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लेखक: परिचय

‘’उर्दू अदब की महान हस्तियों में शिबली एकमात्र स्व-निर्मित व्यक्ति हैं जिन्होंने पश्चिमी विज्ञानं व कला की तेज़-ओ-तुंद आंधी में भी पूर्वी ज्ञान और कला के दीये को न केवल बुझने नहीं दिया बल्कि अपनी तलाश व खोज, शोध और अनुसंधान के रोग़न से उसकी लौ को बढ़ाती रही यहां तक कि “चराग़-ए-ख़ाना” “शम-ए-अंजुमन” के दोश बदोश खड़ा होने के लायक़ हो गया।“ 

आफ़ताब अहमद सिद्दीक़ी

शिबली नामानी उन लोगों में हैं जो सर सय्यद अहमद ख़ां के प्रभाव और साहचर्य की बदौलत मौलवियत के सीमित और तंग घेरे से निकल कर साहित्य के विस्तृत मैदान में आए। उन्होंने उर्दू ज़बान में इस्लामी इतिहास का सही ज़ौक़ फैलाया। इतिहास में उन्होंने इस्लामी तारीख़ की महान विभूतियों के जीवन चरित्र क़लम-बंद करने का एक सिलसिला शुरू किया, जिसमें कई नामवर पूर्वज आ गए। उनकी सबसे मशहूर व लोकप्रिय किताब ख़लीफ़ा दोम हज़रत उम्र फ़ारूक़ की जीवनी “अल-फ़ारूक़” है। इस संदर्भ में उनकी अंतिम रचना “सीरत उन्नबी” उनकी ज़िंदगी में मुकम्मल नहीं हो सकी थी। उसे उनके शागिर्द सय्यद सुलेमान नदवी ने मुकम्मल करके प्रकाशित कराया। इन कृतियों के अलावा शिबली ने अनगिनत ऐतिहासिक व शोध लेख लिखे, जिससे इतिहास ज्ञान और इतिहास लेखन में सामान्य रूचि पैदा हुई। शिबली शायर और उच्च श्रेणी के काव्य मर्मज्ञ व आलोचक थे और उन्हें उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शुमार किया जाता है। अलीगढ़ प्रवास के दौरान शिबली ने प्रोफ़ेसर आरनल्ड से भी लाभ उठाया और उनके माध्यम से पश्चिमी सभ्यता और उसके सामाजिक शिष्टाचार से परिचित हुए। शिबली ने उस सभ्यता और समाज के गुणों को स्वीकार किया और पूर्वी सभ्यता के साथ उसे मिश्रित भी किया। उस मिश्रण ने परम्परावादियों को उनसे बदज़न कर दिया यहां तक कि उन्हें नदवा से भी निकलना पड़ा। वो पाश्चात्य प्रेमियों में बिना किसी हीन भावना के शरीक होते थे।

शिबली ने उर्दू और फ़ारसी दोनों ज़बानों में शायरी की लेकिन दोनों ज़बानों की शायरी का मिज़ाज मुख्तलिफ़ है । शिबली कि फ़ारसी शायरी में गर्मागर्म इश्क़िया मज़ामीन हैं जो अवाम की नज़र से कम ही गुज़रती है। उर्दू में उन्होंने आमतौर पर क़ौमी और सियासी शायरी की है। उनकी फ़ारसी शायरी के बारे में हाली ने कहा, “कोई क्योंकर मान सकता है कि ये उस शख़्स का कलाम है, जिसने सीरत ए नोमान, अल-फ़ारूक़ और सवानिह मौलाना रोम जैसी मुक़द्दस किताबें लिखी हैं, ग़ज़लें काहे को हैं, शराब दो आतिशा है, जिसके नशे में ख़ुमार चश्म-ए-साक़ी भी मिला हुआ है। ग़ज़लियात हाफ़िज़ का जो हिस्सा रिन्दी और बेबाकी के विषयों पर आधारित है, मुम्किन है कि उसके अलफ़ाज़ में ज़्यादा दिलरुबाई हो मगर ख़्यालात के लिहाज़ से ये ग़ज़लें बहुत ज़्यादा गर्म हैं।”

शिबली 1857 में आज़मगढ़ के नज़दीक बंदवाल में पैदा हुए। ये लोग मूलतः राजपूत थे। शिबली ने इमाम अबू हनीफ़ा से सम्बन्ध प्रकट करने के लिए अपने नाम के साथ नोमानी लिखना शुरू किया। उनके वालिद आज़मगढ़ के मशहूर वकील, बड़े ज़मींदार और नील व शक्कर के व्यापारी थे। शिबली को उन्होंने धार्मिक शिक्षा दिलाने का फ़ैसला किया। शिबली ने अपने वक़्त के यशस्वी विद्वानों से फ़ारसी-अरबी, हदीस फ़िक़्ह और दूसरे इस्लामी ज्ञान हासिल किए। शिक्षा पूर्ण करने के बाद मौलाना ने कुछ दिनों क़ुर्क़ अमीन के तौर पर नौकरी की, फिर वकालत का इम्तिहान दिया जिसमें फ़ेल हो गए, लेकिन अगले साल कामयाब हुए। कुछ दिनों कई जगहों पर नाकाम वकालत करने के बाद मौलाना को अलीगढ़ में सर सय्यद के कॉलेज में अरबी और फ़ारसी के शिक्षक की नौकरी मिल गई। यहीं से शिबली की कामयाबियों का सफ़र शुरू हुआ। अलीगढ़ की नौकरी के दौरान ही मौलाना ने तुर्की, शाम और मिस्र का सफ़र किया। तुर्की में सर सय्यद के रफ़ीक़ और अरबी-फ़ारसी के स्कालर के रूप में उनकी बड़ी आओ-भगत हुई। अतिया फ़ैज़ी के वालिद हसन आफ़ंदी की सिफ़ारिश पर, कि वो वो सुलतान अब्दुल हमीद के दरबार में ख़ासा रसूख़ रखते थे, उनको “तमग़ा-ए-मजीदिया” से नवाज़ा गया। वापसी पर उन्होंने अलमामून और सीरत ए नोमान लिखीं। 1890 में शिबली ने एक बार फिर तुर्की, लिबनान और फ़िलिस्तीन का दौरा किया और वहां के कुतुबख़ाने देखे। इस सफ़र से वापसी पर उन्होंने “अल-फ़ारूक़” लिखी। 1898 में सर सय्यद के देहावसान के बाद शिबली ने अलीगढ़ छोड़ दिया और आज़मगढ़ वापस आकर अपने द्वारा स्थापित “नेशनल स्कूल” (जो अब शिबली कॉलेज है) की तरक़्क़ी में मसरूफ़ हो गए। फिर वो हैदराबाद चले गए, जहां के अपने चार वर्षीय प्रवास में उन्होंने अलग़ज़ाली, इल्म-उल-कलाम, अल-कलाम, सवानिह उमरी मौलाना रोम, और मुवाज़ीना-ए-अनीस-ओ-दबीर लिखीं। इसके बाद वो लखनऊ आ गए जहां उन्होंने नदवतुल उलमा के शिक्षा सम्बंधी मामले सँभाले। नदवा की व्यस्तताओं के बीच ही उन्होंने शे’र-उल-अजम लिखी। 1907 में घर में भरी बंदूक़ अचानक चल जाने से वो अपना एक पैर गंवा बैठे और लकड़ी के पैर के साथ बाक़ी ज़िंदगी गुज़ारी। मौलाना ने दो शादियां कीं, पहली शादी कम उम्री में ही हो गई़ थी। पहली बीवी का 1895 में देहांत हो गया। 1900 में 43 साल की उम्र में उन्होंने एक बहुत कमसिन लड़की से दूसरी शादी की, जिसका 1905 में स्वर्गवास हो गया। शिबली का ख़्वाब था कि बड़े बड़े विद्वानों को जमा कर के ज्ञानपरक शोध व प्रकाशन की एक संस्था “दार उल मुसन्निफ़ीन” के नाम से स्थापित किया जाए। उन्होंने उसका इंतिज़ाम पूरा कर लिया था लेकिन संस्था का उद्घाटन उनकी मौत के बाद ही हो सका। मौलाना की कुछ सरगर्मियों की वजह से नदवा में उनका विरोध बढ़ गया था। आख़िर उनको उस संस्था से, जिसकी तरक़्क़ी के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत की थी, अलग होना पड़ा और वो आज़मगढ़ आकर स्कूल और ज़मींदारी के कामों में व्यस्त हो गए। यहां आकर उनकी सेहत गिरने लगी और 18 नवंबर 1914 को उनका देहांत हो गया। शिबली नोमानी एक सक्रिय और मेहनती आदमी थे। जिस काम में हाथ डालते पूरी मेहनत और लगन से उसे पूरा करने की कोशिश करते। अपनी विद्वता और शोहरत की बदौलत उनकी पहुंच उस वक़्त की बहुत सी रियास्तों के मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम हुकमरानों तक थी, जिनसे उनको अपने शैक्षिक व व्यवहारिक योजनाओं के लिए मदद मिलती रहती थी।

