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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : शिबली नोमानी

प्रकाशक : मतबा मआरिफ़, आज़मगढ़

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : कुल्लियात

पृष्ठ : 126

सहयोगी : तलअत ज़मानी बेगम

कुल्लियात-ए-शिबली
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पुस्तक: परिचय

شبلی نعمانی بہ یک وقت مورخ ادیب ماہر تعلیم اور جامع کمالات ضرور تھے مگر وہ فطری اعتبار سے ایک شاعر بھی تھے۔ چنانچہ ان کی فکر کا پہلا قدم میدان شعر ہی میں پڑا۔ آغاز شباب سے ہی شعر کہنے لگے تھے۔زیر نظر کتاب علامہ شبلی کی کلیات ہے ، جس میں علامہ شبلی کی اردومثنوی ، قصائد ، مسدس ،اخلاقی ، مذہبی اور سیاسی نظمیں شامل ہیں ۔شبلی نعمانی کے فارسی مجموعہ کلام ابتداء میں دستہ گل ، بوئے گل ، اور برگ گل جیسے ناموں سے شائع ہوچکے ہیں لیکن یہ شبلی کے اردو کلام کا کلیات ہے۔

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लेखक: परिचय

‘’उर्दू अदब की महान हस्तियों में शिबली एकमात्र स्व-निर्मित व्यक्ति हैं जिन्होंने पश्चिमी विज्ञानं व कला की तेज़-ओ-तुंद आंधी में भी पूर्वी ज्ञान और कला के दीये को न केवल बुझने नहीं दिया बल्कि अपनी तलाश व खोज, शोध और अनुसंधान के रोग़न से उसकी लौ को बढ़ाती रही यहां तक कि “चराग़-ए-ख़ाना” “शम-ए-अंजुमन” के दोश बदोश खड़ा होने के लायक़ हो गया।“ 

आफ़ताब अहमद सिद्दीक़ी

शिबली नामानी उन लोगों में हैं जो सर सय्यद अहमद ख़ां के प्रभाव और साहचर्य की बदौलत मौलवियत के सीमित और तंग घेरे से निकल कर साहित्य के विस्तृत मैदान में आए। उन्होंने उर्दू ज़बान में इस्लामी इतिहास का सही ज़ौक़ फैलाया। इतिहास में उन्होंने इस्लामी तारीख़ की महान विभूतियों के जीवन चरित्र क़लम-बंद करने का एक सिलसिला शुरू किया, जिसमें कई नामवर पूर्वज आ गए। उनकी सबसे मशहूर व लोकप्रिय किताब ख़लीफ़ा दोम हज़रत उम्र फ़ारूक़ की जीवनी “अल-फ़ारूक़” है। इस संदर्भ में उनकी अंतिम रचना “सीरत उन्नबी” उनकी ज़िंदगी में मुकम्मल नहीं हो सकी थी। उसे उनके शागिर्द सय्यद सुलेमान नदवी ने मुकम्मल करके प्रकाशित कराया। इन कृतियों के अलावा शिबली ने अनगिनत ऐतिहासिक व शोध लेख लिखे, जिससे इतिहास ज्ञान और इतिहास लेखन में सामान्य रूचि पैदा हुई। शिबली शायर और उच्च श्रेणी के काव्य मर्मज्ञ व आलोचक थे और उन्हें उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शुमार किया जाता है। अलीगढ़ प्रवास के दौरान शिबली ने प्रोफ़ेसर आरनल्ड से भी लाभ उठाया और उनके माध्यम से पश्चिमी सभ्यता और उसके सामाजिक शिष्टाचार से परिचित हुए। शिबली ने उस सभ्यता और समाज के गुणों को स्वीकार किया और पूर्वी सभ्यता के साथ उसे मिश्रित भी किया। उस मिश्रण ने परम्परावादियों को उनसे बदज़न कर दिया यहां तक कि उन्हें नदवा से भी निकलना पड़ा। वो पाश्चात्य प्रेमियों में बिना किसी हीन भावना के शरीक होते थे।

