, “ख़ुदाई फ़ौजदार” वग़ैरा। “शम्स-उल- ज़ुहा” वास्तव में भौगोलिक स्थिति से बहस करती है और ये अंग्रेज़ी से अनुवाद है। “आमाल नामा-ए-रूस” भी एक अंग्रेज़ी सैलानी की अंग्रेज़ी किताब का अनुवाद है। “जाम-ए-सरशार”, “फ़साना-ए-आज़ाद” की विरोध स्वरूप सामने आई। उसकी संजीदगी यद्यपि कि सरशार के स्वभाव से लग्गा नहीं खाती लेकिन ये सच है कि उसमें नवाब का किरदार बड़ी ही चाबुकदस्ती से पेश किया गया है। “सैर-ए-कुहसार” दो खण्डों में है लेकिन “फ़साना-ए-आज़ाद” से भाषा-शैली के मामले में निम्न स्तर की रचना है। “कामिनी” में हिंदू परिवार के रस्म-ओ-रिवाज की तरफ़ ध्यान दिया गया है। “अलिफ़-लैला” फ़ारसी क़िस्सा अलिफ़-लैला का तर्जुमा है और “ख़ुदाई फ़ौजदार” डॉन क्विगज़िट का अनुवाद है। सरशार उर्दू साहित्य के इतिहास का एक बहुत ही प्रमुख नाम है और शाश्वत भी।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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