शिबली की गिनती उर्दू आलोचना के संस्थापकों में होती है। उन्होंने अपनी आलोचनात्मक विचारधारा को अपनी दो लाजवाब किताबों “शे’र उल अजम” और “मवाज़िना ए अनीस-ओ-दबीर” में व्यापक रूप में बयान किया है। मवाज़िना में शिबली ने मर्सिया निगारी की कला के मूल सिद्धांतों के साथ साथ वाग्मिता, अलंकारिक, उपमा, रूपकों और दूसरे व्याकरणिक लक्षणों को परिभाषित किया है। शे’र उल अजम में उन्होंने शे’र की हक़ीक़त व प्रकृति तथा शब्द-अर्थ के रिश्ते को समझने समझाने की कोशिश की है और इसमें उन्होंने उर्दू की कुल क्लासिकी विधाओं का मुहाकमा किया है। उसमें इन्होंने शायरी के मूल तत्वों, तारीख़-ओ-शे’र के फ़र्क़ और शायरी और वाक़िया निगारी के फ़र्क़ को स्पष्ट किया है। वो शायरी को ज़ौक़ी और भावनात्मक चीज़ समझते थे जिसकी कोई व्यापक व निवारक परिभाषा रखना मुम्किन नहीं। वो अनुभूति के मुक़ाबले में भावना व संवेदना को शायरी का मूल सार मानते हैं। उनका कहना है कि यद्यपि भावनाओं के बिना शायरी मुम्किन नहीं, फिर भी इसका मतलब उत्साह या हंगामा बरपा करना नहीं बल्कि जज़बात में ज़िंदगी और तीव्रता पैदा करना है। वो हर उस चीज़ को जो दिल पर आश्चर्य, जोश या कोई और भाव पैदा करे शे’र में शुमार करते हैं। इस तरह उनके नज़दीक आसमान, सितारे, सुबह की हवा, कलियों की मुस्कान, बुलबुल के नग़मे, दश्त की वीरानी और चमन की शादाबी सब शे’र में शामिल हैं। इस तरह शिबली ने शे’र के संवेदी और सौंदर्य के पहलू पर ज़ोर दिया। शब्द व अर्थ की बहस में उनका झुकाव शब्द की ख़ूबसूरती और उसके मुनासिब इस्तेमाल की तरफ़ है। वो शब्द को शरीर और अर्थ को उसकी रूह क़रार देते हैं और कहते हैं कि अगर श्रेष्ठ अर्थ श्रेष्ठ शब्दों का जामा पहन कर सामने आएं तो ज़्यादा प्रभावी होंगे। शिबली नोमानी की शैक्षिक सेवाओं को स्वीकार करते हुए अंग्रेज़ सरकार ने उनको शम्स-उल-उलमा का ख़िताब दिया था। उनके द्वारा स्थापित संस्था शिबली कॉलेज और दार उल मुसन्निफ़ीन आज भी ज्ञान व शोध के कामों में व्यस्त हैं। उर्दू ज़बान शिबली के एहसानात को कभी फ़रामोश नहीं कर सकती।

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अकबर इलाहाबादी हिन्दुस्तानी ज़बान और हिन्दुस्तानी तहज़ीब के बड़े मज़बूत और दिलेर शायर थे। उनके कलाम में उत्तरी भारत में रहने-बसने वालों की तमाम मानसिक व नैतिक मूल्यों, , तहज़ीबी कारनामों, राजनीतिक आंदोलनों और हुकूमती कार्यवाईयों के भरपूर सुराग़ मिलते हैं। अकबर की शायरी ज़माना और ज़िंदगी का आईना है। उनका अंदाज़-ए-बयान कहीं कहीं क़लंदराना, कहीं शायराना, कहीं तराश-ख़राश के साथ, कहीं सादा, कहीं पारंपरिक और कहीं आधुनिक और इन्क़िलाबी है। अकबर पारंपरिक होते हुए भी बाग़ी थे और बाग़ी होते हुए भी सुधारवादी। वो शायर थे, शोर नहीं मचाते थे। ख़वास और अवाम दोनों उनको अपना शायर समझते थे। उनकी शायरी दोनों के ज़ौक़ को सेराब करती है। उनका कलाम मुकम्मल उर्दू का कलाम है। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के अनुसार मीर तक़ी मीर के बाद अकबर इलाहाबादी ने अपने कलाम में उर्दू ज़बान के सबसे ज़्यादा अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। अकबर शायर पहले थे कुछ और बाद में। उन्होंने अपने दौर में न मौलवियों को मुँह लगाया न पश्चिम के लाभ से प्रभावित हुए, न अंग्रेज़ हाकिमों की पर्वाह की और न लीडरों को ख़ातिर में लिए। उस दौर में कोई व्यक्ति ऐसा न था जिसने अंग्रेज़ का मुलाज़िम होते हुए उसकी ऐसी ख़बर ली हो जैसी अकबर ने ली।

अकबर की शायरी को महज़ हास्य शायरी के खाते में डाल देना अकबर के साथ ही नहीं उर्दू शायरी के साथ भी नाइंसाफ़ी है। ग़ज़ल क़ता, रुबाई और नज़्मों की शक्ल में अकबर ने जितना उम्दा कलाम छोड़ा वैसा आधुनिक युग के किसी शायर के हाँ मौजूद नहीं। उन्होंने ग़ज़ल की पारंपरिक विधा में इन्क़िलाबी तजुर्बे किए। वो आकृति के तजुर्बे क़बूल करने में इतने आगे निकल गए कि एक ही नज़्म में विभिन्न बह्रों और विधाओं को एकत्र कर दिया। उन्होंने ब्लैंक वर्स (मोअर्रा नज़्म) में भी अभ्यास किया और अपने दौर के दूसरे शायरों से बेहतर आज़ाद नज़्में लिखीं। इस सिलसिले में उनकी नज़्म “एक कीड़ा” मार्के की चीज़ है। उनकी नज़्मों में नवीनता और कलात्मकता का जो मिश्रण है वो इक़बाल के सिवा उर्दू के किसी शायर के हाँ नहीं मिलती। अकबर पहले शायर हैं जिन्होंने ज़बान के आम अलफ़ाज़ ऊंट, गाय, शेख़, मिर्ज़ा, इंजन वग़ैरा का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया और उर्दू में प्रतीकात्मक शायरी की राह हमवार की। साहित्यिक रूचि रखने वालों के लिए उनके कलाम में ख़ुश फ़िक्री, परिहास, ज़बान-ओ-ख़्याल पर क़ुदरत, शाब्दिक व आर्थिक कलात्मकता सभी कुछ है। ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने वालों के लिए उन्होंने समाज और सभ्यता की पेचीदगीयों और शरीर व आत्मा के दर्शन की हक़ीक़तों से पर्दा उठाया है और सियासतदानों को तो उन्होंने उनका असल चेहरा दिखाया है। अकबर पहले शायर हैं जिनके हाँ औरत कभी फ़िरंग की नाज़नीं और कभी थियेटर वालियों की शक्ल में, अपने पूरे वजूद के साथ ख़ुद को दिखाती हुई नज़र आती है और जो उर्दू शायरी की रिवायती महबूबाओं से बिल्कुल भिन्न है। इश्क़-ओ-रूमान के मुक़ाबले में दृष्टिगत तीक्ष्णता का जो अंदाज़ अकबर के यहां मिलता है वो उर्दू शायरी में अनोखी चीज़ और अपनी मिसाल आप है। अकबर उर्दू के पहले शायर हैं जिसका दिल तो बहुतों पर आता है (मिरा जिस पारसी लेडी पे दिल आया है ए अकबर/ जो सच पूछो तो हुस्न-ए-बंबई है उसकी सूरत से) लेकिन जिसकी असल महबूबा एक शादीशुदा औरत है जो उसकी अपनी बीवी है (अकबर डरे नहीं कभी दुश्मन की फ़ौज से/ लेकिन शहीद हो गए बेगम की नौज से)। अकबर के “फ़र्स्ट” की फ़ेहरिस्त काफ़ी लम्बी है।