शिबली ने उर्दू और फ़ारसी दोनों ज़बानों में शायरी की लेकिन दोनों ज़बानों की शायरी का मिज़ाज मुख्तलिफ़ है । शिबली कि फ़ारसी शायरी में गर्मागर्म इश्क़िया मज़ामीन हैं जो अवाम की नज़र से कम ही गुज़रती है। उर्दू में उन्होंने आमतौर पर क़ौमी और सियासी शायरी की है। उनकी फ़ारसी शायरी के बारे में हाली ने कहा, “कोई क्योंकर मान सकता है कि ये उस शख़्स का कलाम है, जिसने सीरत ए नोमान, अल-फ़ारूक़ और सवानिह मौलाना रोम जैसी मुक़द्दस किताबें लिखी हैं, ग़ज़लें काहे को हैं, शराब दो आतिशा है, जिसके नशे में ख़ुमार चश्म-ए-साक़ी भी मिला हुआ है। ग़ज़लियात हाफ़िज़ का जो हिस्सा रिन्दी और बेबाकी के विषयों पर आधारित है, मुम्किन है कि उसके अलफ़ाज़ में ज़्यादा दिलरुबाई हो मगर ख़्यालात के लिहाज़ से ये ग़ज़लें बहुत ज़्यादा गर्म हैं।”

शिबली 1857 में आज़मगढ़ के नज़दीक बंदवाल में पैदा हुए। ये लोग मूलतः राजपूत थे। शिबली ने इमाम अबू हनीफ़ा से सम्बन्ध प्रकट करने के लिए अपने नाम के साथ नोमानी लिखना शुरू किया। उनके वालिद आज़मगढ़ के मशहूर वकील, बड़े ज़मींदार और नील व शक्कर के व्यापारी थे। शिबली को उन्होंने धार्मिक शिक्षा दिलाने का फ़ैसला किया। शिबली ने अपने वक़्त के यशस्वी विद्वानों से फ़ारसी-अरबी, हदीस फ़िक़्ह और दूसरे इस्लामी ज्ञान हासिल किए। शिक्षा पूर्ण करने के बाद मौलाना ने कुछ दिनों क़ुर्क़ अमीन के तौर पर नौकरी की, फिर वकालत का इम्तिहान दिया जिसमें फ़ेल हो गए, लेकिन अगले साल कामयाब हुए। कुछ दिनों कई जगहों पर नाकाम वकालत करने के बाद मौलाना को अलीगढ़ में सर सय्यद के कॉलेज में अरबी और फ़ारसी के शिक्षक की नौकरी मिल गई। यहीं से शिबली की कामयाबियों का सफ़र शुरू हुआ। अलीगढ़ की नौकरी के दौरान ही मौलाना ने तुर्की, शाम और मिस्र का सफ़र किया। तुर्की में सर सय्यद के रफ़ीक़ और अरबी-फ़ारसी के स्कालर के रूप में उनकी बड़ी आओ-भगत हुई। अतिया फ़ैज़ी के वालिद हसन आफ़ंदी की सिफ़ारिश पर, कि वो वो सुलतान अब्दुल हमीद के दरबार में ख़ासा रसूख़ रखते थे, उनको “तमग़ा-ए-मजीदिया” से नवाज़ा गया। वापसी पर उन्होंने अलमामून और सीरत ए नोमान लिखीं। 1890 में शिबली ने एक बार फिर तुर्की, लिबनान और फ़िलिस्तीन का दौरा किया और वहां के कुतुबख़ाने देखे। इस सफ़र से वापसी पर उन्होंने “अल-फ़ारूक़” लिखी। 1898 में सर सय्यद के देहावसान के बाद शिबली ने अलीगढ़ छोड़ दिया और आज़मगढ़ वापस आकर अपने द्वारा स्थापित “नेशनल स्कूल” (जो अब शिबली कॉलेज है) की तरक़्क़ी में मसरूफ़ हो गए। फिर वो हैदराबाद चले गए, जहां के अपने चार वर्षीय प्रवास में उन्होंने अलग़ज़ाली, इल्म-उल-कलाम, अल-कलाम, सवानिह उमरी मौलाना रोम, और मुवाज़ीना-ए-अनीस-ओ-दबीर लिखीं। इसके बाद वो लखनऊ आ गए जहां उन्होंने नदवतुल उलमा के शिक्षा सम्बंधी मामले सँभाले। नदवा की व्यस्तताओं के बीच ही उन्होंने शे’र-उल-अजम लिखी। 1907 में घर में भरी बंदूक़ अचानक चल जाने से वो अपना एक पैर गंवा बैठे और लकड़ी के पैर के साथ बाक़ी ज़िंदगी गुज़ारी। मौलाना ने दो शादियां कीं, पहली शादी कम उम्री में ही हो गई़ थी। पहली बीवी का 1895 में देहांत हो गया। 1900 में 43 साल की उम्र में उन्होंने एक बहुत कमसिन लड़की से दूसरी शादी की, जिसका 1905 में स्वर्गवास हो गया। शिबली का ख़्वाब था कि बड़े बड़े विद्वानों को जमा कर के ज्ञानपरक शोध व प्रकाशन की एक संस्था “दार उल मुसन्निफ़ीन” के नाम से स्थापित किया जाए। उन्होंने उसका इंतिज़ाम पूरा कर लिया था लेकिन संस्था का उद्घाटन उनकी मौत के बाद ही हो सका। मौलाना की कुछ सरगर्मियों की वजह से नदवा में उनका विरोध बढ़ गया था। आख़िर उनको उस संस्था से, जिसकी तरक़्क़ी के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत की थी, अलग होना पड़ा और वो आज़मगढ़ आकर स्कूल और ज़मींदारी के कामों में व्यस्त हो गए। यहां आकर उनकी सेहत गिरने लगी और 18 नवंबर 1914 को उनका देहांत हो गया। शिबली नोमानी एक सक्रिय और मेहनती आदमी थे। जिस काम में हाथ डालते पूरी मेहनत और लगन से उसे पूरा करने की कोशिश करते। अपनी विद्वता और शोहरत की बदौलत उनकी पहुंच उस वक़्त की बहुत सी रियास्तों के मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम हुकमरानों तक थी, जिनसे उनको अपने शैक्षिक व व्यवहारिक योजनाओं के लिए मदद मिलती रहती थी।

