aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
"لیلیٰ کے خطوط" قاضی عبدالغفار کی مشہور تصنیف ہے۔ جس میں خواتین اور خاص طور پر بازار حسن میں بیٹھی ہوئی خواتین کے مسائل اور جذبات پر قلم اٹھایا ہے کہ کس بے رحمی سے خریدار ان کی بولی لگاتے ہیں اور کس بے دردی سے ان کے وجود کو پامال کرتے ہیں۔اس کے لیے قاضی صاحب نے لیلیٰ کے ذریعہ خطوط لکھوائے ہیں۔یہ مجموعہ انشا پردازی کی مشق ہے نہ زور قلم کا مظاہرہ ہے ،بلکہ یہ خطوط اجمال میں مظلوم کی طرف سے ظالم کی جانب چند اشارے ہیں۔ ناول کی مقبولیت کے پیش نظر اس کا انگلش ترجمہ بھی شائع کیا گیا ہے۔ زیر نظر وہی انگلش ایڈیشن ہے۔
“लैला के ख़ुतूत” और “मजनूं की डायरी” के लेखक क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार मूलतः पत्रकार थे। उनके ज़ोर-ए-क़लम ने कई अख़बारों को प्रतिष्ठा दिलाई। उनका वतन मुरादाबाद था। वहीं आरंभिक शिक्षा हुई। उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ आए। साहित्यिक और राजनीतिक चेतना का विकास इसी विद्यालय में हुआ। व्यावहारिक जीवन पत्रकारिता से आरंभ किया। पहले मौलाना मुहम्मद अली के सहायक के रूप में “हमदर्द”(दिल्ली) से संबद्ध हुए। कुछ दिनों बाद दिल्ली से कलकत्ता चले गए और वहाँ से दैनिक “जम्हूर” जारी किया। फिर हैदराबाद जाकर “पैग़ाम” निकाला।
पत्रकारिता के अलावा जीवनी और इतिहास में भी उन्हें गहरी रूचि थी। आसार-ए-जमाल उद्दीन, हयात-ए-अजमल, यादगार-ए-अबुल कलाम आज़ाद उनके क़लम से निकली हुई मशहूर जीवनियाँ हैं। उनकी उम्र के आख़िरी दिन अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिंद) की ख़िदमत में गुज़रे। काफ़ी समय तक अंजुमन के सेक्रेटरी के पद पर अपनी सेवाएँ दीं। इस दौरान वो अंजुमन के मुखपत्र “हमारी ज़बान” के संपादक भी रहे।
अपने व्यक्तिगत जीवन और रचनात्मक कार्यों में भी क़ाज़ी साहब के यहाँ बहुत नफ़ासत पाई जाती थी। लिबास, भोजन, रहन-सहन, हर मामले में वो बहुत ख़ुश सलीक़ा थे। इसी तरह लेखन में भी नफ़ासत का सबूत देते हैं और बहुत सोच समझ कर एक एक शब्द का चयन करते हैं। उनका पाठ बहुत सुथरा और शुद्ध होता है। क़ाज़ी साहब के गद्य लेखन की एक विशेषता है। चुने हुए अशआर का इस्तेमाल उनके यहाँ बहुत मिलता है। अक्सर लेख आरंभ वो किसी शे’र से करते हैं और प्रायः समापन भी शे’र पर ही होता है।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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