Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : असरार-उल-हक़ मजाज़

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), अलीगढ

मूल : अलीगढ़, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1956

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : संकलन

पृष्ठ : 68

सहयोगी : दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड लाइब्रेरी

majaz
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक: परिचय

असरार-उल-हक़ मजाज़ बीसवीं सदी के चौथे दशक में उर्दू शायरी के क्षितिज पर एक घटना बन कर उभरे और देखते ही देखते अपनी दिलनवाज़ शख़्सियत और अपने लब-ओ-लहजे की ताज़गी और गेयता के सबब अपने वक़्त के नौजवानों के दिल-ओ-दिमाग़ पर छा गए। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, सरदार जाफ़री, मख़दूम मुहीउद्दीन, जज़्बी और साहिर लुधियानवी जैसे शायर उनके समकालीन ही नहीं हमप्याला और हमनिवाला दोस्त भी थे। लेकिन जिस ज़माना में मजाज़ की शायरी अपने शबाब पर थी, उनकी शोहरत और लोकप्रियता के सामने किसी का चराग़ नहीं जलता था। मजाज़ की शायरी के अहद-ए-शबाब में उनकी नज़्म “आवारा” फ़ैज़ की “मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग” और साहिर की “ताज महल” से ज़्यादा मशहूर और लोकप्रिय थी। मजाज़ की एक विशिष्टता ये भी थी कि मामूली शक्ल-ओ-सूरत के बावजूद उनके चाहने वालों में लड़कों से ज़्यादा लड़कियां थीं। इस्मत चुग़ताई के बक़ौल उनके अलीगढ़ के दिनों में होस्टल की लड़कियां उनके लिए आपस में पर्ची निकाला करती थीं और उनके काव्य संग्रह “आहंग” को सीने से लगा कर सोती थीं। लेकिन बदक़िस्मती से मजाज़ ख़ुद को सँभाल न सके और अख़तर शीरानी की चाल पर चल निकले, या’नी उन्होंने इतनी शराब पी कि शराब उनको ही पी गई। अख़तर शीरानी उनसे 6 साल पहले पैदा हुए और सात साल पहले मर गए, अर्थात दोनों ने कम-ओ-बेश बराबर ज़िंदगी पाई लेकिन अख़तर नस्र-ओ-नज़्म (गद्य व कविता) में जितना भरपूर सरमाया छोड़ गए उसकी अपेक्षा मजाज़ उनसे बहुत पीछे रह गए। जोश मलीहाबादी ने ‘यादों की बरात’ में उनके बारे में लिखा है कि मजाज़ बेपनाह सलाहियतों के मालिक थे लेकिन वो अपनी सिर्फ़ एक चौथाई सलाहियतों को काम में ला सके। मजाज़ की बाक़ायदा मौत तो 1955 में हुई लेकिन वो दीवानगी के तीन दौरों को झेलते हुए इससे कई साल पहले ही मर चुके थे। मजाज़ उर्दू शायरी में इक आंधी बन कर उठे थे और आंधियां ज़्यादा देर नहीं ठहरतीं।

