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लेखक: परिचय

नवाब मरदान अली ख़ान का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के भट्टी मुहल्ला के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. ये यूसुफ़ज़ई पठान थे. इनके बुज़ुर्ग मुग़ल सल्तनत और अवध रियासत में अच्छे पदों पर रहे. इनकी अरबी-फ़ारसी की शिक्षा घर पर ही हुई. 1850 में रावलपिंडी में सरकारी पद पर आसीन हुए. लेकिन नौकरी से ख़ुश नहीं थे, सो 1858 में इन्होने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया. लगभग एक साल बाद मालेरकोटला चले गए, जहाँ नवाब साहब ने इन्हें वज़ीर-ए-आज़म नियुक्त किया. इसके बाद कपूरथला चले गए जहाँ कुछ समय बाद वहाँ के महाराजा शिवदान सिंह ने उन्हें "निज़ामुद्दौला मुन्तज़िम उल मुल्क नवाब मुहम्मद मरदान अली ख़ान बहादुर तख़्त क़ायम जंग" का ख़िताब दिया और मारवाड़ का वज़ीर-ए-आज़म नियुक्त किया. 1876 में सभी पदों से इस्तीफ़ा देकर ये हज करने चले गए. समस्त जीवन अविवाहित रहे. 2 जून, 1879 को श्रीनगर(कश्मीर) में इनका इन्तेक़ाल हुआ और फिर वहीँ दफ़न किए गये.

अपने समय में इन्होने कई प्रमुख सड़कें बनवायीं और टकसाल(सरकारी सिक्के बनाने के कारखाने) क़ायम किए. नयी-नयी चीज़ें खोजना इन्हें बहुत पसंद था. अपने वक़्त में इन्होने कई क़ीमती और दुर्लभ पत्थर खोजे. इसके अलावा मारवाड़ की दीवानी के ज़माने में भी कई चीज़ें खोजीं, जिनमें चाँदी, लोहा, मिस प्रमुख हैं.

ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. इन्होने शायरी के अलावा संगीत, भागौलिक विज्ञान, इतिहास, तिलिस्मी ज्ञान, हिप्नोटिस्म आदि पर भी कई किताबें लिखीं. हिप्नोटिस्म पर लिखी इनकी किताबें 'तिलिस्म-ए-नज़र' और 'सीर-ए-ग़ायत' अपने आप में उर्दू की शायद पहली किताबें हैं(बक़ौल मालिक राम जी).

शायरी में मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेते थे. ग़ालिब के इन्तेक़ाल के बाद इन्होने मुंशी मुज़फ्फ़र अली 'असीर' लखनवी, जो अमीर मिनाई के उस्ताद थे, से इस्लाह ली.

इनके नाम मिर्ज़ा ग़ालिब के दो ख़त भी 'ख़ुतूत-ए-ग़ालिब' में मौजूद हैं, जिनमें ग़ालिब ने इनके कलाम की तारीफ़ करते हुए कहा-"आज इस हुनर में तुम यक्ता(अद्वितीय) हो". इसके अलावा एक ख़त अवध प्रेस के संपादक के नाम भी है जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब ने मरदान अली ख़ान की बहादुरी का ज़िक्र किया है जब इन्होने एक शेर को पकड़ा था.

अतिया बेगम भारतीय संगीत की एक बेहद मशहूर विदुषी गुज़री हैं, उन्होंने 1942 में छपी अपनी एक मशहूर किताब "संगीत ऑफ़ इंडिया" में पेज नंबर-8 पर मरदान अली ख़ान की संगीत विषय पर लिखी किताब "ग़ुन्चा-ए-राग"(संगीत)(1863)(मुंशी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ) का ज़िक्र किया है.

मिर्ज़ा ग़ालिब पर शोध करने वाले मशहूर विद्वान् मलिक राम जी ने भी अपनी किताब "तलामिज़ा-ए-ग़ालिब" में ग़ालिब के शागिर्दों में पेज नंबर 281 से 284 तक इनका ज़िक्र किया है.

इन्होने उर्दू और फ़ारसी दोनों ही में शायरी की. इन्होने प्रमुख रूप से ग़ज़ल, नज़्म, हम्द, नात, सलाम, मनक़बत, वासोख़्त, मुख़म्मस, क़सीदे, रुबाई, सेहरा आदि विधाओं में शायरी की.

इन्होने अपनी शायरी में सबसे पहले 'मुज़्तर' तख़ल्लुस(उपनाम) इस्तेमाल किया, फिर इसके बाद 'राना' तख़ल्लुस कर लिया जो कि इनकी ज़्यादातर ग़ज़लों में मिलता है. फिर निज़ामुद्दौला की उपाधि मिलने के बाद 'निज़ाम' तख़ल्लुस अपनाया. इस बात को इन्होंने अपनी एक रुबाई में समझाया है:

आग़ाज़-ए-सुख़नवरी में 'मुज़्तर' था नाम

'राना' था शबाब-ए-शायरी के हंगाम

है ज़ेर-ए-नगीं जो किश्वर-ए-नज़्म तो अब

नवाब ख़िताब और तख़ल्लुस है 'निज़ाम'   [कुल्लियात-ए-निज़ाम (पेज-1)] 

 

(आग़ाज़-ए-सुख़नवरी - शायरी की शुरुआत; शबाब-ए-शायरी - शायरी का चरम; हंगाम - समय; ज़ेर-ए-नगीं - ज़िम्मेदारी; किश्वर-ए-नज़्म - मुख्य प्रशासक; तख़ल्लुस - उपनाम)

 

इनकी शायरी में मिर्ज़ा ग़ालिब और असीर लखनवी दोनों ही उस्तादों का प्रभाव नज़र आता है. प्रमुखतः इनकी शायरी रूमानी, सूफ़ियाना और रिवायती है, जिसमें मुहावरे व कहावतें भरपूर मात्रा में हैं, साथ ही अलग-अलग उपमाओं का भी ख़ूबसूरती के साथ प्रयोग किया है, जिससे अशआर अति-प्रवाहमय और बेहद आकर्षक जान पड़ते हैं. 

इसके अलावा इन्होने अपने समय की शायरी की रिवायतों को तोड़ते हुए हिंदी और ख़ासकर अंग्रेज़ी के शब्दों का भी ख़ूब प्रयोग किया है जो कि इनकी शायरी को अनूठा-अद्वितीय बनाता है. उदहारण के तौर पर:

खींचा है अक्स क़ल्ब की "फ़ोटोग्राफ़" में

शीशे में है शबीह, परी कोहक़ाफ़ में         [कुल्लियात-ए-निज़ाम (पेज-26)] 

 

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