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लेखक : मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

संपादक : नूरुल हसन नक़वी

प्रकाशक : सय्यद इम्तियाज़ अली ताज, मज्लिस-ए-तरक़्क़ी-ए-अदब, लाहौर

प्रकाशन वर्ष : 1968

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : दीवान, कुल्लियात

पृष्ठ : 680

सहयोगी : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

कुल्लियात-ए-मुसहफ़ी
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लेखक: परिचय

ये हैं ग़ुलाम हमदानी मुसहफ़ी, जिनके काव्य परिचय के लिए ये अशआर काफ़ी हैं;
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुलमात निकली
मैं जब आँख खोली बड़ी रात निकली
 
आस्तीं उसने जो कुहनी तक उठाई वक़्त-ए-सुब्ह
आ रही सारे बदन की बेहिजाबी हाथ में
 
शब इक झलक दिखा कर वो मह चला गया था
अब तक वही समां है गुर्फ़ा की जालियों पर 
और 
मुसहफ़ी हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला

ग़ुलाम हमदानी नाम, मुसहफ़ी तख़ल्लुस था। अक्सर तज़किरा लिखनेवालों ने उनका जन्म स्थान अमरोहा लिखा है लेकिन मुहज़्ज़ब लखनवी मीर हसन के हवाले से कहते हैं कि वो दिल्ली के क़रीब अकबरपुर में पैदा हुए। उनका बचपन बहरहाल अमरोहा में गुज़रा। मुसहफ़ी के बाप-दादा ख़ुशहाल थे और हुकूमत के उच्च पदों पर नियुक्त थे लेकिन सलतनत के पतन के साथ ही उनकी ख़ुशहाली भी रुख़सत हो गई और मुसीबतों ने आ घेरा। मुसहफ़ी की सारी ज़िंदगी आर्थिक तंगी में गुज़री और रोज़गार की चिंता उनको कई जगह भटकाती रही। वो दिल्ली आए जहां उन्होंने आजीविका की तलाश के साथ साथ विद्वानों की संगत से फ़ायदा उठाया। आजीविका की तलाश में वो आँवला गए फिर कुछ अर्सा टांडे और एक साल लखनऊ में रहे। वहीं उनकी मुलाक़ात सौदा से हुई जो फ़र्रुख़ाबाद से लखनऊ चले गए थे। सौदा से वो बहुत प्रभावित हुए। इसके बाद वो दिल्ली वापस आ गए। मुसहफ़ी के पास शैक्षिक योग्यता ज़्यादा नहीं थी लेकिन तबीयत उपुक्त पाई थी और शायरी के ज़रिये अपना कोई मुक़ाम बनाना चाहते थे। वो नियमित रूप से मुशायरों में शिरकत करते और अपने घर पर भी मुशायरे आयोजित करते। दिल्ली में उन्होंने दो दीवान संकलित कर लिए थे जिनमें से एक चोरी हो गया; 
ऐ मुसहफ़ी शायर नहीं पूरब में हवा में 
दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया है
बारह साल दिल्ली में रह कर जब वो दुबारा लखनऊ पहुंचे तो शहर का नक़्शा ही कुछ और था।

आसिफ़उद्दौला का दौर दौरा था जिनकी उदारता के डंके बज रहे थे। हर कला के माहिर लखनऊ में जमा थे। सौदा मर चुके थे, मीर तक़ी मीर लखनऊ आ चुके थे। मीर हसन लखनऊ में आबाद थे। मीर सोज़ और जुरअत के सिक्के जमे हुए थे। उन लोगों के होते मुसहफ़ी को दरबार से कोई लाभ नहीं पहुंचा। वो दिल्ली के शहज़ादे सुलेमान शिकोह की सरकार से सम्बद्ध हो गए। सुलेमान शिकोह ने लखनऊ में ही रिहाइश इख़्तियार कर ली थी। शायरी में उन्होंने मुसहफ़ी को उस्ताद बना लिया और 25 रुपये माहवार वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया। लेकिन उसी ज़माने में सय्यद इंशा लखनऊ आ गए और सुलेमान शिकोह को शीशे में उतार लिया और वो इंशा से ही इस्लाह लेने लगे।