मजाज़ अवध के मशहूर क़स्बा रुदौली के एक ज़मींदार घराने में 1911 में पैदा हुए। उनके वालिद सिराज-उल-हक़ उस वक़्त के दूसरे ज़मींदारों और तालुक़दारों के विपरीत बहुत प्रगतिवादी विचारधारा के थे और उस ज़माने में, जब उनके समुदाय के लोग अंग्रेज़ी शिक्षा को अनावश्यक समझते थे, उच्च शिक्षा प्राप्त की और बड़ी ज़मींदारी के बावजूद सरकारी नौकरी की। मजाज़ को बचपन में बहुत लाड-प्यार से पाला गया। आरम्भिक शिक्षा उन्होंने रुदौली के एक स्कूल में हासिल की, उसके बाद वो लखनऊ चले गए जहां उनके वालिद रजिस्ट्रेशन विभाग में मुलाज़िम थे। मजाज़ ने मैट्रिक लखनऊ के अमीनाबाद स्कूल से पास किया। उस वक़्त तक पढ़ने में अच्छे थे। फिर उसी ज़माने में वालिद का तबादला आगरा हो गया। यहीं से मजाज़ की ज़िंदगी का पहला मोड़ शुरू हुआ। पहले तो इच्छा के विपरीत उनको इंजिनियर बनाने के लिए गणित और भौतिकशास्त्र जैसे शुष्क विषयों को दिला कर सेंट जॉन्स कॉलेज में दाख़िल करा दिया गया। जहां जज़्बी भी पढ़ते थे और पड़ोस मिला फ़ानी बदायूनी का। इस पर तुर्रा ये कि कुछ ही दिनों बाद वालिद का तबादला आगरा से अलीगढ़ हो गया। वो मजाज़ को शिक्षा पूरी करने के उद्देश्य से आगरा में छोड़कर अलीगढ़ चले गए। पाठ्य पुस्तकों में रूचि न होना, आगरा का शायराना माहौल और माता-पिता की निगरानी ख़त्म हो जाना... नतीजा वही निकला जो निकलना चाहिए था। इसरार-उल-हक़ ने ‘शहीद’ तख़ल्लुस के साथ शायरी शुरू कर दी और फ़ानी से इस्लाह लेने लगे। जज़्बी उस ज़माने में ‘मलाल’ तख़ल्लुस करते थे। मजाज़ शुरू से ही शायरी में “मज़ाक़-ए-तरब आगीं” के मालिक थे। फ़ानी उनके लिए मुनासिब उस्ताद नहीं थे और ख़ुद उन्होंने मजाज़ को मश्वरा दिया कि वो उनसे इस्लाह न लिया करें। आगरा की ये आरम्भिक शायरी आगरा में ही ख़त्म हो गई, इम्तिहान में फ़ेल हुए और अलीगढ़ अपने माता-पिता के पास चले गए। यहां से उनकी ज़िंदगी का दूसरा मोड़ शुरू होता है। उस वक़्त अलीगढ़ में भविष्य के नामवरों का जमघट था। ये सब लोग आगे चल कर अपने अपने मैदानों में आफ़ताब-ओ-माहताब बन कर चमके। गद्य में मंटो और इस्मत चुग़ताई, आलोचना में आल-ए-अहमद सुरूर और शायरी में मजाज़, जज़्बी, सरदार जाफ़री, मख़दूम, जाँनिसार अख़तर और बहुत से दूसरे। ज़माना करवट ले चुका था। देश का स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। रूस के इन्क़लाब ने नौजवानों के दिल-ओ-दिमाग़ को ख़ुश-रंग ख़्वाबों से भर दिया था। अब शायरी के तीन रूपक थे... शमशीर, साज़ और जाम। यहां तक कि जिगर जैसे रिंद आशिक़ मिज़ाज और क्लासिकी शायर ने भी ऐलान कर दिया था...
कभी मैं भी था शाहिद दर बग़ल तौबा-शिकन मय-कश
मगर बनना है अब ख़ंजर-ब-कफ़ साग़र शिकन साक़ी


