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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : शबनम शकील

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : वज़ारत-ए-तरक़्क़ी-ए- ख़वातीन, हुकूमत-ए-पाकिस्तान

प्रकाशन वर्ष : 2005

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शोध एवं समीक्षा, महिलाओं की रचनाएँ

उप श्रेणियां : शायरी तन्क़ीद, आलोचना

पृष्ठ : 343

सहयोगी : फ़ैयाज़ अहमद वजीह

khawateen ki shairi mein auraton ke masail ki tasweer kashi
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पुस्तक: परिचय

زیر نظر کتاب میں شاعری کے حوالے سے خواتین کے گزشتہ تقریباً پانچ دہائیوں کے کام کا تحقیقی جائزہ پیش کیا گیا ہے۔ گزرے ہوئے پچاس پچپن سال کا تجزیہ کریں تو اندازہ ہو گا کہ شاعری کے تمام اہم موضوعات پر خواتین نے طبع آزمائی کی ہیں۔ اس کے باوجود مساوی حقوق کے حصول سے وہ اب بھی محروم ہیں۔ خواتین کے ساتھ ہوئی اسی ناانصافی کو اجاگر کرنے کی غرض سے اس کتاب کی اشاعت ہوئی ۔ کتاب میں 46 اہل قلم کی ادبی خوبیوں اور شاعرانہ لطافتوں کا تذکرہ موثر انداز میں پیش کیا گیا ہے۔ کتاب کو پڑھنے سے قاری اس بات کو اچھی طرح محسوس کریں گے کہ خواتین کی شاعری کا اثر تمام طبقوں پر بہت گہرا ہے اور اب جدید نسل میں ان کے تئیں سوچ میں ایک مثبت تبدیلی آرہی ہے ۔ اس معنی میں دیکھا جائے تو یہ کتاب روشنی کا ایک ایسا منبع ہے جس کے پڑھنے سے سماج کے ہر طبقے اور فرد کا ذہن منور ہوگا۔

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लेखक: परिचय

शायर, लेखिका और शिक्षाविद शबनम शकील का जन्म 12 मार्च 1942 को लाहौर, पाकिस्तान में हुआ। उन्होंने कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था और 1965 में उनकी पहली किताब “तन्क़ीदी मज़ामीन” प्रकाशित हुई। इसके अलावा, उनकी कई और किताबें प्रकाशित हुईं, जैसे “शबज़ाद” (काव्य-संग्रह) 1987 में, “इज़्तिराब” (काव्य-संग्रह) 1994 में और नस्र की किताबों में “तक़रीब कुछ तो हो”, “न क़फ़स न आशियाना”, और “आवाज़ तो देखो” 2003 में। उनका एक और काव्य-संग्रह “मुसाफ़त रायगाँ थी” 2008 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में 30 साल बिताए, लाहौर कॉलेज फ़ाॅर वूमेन, गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज, क्वेटा और फ़ेडरल गवर्नमेंट कॉलेज, इस्लामाबाद में पढ़ाया। उन्हें कई पुरस्कार भी मिले, जिनमें प्राइड ऑफ़ परफ़ाॅर्मेंस शामिल है। शबनम शकील का निधन 2 मार्च 2013 को कराची में 70 वर्ष की आयु में हुआ।
उर्दू शायरी में स्त्री-चेतना के संदर्भ में शबनम शकील की नज़्म “मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने वाली औरत” एक बेहतरीन मिसाल है। जब भी फ़हमीदा रियाज़ ने फ़ेमिनिज़्म पर बात की, इस नज़्म का ज़िक्र ज़रूर किया। ख़ालिदा हुसैन इस नज़्म के बारे में लिखती हैं कि यह “एक स्त्री की अदम्य आत्मा की कहानी है, जो तमाम मुसीबतों के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं हुई। जिसके भीतर हमेशा सच की शमा रौशन रही।”

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