इंशा लखनऊ में मुसहफ़ी के विरोधी और प्रतिद्वंद्वी थे। उनकी नोक झोंक मुशायरों से निकल कर सड़कों तक आ गई थी। मुसहफ़ी ने लखनऊ में शागिर्दों की बड़ी तादाद जमा कर ली थी। दूसरी तरफ़ इंशा की प्रवृति लतीफ़ागोई, हाज़िर जवाबी, शोख़ी और हास्य की प्रतिमा थी। मुसहफ़ी उनकी चुटकियों का, जो विरोधी को रुला दें, मुक़ाबला नहीं कर सकते थे। साल दर साल दोनों में नोक झोंक जारी रही और जब बात ज़्यादा बढ़ी तो सुलेमान शिकोह खुल कर इंशा के तरफ़दार बन गए। जब मुसहफ़ी के शागिर्दों ने एक स्वाँग (उपहासात्मक जलूस) इंशा के ख़िलाफ़ निकालने की योजना बनाई तो उन्होंने कोतवाल से कह कर उसे रुकवा दिया और नाराज़ हो कर मुसहफ़ी का वज़ीफ़ा भी घटा कर पाँच रुपये माहाना कर दिया। ये मुसहफ़ी के लिए बड़े अपमान की बात थी जिसका शिकवा उन्होंने अपने इन अशआर में किया है;
ऐ वाए कि पच्चीस से अब पाँच हुए हैं
हम भी थे किन्हों वक़्तों में पच्चीस के लायक़
उस्ताद का करते हैं अमीर अब के मुक़र्रर
होता है जो दर माहा कि साईस के लायक़ ۔
यहां तक कि दुखी हो कर मुसहफ़ी ने लखनऊ छोड़ देने का इरादा किया और कहा; 
जाता हूँ तिरे दर से कि तौक़ीर नहीं याँ
कुछ उसके सिवा अब कोई तदबीर नहीं याँ
ए मुसहफ़ी बे लुत्फ़ है इस शहर में रहना 
सच है कि कुछ इन्सान की तौक़ीर नहीं याँ 
लेकिन लखनऊ से निकलना तक़दीर में नहीं था, वहीं देहांत हुआ।
 
मुसहफ़ी ने अपने पीछे आठ दीवान उर्दू के, एक दीवान फ़ारसी का, एक तज़किरा फ़ारसी शायरों का और दो तज़किरे उर्दू शायरों के छोड़े। मुसहफ़ी का बहुत सा कलाम हम तक नहीं पहुंचा क्योंकि एक वक़्त उन पर ऐसा भी आया कि वो आर्थिक तंगी से परेशान हो कर शे’र बेचने लगे थे। हर मुशायरे के लिए बहुत सी ग़ज़लें कहते और लोग आठ आने एक रुपया या इससे ज़्यादा देकर अच्छे अच्छे शे’र छांट ले जाते, जो बचता ख़ुद अपने लिए रख लेते। मुहम्मद हुसैन आज़ाद के मुताबिक़ जब एक मुशायरे में बिल्कुल दाद न मिली तो उन्होंने तंग आकर ग़ज़ल ज़मीन पर दे मारी और कहा कि "वाए फ़लाकत स्याह, जिसकी बदौलत कलाम की ये नौबत पहुंची कि अब कोई सुनता नहीं।" 
शहर में इस बात की चर्चा हुई तो खुला कि उनकी ग़ज़लें बिकती हैं। शागिर्दों की तादाद इतनी ज़्यादा थी कि उनको उस्तादों का उस्ताद कहा जाये तो ग़लत नहीं। आतिश, असीर, मीर ख़लीक़ वग़ैरा सब इन ही के शागिर्द थे।
मुसहफ़ी मीर और सौदा के बाद ख़ुद को सबसे बड़ा शायर समझते थे और अपनी उस्तादी का सिक्का जमाना उनकी आदत थी। ख़्वाजा हैदर अली आतिश उनके शागिर्द थे। एक दिन आतिश ने एक मुशायरे में ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तरह “दहन बिगड़ा”, “कफ़न बिगड़ा” थी और उस्ताद के सामने जब ये शे’र पढ़ा, 
लगे मुँह भी चिढ़ाने देते-देते गालियां साहिब
ज़बां बिगड़ी तो बिगड़ी थी ख़बर लीजे दहन बिगड़ा

तो ये भी कह बैठे कि ऐसा शे’र कोई दूसरा निकाले तो कलेजा मुँह को आ जाये। मुसहफ़ी ने हंसकर कहा, "मियां, सच कहते हो,” और इसके बाद इक नौ मश्क़ शागिर्द की ग़ज़ल में ये शे’र बढ़ा दिया, 
“न हो महसूस जो शय किस तरह नक़्शे में ठीक उतरे
शबीह-ए-यार खिंचवाई, कमर बिगड़ी दहन बिगड़ा”