विभिन्न शाइरों की शायरी में शमशीर, साज़ और जाम की मिलावट भिन्न थी, मजाज़ के यहां ये क्रम साज़, जाम, शमशीर की शक्ल में क़ायम हुई। कलाम में शीरीनी और नग़मगी का जो मिश्रण मजाज़ ने पेश किया वो अपनी जगह इकलौता और अद्वितीय था। नतीजा ये था वो सबकी आँखों का तारा बन गए। अलीगढ़ से बी.ए. करने के बाद एम.ए. में दाख़िला लिया लेकिन उसी ज़माने में ऑल इंडिया रेडियो में कुछ जगहें निकलीं। काम रुचि के अनुकूल था, मजाज़ रेडियो की पत्रिका “आवाज़” के सहायक संपादक बन गए। रेडियो की नौकरी ज़्यादा दिनों तक नहीं चली और वो दफ़्तरी सियासत (जो क्षेत्रीय सियासत भी थी) का शिकार हो कर बेकार हो गए। कहते हैं कि मुसीबत तन्हा नहीं आती, चुनांचे वो इक रईस और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी की फ़ित्ना-ए-रोज़गार बेटी से, जो ख़ैर से एक भारी भरकम शौहर की भी मालिक थीं, इश्क़ कर बैठे। ये इश्क़ उन मुहतरमा के लिए एक खेल था लेकिन उसने मजाज़ की ज़ेहनी, जज़्बाती और जिस्मानी तबाही का दरवाज़ा खोल दिया। ये उनकी ज़िंदगी का तीसरा मोड़ था जहां से उनकी शराबनोशी बढ़ी। बेरोज़गारी और इश्क़ की नाकामी से टूट-फूट कर मजाज़ लखनऊ वापस चले गए। ये घटना 1936 की है। दिल्ली से रूह का जो नासूर लेकर गए थे वो अंदर ही अंदर फैलता रहा और 1940 में पहले नर्वस ब्रेक डाउन की शक्ल में फूट बहा। अब उनके पास एक ही मौज़ू था, फ़ुलां लड़की मुझसे शादी करना चाहती है और काला मुंह रक़ीब मुझे ज़हर देने की फ़िक्र में है। चार छे महीने ये कैफ़ियत रही। दवा ईलाज और तबदीली-ए-आब-ओ-हवा के लिए नैनीताल भेजे जाने के बाद तबीयत बहाल हो गई। कुछ दिनों बम्बई (अब मुंबई) में सूचना विभाग में काम किया फिर लखनऊ वापस आ गए। कुछ दिनों पत्रिकाओं ‘पर्चम’ और ‘नया अदब’ का संपादन किया लेकिन ये वक़्त गुज़ारी का मशग़ला था, रोज़गार का नहीं। लखनऊ के उनके दोस्त-यार तितर-बितर हो गए थे। आख़िर दुबारा दिल्ली गए और हार्डिंग लाइब्रेरी में अस्सिटैंट लाइब्रेरियन बन गए। अब उनकी शराबनोशी बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी और घटिया लोगों में उठने-बैठने लगे थे। 1945 में उन पर दीवानगी का दूसरा दौरा पड़ा, इस बार दीवानगी की नौईयत ये थी कि अपनी बड़ाई के गीत गाते थे और ग़ालिब-ओ-इक़बाल के बाद ख़ुद को उर्दू का तीसरा बड़ा शायर बताते थे। इस बार भी डाक्टरों की कोशिश और घर वालों की जी तोड़ तीमारदारी और देखभाल ने उन्हें स्वस्थ कर दिया। जुनून तो ख़त्म हुआ लेकिन अंदर की घुटन और यौन वासना दरपर्दा अपना काम करती रही। एक वक़्त का होनहार और सबका चहेता शख़्स इस हालत को पहुंच गया था कि उसे बिल्कुल ही निखट्टू क़रार दिया जा चुका था। वो ज़िंदगी की तल्ख़ियों को शराब में ग़र्क़ करते रहे। कभी ज़िंदगी की शिकायत या किसी का शिकवा ज़बान पर नहीं आया। सब कुछ ख़ामोशी से सहते रहे। 1945 में दीवानगी का तीसरा और सबसे शदीद दौरा पड़ा। जिस शख़्स ने होश के आलम में कभी कोई छिछोरी या ओछी हरकत न की हो वो दिल्ली की सड़कों पर हर लड़की के पीछे भाग रहा था। घर वाले हर वक़्त किसी बुरी ख़बर के लिए तैयार रहते कि मजाज़ किसी मोटर के नीचे आ गए या किसी सड़क पर ठिठुरे हुए पाए गए। वही माँ जिसकी ज़बान उनकी सलामती की दुआएं करते न थकती थी, अब उनकी या फिर अपनी मौत की दुआएं कर रही थी। जोश मलीहाबादी ने दिल्ली से ख़त लिखा कि मजाज़ को आगरा के पागलख़ाने में दाख़िल करा दिया जाये। मजाज़ और आगरा का पागलख़ाना, घर वाले इस तसव्वुर से ही काँप गए। आख़िर बड़ी कोशिशों से उन्हें रांची के