शिबली की गिनती उर्दू आलोचना के संस्थापकों में होती है। उन्होंने अपनी आलोचनात्मक विचारधारा को अपनी दो लाजवाब किताबों “शे’र उल अजम” और “मवाज़िना ए अनीस-ओ-दबीर” में व्यापक रूप में बयान किया है। मवाज़िना में शिबली ने मर्सिया निगारी की कला के मूल सिद्धांतों के साथ साथ वाग्मिता, अलंकारिक, उपमा, रूपकों और दूसरे व्याकरणिक लक्षणों को परिभाषित किया है। शे’र उल अजम में उन्होंने शे’र की हक़ीक़त व प्रकृति तथा शब्द-अर्थ के रिश्ते को समझने समझाने की कोशिश की है और इसमें उन्होंने उर्दू की कुल क्लासिकी विधाओं का मुहाकमा किया है। उसमें इन्होंने शायरी के मूल तत्वों, तारीख़-ओ-शे’र के फ़र्क़ और शायरी और वाक़िया निगारी के फ़र्क़ को स्पष्ट किया है। वो शायरी को ज़ौक़ी और भावनात्मक चीज़ समझते थे जिसकी कोई व्यापक व निवारक परिभाषा रखना मुम्किन नहीं। वो अनुभूति के मुक़ाबले में भावना व संवेदना को शायरी का मूल सार मानते हैं। उनका कहना है कि यद्यपि भावनाओं के बिना शायरी मुम्किन नहीं, फिर भी इसका मतलब उत्साह या हंगामा बरपा करना नहीं बल्कि जज़बात में ज़िंदगी और तीव्रता पैदा करना है। वो हर उस चीज़ को जो दिल पर आश्चर्य, जोश या कोई और भाव पैदा करे शे’र में शुमार करते हैं। इस तरह उनके नज़दीक आसमान, सितारे, सुबह की हवा, कलियों की मुस्कान, बुलबुल के नग़मे, दश्त की वीरानी और चमन की शादाबी सब शे’र में शामिल हैं। इस तरह शिबली ने शे’र के संवेदी और सौंदर्य के पहलू पर ज़ोर दिया। शब्द व अर्थ की बहस में उनका झुकाव शब्द की ख़ूबसूरती और उसके मुनासिब इस्तेमाल की तरफ़ है। वो शब्द को शरीर और अर्थ को उसकी रूह क़रार देते हैं और कहते हैं कि अगर श्रेष्ठ अर्थ श्रेष्ठ शब्दों का जामा पहन कर सामने आएं तो ज़्यादा प्रभावी होंगे। शिबली नोमानी की शैक्षिक सेवाओं को स्वीकार करते हुए अंग्रेज़ सरकार ने उनको शम्स-उल-उलमा का ख़िताब दिया था। उनके द्वारा स्थापित संस्था शिबली कॉलेज और दार उल मुसन्निफ़ीन आज भी ज्ञान व शोध के कामों में व्यस्त हैं। उर्दू ज़बान शिबली के एहसानात को कभी फ़रामोश नहीं कर सकती।

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