सय्यद अकबर हुसैन इलाहाबादी 16 नवंबर 1846 ई. को ज़िला इलहाबाद के क़स्बा बारह में पैदा हुए। वालिद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन नायब तहसीलदार थे। अकबर की आरंभिक शिक्षा घर पर हुई। आठ नौ बरस की उम्र में उन्होंने फ़ारसी और अरबी की पाठ्य पुस्तकें पढ़ लीं। फिर उनका दाख़िला मिशन स्कूल में कराया गया। लेकिन घर के आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की वजह से उनको स्कूल छोड़कर पंद्रह साल की ही उम्र में नौकरी तलाश करना पड़ी। उसी कम उम्री में उनकी शादी भी ख़दीजा ख़ातून नाम की एक देहाती लड़की से हो गई लेकिन बीवी उनको पसंद नहीं आईं। उन्होंने एक तवाएफ़ बूटा जान से शादी भी कर ली लेकिन उसका जल्द ही इंतिक़ाल हो गया जिसका अकबर को सदमा रहा। अकबर ने कुछ दिनों रेलवे के एक ठेकेदार के पास 20 रुपये माहवार पर नौकरी की फिर कुछ दिनों बाद वो काम ख़त्म हो गया। उसी ज़माने में उन्होंने अंग्रेज़ी में कुछ महारत हासिल की और 1867 ई. में वकालत का इम्तिहान पास कर लिया। उन्होंने तीन साल तक वकालत की जिसके बाद वो हाईकोर्ट के मिसिल ख़वाँ बन गए। उस अरसे में उन्होंने जजों-वकीलों और अदालत की कार्यवाईयों को गहराई के साथ समझा। 1873 ई. में उन्होंने हाईकोर्ट की वकालत का इम्तिहान पास किया और थोड़े ही अरसे में उनकी नियुक्ति मुंसिफ़ के पद पर हो गई। ।1888 ई.में उन्होंने सबार्डीनेट जज और फिर में ख़ुफ़िया अदालत के जज के पद पर तरक्क़ी पाई और अलीगढ़ सहित विभिन्न स्थानों पर उनके तबादले होते रहे।1905 ई.में वो सेशन जज के ओहदे से रिटायर हुए और बाक़ी ज़िंदगी इलाहाबाद में गुज़ारी। रिटायरमेंट के बाद उनकी दूसरी बीवी ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहीं। अकबर इस सदमे से सँभल नहीं पाए थे कि दूसरे बीवी के से पैदा होने वाला उनका जवाँ-साल बेटा, जिससे उनको बहुत मुहब्बत थी, चल बसा। इन दुखों ने उनको पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया और वो निरंतर बीमार रहने लगे। फ़ातिमा सोग़रा से अपने दूसरे बेटे इशरत हुसैन को उन्होंने लंदन भेज कर शिक्षा दिलाई। पहली बीवी ख़दीजा ख़ातून 1920 ई. तक ज़िंदा रहीं लेकिन उनको “इशरत मंज़िल” में क़दम रखने की कभी इजाज़त नहीं मिली। 1907 ई. में सरकार ने अकबर को “ख़ान बहादुर” का ख़िताब दिया और उनको इलाहाबाद युनिवर्सिटी का फ़ेलो भी बनाया गया। अकबर का 9 सितंबर1921ई. को देहांत हुआ। 