दिमाग़ी अस्पताल में बी क्लास का एक बिस्तर मिल गया। छे महीने बाद स्वस्थ हो कर घर लौटे तो एक ही माह बाद उनकी चहेती बहन सफ़िया अख़तर (जावेद अख़तर की माँ) का देहांत हो गया। ये त्रासदी उन पर बिजली के झटके की तरह लगी। अचानक जैसे उनके अंदर ज़िम्मेदारी का एहसास जाग उठा हो। वो सफ़िया के बच्चों का दिल बहलाते, उनसे हंसी-मज़ाक़ करते और उनके साथ खेलते और उन्हें पढ़ाते। हर शाम कपड़े बदल कर तैयार होते और कुछ देर घर में टहलते, जैसे सोच रहे हों कि जाऊं कि न जाऊं। कभी कभी हफ़्ता हफ़्ता घर से न निकलते। लेकिन आख़िर कब तक। वो ज़्यादा दिन ख़ुद को क़ाबू में नहीं रख सके। अब लखनऊ में उनके दोस्त घटिया क़िस्म के शराबी थे जो उन्हें घेर घेर कर ले जाते और घटिया शराब पिलाते। उनकी शराबनोशी का अड्डा ऐसा शराबख़ाना था जिसकी छत पर बैठ कर ये लोग मयनोशी करते थे (मजाज़ उसे लारी की छत कहते थे)। 1955 के दिसंबर की एक रात उसी छत पर शराबनोशी शुरू हुई और देर रात तक जारी रही। मदमस्ती के आलम में उनके साथी उनको छत पर ही छोड़कर अपने अपने घरों को चले गए और शराबख़ाने के मालिक ने ये समझ कर कि सब लोग चले गए हैं सीढ़ी का दरवाज़ा बंद कर दिया। दूसरी सुबह जब दुकान का मालिक छत पर गया तो मजाज़ वहां नीम मुर्दा हालत में बेहोश पड़े थे। उनको तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया लेकिन इस बार डाक्टर मजाज़ से हार गए। उनकी शोकसभा में इस्मत चुग़ताई ने कहा, मजाज़ की हालत देखकर मुझे कभी कभी बहुत ग़ुस्सा आता था और मैं उनसे कहती थी कि इससे अच्छा है मजाज़ कि तुम मर जाओ, आज मजाज़ ने कहा कि लो, मैं मर गया, तुम मरने को इतना मुश्किल समझती थीं।
मजाज़ की शायरी उर्दू में गेय शायरी का बेहतरीन नमूना है। उनके कलाम में अ’जीब संगीत की लय है जो उनको सभी दूसरे शायरों मुमताज़ करती है। उन्होंने ग़ज़लें भी कहीं लेकिन वो बुनियादी तौर पर नज़्म के शायर थे। वो हुस्नपरस्त और आशिक़ मिज़ाज थे लेकिन उनकी हुस्नपरस्ती में इक ख़ास क़िस्म की पाकीज़गी थी। उनकी छोटी सी नज़्म “नन्ही पूजारन” उर्दू में अपनी तरह की अनोखी नज़्म है। “एक नर्स की चारागरी” भी उनकी मशहूर नज़्म है और इसमें उनका पूरा किरदार ख़ुद को उजागर कर गया है। इस नज़्म के आख़िरी हिस्से के बोल्ड हुरूफ़ में लिखे गए शब्दों पर ग़ौर कीजिए:
"मुझे लेटे लेटे शरारत सी सूझी
जो सूझी भी तो किस क़ियामत की सूझी
ज़रा बढ़के कुछ और गर्दन झुका ली
लब-ए-लाल अफ़शाँ से इक शय चुरा ली...
मैं समझा था शायद बिगड़ जाएगी वो
हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
उधर दिल में इक शोर महशर बपा था
मगर इस तरफ़ रंग ही दूसरा था
हंसी और हंसी इस तरह खिलखिलाकर
कि शम्मा हया रह गई झिलमिलाकर... 
मजाज़ के यहां शब्दों में ही नहीं बल्कि भावनाओं की अभिव्यक्ति में भी ज़बरदस्त रख-रखाव पाया जाता है। इश्क़िया शायरी में रोना-धोना या फिर फक्कड़पन के राह पा जाने की हर वक़्त संभावना रहती है लेकिन मजाज़ ने इन दोनों से अपने दामन को महफ़ूज़ रखा। उन्होंने ज़िंदगी-भर सबसे बिना शर्त मुहब्बत की और उसी मुहब्बत के गीत गाते रहे और बहुत कम लोग समझ पाए कि
"सारी महफ़िल जिस पे झूम उठी ‘मजाज़’
वो तो आवाज़ शिकस्त-ए-साज़ है

.....और पढ़िए
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक की अन्य पुस्तकें

लेखक की अन्य पुस्तकें यहाँ पढ़ें।

पूरा देखिए

लोकप्रिय और ट्रेंडिंग

सबसे लोकप्रिय और ट्रेंडिंग उर्दू पुस्तकों का पता लगाएँ।

पूरा देखिए

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए