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लेखक : फ़ानी बदायुनी

संपादक : ज़हीर अहमद सिद्दीक़ी

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : तरक़्क़ी उर्दू ब्यूरो, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 1992

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : कुल्लियात

पृष्ठ : 319

सहयोगी : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

कुल्लियात-ए-फ़ानी
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पुस्तक: परिचय

زیر نظر "کلیات فانی "ہے۔ جس میں ان کی غزلیات اردو، غزلیات فارسی، قصائد، نظمیں، قطعات اور رباعیات وغیرہ شامل ہے۔ اس کلیات کو ظہیر احمد صدیقی نے مرتب کیا ہے۔ انہوں نے اپنےمقدمہ کے ذریعہ فانی کے فن اور جدید غزل پر تفصیلی روشنی ڈالی ہے۔ در اصل جدید غزل گو شعرا میں فانی کو کئی اعتبار سے امتیاز حاصل ہے۔ انھوں نے ایک طرف اردو غزل کو جذبہ کی شدت اور خیالات کی گہرائی عطا کرکے غزل کو نئی بلندیوں سے آشنا کردیا ہے۔ دوسری طرف ان کے یہاں زبان و بیان کی نزاکتیں اور کلاسکی حسن بھی موجود ہے۔ان کے فلسفیانہ اور صوفیانہ افکار نے شاعری کو مالا مال کیا اورمنفرد لب ولہجہ نے اردو شاعری کو ایک نئی آواز دی ہے۔ ان کی غزلوں میں فارسی تراکیب اور الفاظ ،فلسفہ ،تصوف اور زندگی کے دوسرے تصورا ت اور مسائل کی فروانی ہے۔

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लेखक: परिचय

फ़ानी को निराशावाद का पेशवा कहा जाता है। उनकी शायरी दुख व पीड़ा की शायरी है। ये अजीब बात है कि उर्दू ग़ज़ल बुनियादी तौर पर इश्क़ और इस तरह विरह की निराशावादी शायरी होने के बावजूद, दुख की शिद्दत को  शिखर तक पहुंचाने के लिए फ़ानी की प्रतीक्षा करती रही। मीर तक़ी मीर के बारे में भी कहा गया है कि वो दर्द-ओ-ग़म के शायर थे। लेकिन फ़र्क़ ये है मीर के शे’र दिल को छूते हैं, दिल में उतरते भी हैं लेकिन “वाह” की शक्ल में दाद वसूल किए बग़ैर नहीं रहते, जबकि फ़ानी के बारे में कहा गया है कि जब वो अपनी दुख भरी आवाज़ में ग़ज़ल पढ़ते थे तो सुननेवालों पर ऐसा असर होता था कि कभी-कभी वो दाद देना भूल जाते थे। बात ये है कि दूसरे शायर इश्क़ के बयान में महबूब के हुस्न का ज़िक्र करते हैं, उसके मिलन की आरज़ू करते हैं, जुदाई का शिकवा करते हैं या विरह की यातनाओं का वर्णन करते हैं जबकि फ़ानी का माशूक़ ख़ुद उनका अपना ग़म था या फिर अपनी ज़ात से मनोविज्ञान की भाषा में स्व-यातना या यातना को कह सकते हैं लेकिन जब हम किसी कला का परीक्षण करते हैं तो कलाकार का व्यक्तित्व गौण होकर रह जाता है,असल बहस उसकी कला से होती है। फ़ानी का कमाल ये है कि उन्होंने ग़म-परस्ती को जिसे एक नकारात्मक प्रवृत्ति को कल्पना के शिखर तक पहुंचा दिया कि इस मैदान में उन जैसा कोई दूसरा नहीं।