जब लड़के ने मुशायरे में शे’र पढ़ा तो आतिश ने मुसहफ़ी के क़रीब आकर ग़ज़ल फेंक दी और कहा, "आप कलेजे पर छुरियां मारते हैं, इस लड़के की क्या हैसियत कि ऐसा शे’र कहे।” इस वाक़िया से मुसहफ़ी की कलाम पर महारत ज़ाहिर होती है।
मुसहफ़ी के बारे में आम तौर पर कहा जाता है कि उनका अपना कोई ख़ास रंग नहीं। कभी वो मीर की तरह, कभी सौदा की तरह और कभी जुरअत की तरह शे’र कहने की कोशिश करते हैं लेकिन अपने शे’रों में वो इन सबसे पीछे रह जाते हैं। बात ये है कि अपना रंग तलाश करने के लिए जिस निश्चिंतता और एकाग्रता की ज़रूरत है वो उनको कभी नसीब ही नहीं हुई। कहने की अधिकता ने उनके क़ीमती नगीनों को ढक लिया फिर भी जिन लोगों ने उनके कलाम को ध्यान से पढ़ा है वो उनसे प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहे।
हसरत मोहानी ने कहा है, “मीर तक़ी के रंग में मुसहफ़ी मीर हसन के हम पल्ला हैं, सौदा के अंदाज़ में इंशा के हम पल्ला और जाफ़र अली हसरत की तर्ज़ में जुरअत के हमनवा हैं लेकिन बहैसियत मजमूई इन सब हमअसरों से ब एतबार कमाल सुख़नदानी-ओ-मश्शाक़ी बरतर हैं...  मीर व मीरज़ा के बाद कोई उस्ताद उनके मुक़ाबले में नहीं जचता।”
गुल-ए-राना के संपादक हकीम अब्दुल हई  के अनुसार, “उनकी हमागीर शख़्सियत ने किसी ख़ास रंग पर क़नाअत नहीं की। उनके कलाम में कहीं मीर का दर्द है, कहीं सौदा का अंदाज़, कहीं सोज़ की सादगी और जहां कहीं उनकी कुहना मश्की और उस्तादी अपने पूर्ववर्तियों की ख़ूबीयों को यकजा कर देती है वहां वो उर्दू शायरी का बेहतरीन नमूना क़रार दिए जा सकते हैं।”

निसार अहमद फ़ारूक़ी बहरहाल मुसहफ़ी के बारे में इस आम ख़्याल से कि उनका अपना कोई रंग, कोई व्यक्तिगत शैली नहीं, विरोध करते हुए कहते हैं, “अगर हम इस मर्कज़ी और स्थायी विशेषता का वर्णन करना चाहें जो मीर व सौदा के मुख़्तलिफ़ अंदाज़ों को उड़ाते हुए भी, मुसहफ़ी के अंतर्ज्ञान व वाणी में जारी व सारी है, तो उसे हम एक रचा हुआ मध्यम कह सकते हैं, एक गेय अवस्था। अगर मीर के यहां मध्याह्न के सूर्य की पिघला देने वाली आँच है तो सौदा के यहां उसकी सार्वभौमिक रोशनी है। लेकिन सूरज ढल जाने के बाद तीसरे पहर को गर्मी और रोशनी के एक नए संयोजन से जो मध्यम स्थिति पैदा होती है वो मुसहफ़ी के कलाम की विशेषता है। मुसहफ़ी के यहां शबनम की नर्मी और और शोला-ए-गुल की गर्मी का ऐसा संयोजन है जो उसकी ख़ास अपनी चीज़ है। उसके नग़मों की शबनम से धुली हुई पंखुड़ियां उन रंग बिरंगे फूलों का नज़ारा कराती हैं जिनकी रगें दुखी हुई हैं और जिनकी चटियल मुस्कुराहट से भीनी भीनी दर्द की महक आती है।
समग्ररूप से मुसहफ़ी ऐसे शायर हैं जिनको ज़िंदगी ने खुल कर हँसने का मौक़ा दिया न खुल कर रोने का, फिर भी वो अपने पीछे शायरी का वो सरमाया छोड़ गए, जो उनके शाश्वत जीवन का ज़मनातदार है।

 

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