अकबर को उर्दू शायरी में हास्य-व्यंग्य का बादशाह माना जाता है। उनसे पहले उर्दू शायरी में तंज़-ओ-मज़ाह, रेख़्ती या निंदा की शायरी के सिवा, कोई अहमियत और तसलसुल नहीं हासिल कर सका था। अकबर ने तेज़ी से बदले हुए ज़माने को सावधान करने के लिए हास्य-व्यंग्य का नया विधान अपनाया। अकबर के व्यंग्य का उद्देश्य तफ़रीह नहीं बल्कि उसमें एक ख़ास मक़सद है। अकबर की दूर-अँदेश निगाहों ने देखा कि दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है और इस वक़्त जो समुदाय पैदा हो रहा है उसको पश्चिमीलोभ बहाए लिए जा रही है और लोग अपनी हिन्दुस्तानी मुलयों को तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगे हैं। उन्होंने अपनी शायरी को मुल्क व राष्ट्र की सेवा की तरफ़ मोड़ते हुए एक नया अंदाज़ इख़्तियार किया जिसमें वैसे तो ठिठोल और हास्य है लेकिन उसके अन्तःकरण में नसीहत और आलोचना है। वो अपनी शायरी को जिस रुख पर और जिस उद्देश्य के लिए लेकर चल रहे थे उसके लिए ज़रूरी था कि लब-ओ-लहजा नया, दिलकश और मनपसंद हो। ये एक ऐसे शख़्स का कलाम है जिसके चेहरे पर शगुफ़्तगी और ठिठोली के आसार हैं मगर आवाज़ में ऐसी आँच है जो हास्य को पिघला कर, दिलनशीं होने तक, गंभीरता का दर्जा अता कर देती है। अकबर के तंज़ का लक्ष्य कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता। हर व्यक्ति प्रथमतः यही समझता है कि तंज़ किसी और की तरफ़ है लेकिन हंस चुकने के बाद ज़रा ग़ौर करने के बाद एहसास होता है कि अकबर ने हम सभों को मुख़ातिब किया था और जिसको हम मज़ाक़ समझ रहे थे उसकी तह में तन्क़ीद-ओ-नसीहत है। बात को इस नतीजे तक पहुंचाने में अकबर ने बड़ी कारीगरी से काम लिया है। अकबर ने उर्दू शायरी के उपेक्षित गोशों को पुर किया, अपने दौर के तक़ाज़ों को पूरा किया और भविष्य के शायरों के लिए नई राहें हमवार कीं। उनकी शायरी की अहमियत उनकी शायरी की ख़ूबीयों से बढ़कर है।

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जौहर, मोहम्मद अ’ली (1878-1931) रामपुर में पैदाइश। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में ता’लीम हासि ल की। ‘कामरेड’ और ‘हमदर्द’ नाम के अख़बार नि काले। अंग्रेजी
के बड़े लेखकों में शुमार होते थे। आज़ा दी की लड़ाई में महात्मा गाँधी के साथ रहे और इंडि यन नेशनल काँग्रेस के अध्यक्ष भी बनाए गए। शाइ’री में मिर्ज़ा ‘दाग़’ देहलवी के शागिर्द थे।

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