फ़ानी बदायूनी का नाम शौकत अली ख़ां था, पहले शौकत तख़ल्लुस करते थे, बाद में फ़ानी पसंद किया। वो अफ़ग़ानी नस्ल से थे और उनके पूर्वज बहुत बड़ी जागीर के मालिक थे जो उनसे 1857 ई. के हंगामों के बाद अंग्रेज़ों ने छीन ली और सिर्फ़ मामूली ज़मींदारी बाक़ी रही। फ़ानी के वालिद शुजाअत अली ख़ान इस्लाम नगर, बदायूं में थानेदार थे। वहीं 1879 ई. में  फ़ानी पैदा हुए। आरम्भिक शिक्षा घर और मकतब में हुई फिर 1892 ई. में  गर्वनमेंट स्कूल में दाख़िला लिया और1897 ई. में  एंट्रेंस का इम्तिहान पास करके 1901 ई. में  बरेली कॉलेज से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। फ़ानी ने ग्यारह साल की उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थी और 1898 ई. में उनका पहला दीवान संकलित हो गया था लेकिन वो इस शग़ल को घर वालों से छुपाए हुए थे क्योंकि उनके वालिद बहुत सख़्तगीर थे और उनको शायरी से बड़ी नफ़रत थी। उन्होंने फ़ानी को सख़्ती से मना किया कि वो इस शग़ल से बाज़ आजाऐं लेकिन जब फ़ानी का शायरी का चसका नहीं छूटा तो उन्होंने उनका दीवान जला दिया। लिहाज़ा कुछ नहीं मालूम कि फ़ानी की शुरू की शायरी का क्या रंग था। घर से दूर बरेली पहुंच कर जब कोई रोक-टोक न रही तो फ़ानी ने खुल कर शायरी की। कॉलेज के साथी ज़िद कर के उनसे ग़ज़लें कहलवाते और कभी कभी उनको कमरे में बंद कर देते जिससे रिहाई उनको ग़ज़ल कहने के बाद ही मिलती। बरेली की तालीम मुकम्मल करके फ़ानी बदायूं लौटे तो उनके लिए अच्छी ख़बर नहीं थी, उनकी शादी बचपन में ही उनकी ताया ज़ाद बहन से तय थी। लड़की वाले जल्द शादी का आग्रह कर रहे थे और फ़ानी बी.ए. मुकम्मल कर के ही शादी करना चाहते थे। नतीजा ये हुआ कि उस लड़की की शादी कहीं और कर दी गई और कुछ दिनों बाद उसका देहांत हो गया। फ़ानी के लिए ये एक बड़ा सदमा था क्योंकि दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। फ़ानी ने अपनी नौकरी का सिलसिला वज़ीर आबाद हाई स्कूल में पठन-पाठन से शुरू किया लेकिन जल्द ही तबीयत उचाट हो गई और इस्तीफ़ा दे दिया। फिर एक स्कूल की ही नौकरी के लिए इटावा चले गए और वहां नूर जहां नामी एक तवाएफ़ से सम्बंध बना लिए लेकिन जल्द ही उन्हें इटावा भी छोड़ना पड़ा क्योंकि उनकी नियुक्ति सब इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल की हैसियत से गोंडा में हो गई थी। गोंडा में भी दूसरी जगहों की तरह फ़ानी ने दो ही काम किए, यानी गौहर जान नामी एक तवाएफ़ से इश्क़ और दूसरा नौकरी छोड़ना। अब उन्होंने एल.एलबी. करने की ठानी और अलीगढ़ में दाख़िला ले लिया। अलीगढ़ वो जगह थी जहां फ़ानी की काव्य चिंतन पर ग़ालिब और मीर के गहरे छाप अंकित हुए। हाली की ‘यादगार-ए-ग़ालिब’ और अबदुर्रहमान बिजनौरी की ‘मुहासिन-ए-ग़ालिब’ ने अलीगढ़ वालों को अपने तिलिस्म में जकड़ रखा तो दूसरी तरफ़ हसरत क्लासिकी अदब के पुनरुद्धार की मुहिम चलाए हुए थे और उर्दू ग़ज़ल की तन्क़ीद मीर की वापसी में मसरूफ़ थी, अलीगढ़ से फ़ुर्सत पाने के बाद फ़ानी ने लखनऊ में प्रैक्टिस शुरू की और उनको इतने मुक़द्दमात मिलने लगे कि ग़ैर अहम मुक़द्दमात दूसरे वकीलों को देने लगे। इसी अर्से में बदायूं में सेशन अदालत स्थापित हुई तो वो बदायूं चले गए। बदायूं में नए ग़म उनके इंतिज़ार में थे। एक साल के अंदर ही उनके वालिद और वालिदा दोनों का इंतिक़ाल हो गया। ये दुख फ़ानी के लिए बहुत जान लेवा थे, उनका दिल बैठ गया, वकालत से दिल उचाट हो गया। माँ-बाप के छोड़े गए रुपयों से कुछ दिन घर चला फिर साहूकार से क़र्ज़ लेने की नौबत आ गई। हौसले और वलवले की कमी और तबीयत के लापरवाही फ़ानी को व्यवहारिक जीवन से बचने की राह दिखाई और उन्होंने कल्पना व भावना की एक दुनिया बसा ली और उसी की सैर में मगन हो गए। वो दुबारा लखनऊ गए और प्रैक्टिस से ज़्यादा शायरी करते रहे। उनको वकालत से दिलचस्पी ही नहीं थी, कहते थे कचहरी और पाख़ाने मजबूरन जाता हूँ। जोश मलीहाबादी का कहना है, “उनकी वकालत कभी न चली। इसलिए कि वो शेर-ख़्वानी और दिल की राम कहानी का सिलसिला वो तोड़ नहीं सकते थे उसका क़ुदरती नतीजा ये निकला कि ग़म-ए-दौरां के साथ ग़म-ए-जानाँ ने भी रही सही कसर पूरी कर दी, उनका ज़ौक़-ए-सुख़न उभरता और शीराज़-ए-वकालत बिखरता गया। और ग़रीब को पता भी न चला कि मेरी अर्थव्यवस्था का धारा एक बड़े रेगिस्तान की तरफ़ बढ़ता चला जा रहा है। वो प्रैक्टिस की जगहें बदलते रहे लेकिन नतीजा हर जगह वही था। घूम फिर कर वो एक-बार फिर लखनऊ पहुंचे और इस बार ग़म-ए-दौरां के साथ वहां ग़म-ए-जानाँ भी उनका मुंतज़िर था। ये तक़्क़न नाम की एक तवाएफ़ थी जो एक रईस के लिए समर्पित थी। जोश के शब्दों में आर्थिक तंगी के साथ साथ बेचारे के मआशक़ा में भी फ़साद प्रगट होने लगा, अतः वही हुआ जो होना था। एक तरफ़ तो आर्थिक जीवन की नब्ज़ें छूटीं और दूसरी तरफ़ आशिक़ाना ज़िंदगी में एक रक़ीब रूसियाह प्रतिद्वंद्वी के हाथों ऐसा ज़लज़ला आया कि उनकी पूरी ज़िंदगी का तख़्ता ही उलट कर रह गया। काँपते हाथों से बोरिया-बिस्तर बांध कर लखनऊ से आगरा चले गए।” फ़ानी जगह जगह क़िस्मत आज़माते रहे और हर जगह मुसीबत और इश्क़ उनके साथ लगे रहे। इटावा में वो नूर जहां की ज़ुल्फ़ गिरह-गीर के क़ैदी हुए लेकिन कुछ दिन बाद उसने आँखें फेर लीं। आख़िर में फ़ानी हैदराबाद चले गए जहां महा राजा किशन प्रशाद शाद उनके प्रशंसक थे। फ़ानी ने अपनी ज़िंदगी के कुछ बेहतरीन और आख़िरकार बदतरीन दिन हैदराबाद में गुज़ारे। जवान बेटी और फिर बीवी का दाग़ देखा और निहायत बेकसी और लाचारी में 1941 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया।

फ़ानी की सारी ज़िंदगी एक लम्बी त्रास्दी की कहानी रही। वो शदीद नर्गिसीयत के शिकार थे और चाहे जाने की बेलगाम हवस उनका पीछा नहीं छोड़ती थी। स्वभाव में पठानों वाली ज़िद थी जो सुधारने वाली नहीं थी और अपनी तबाही का जश्न मनाना भी इसी रवय्ये का एक हिस्सा था। उनको ज़िंदगी में बेशुमार मौके़ मिले और उन सबको उन्होंने अपने ग़मों से इश्क़ करने के लिए गंवा दिया। शायद क़ुदरत को उनसे यही काम लेना था कि वो उर्दू ग़ज़ल को ऐसी शायरी दे जाएं जो उनसे पहले नहीं देखी गई और ग़ज़ल को एक नया मोड़ दें, फ़ानी ने सामग्री और शैली दोनों एतबार से ग़ज़ल को नया विस्तार और नई सुविधाएं दीं। फ़ानी की शायरी इश्क़, ग़म, तसव्वुफ़ और सृष्टि के रहस्य की धुरी पर घूमती है। कह सकते हैं कि इश्क़ की बदौलत फ़ानी ग़म से दो-चार हुए जो उनको तसव्वुफ़ तक ले गया और तसव्वुफ़ ने सृष्टि के रहस्य से पर्दा उठाया। फ़ानी के यही विषय पारंपरिक नहीं बल्कि उन्होंने उन पर हर पहलू से ग़ौर किया, उन्हें महसूस किया फिर शे’री जामा पहनाया। ग़म और उसके आवशयकताओं पर फ़ानी ने जो कुछ लिखा वो उर्दू ग़ज़ल का शाहकार है।

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