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पुस्तक: परिचय

اردو کے قدیم شاعروں میں نظیراکبرآبادی کو جو عوامی مقبولیت حاصل ہے وہ شاید ہی ان کے دور کے کسی دوسرے شاعر کو ملی ہو۔ انھوں نے اپنی شاعری میں عوامی رنگ اور سماج کے دبے کچلے اور نچلے طبقہ کے لوگوں کی زندگی کے مسائل کو تلاش کرکے پیش کیا۔ انھوں نے اپنے کلام میں سماجی ، اخلاقی، اصلاحی اور تہذیبی مضامین و موضوعات کا احاطہ کیا۔ انھوں نے اپنی شاعری کا خاص موضوع عوام اور عوامی زندگی کو بنایا۔ ان کی شاعری میں ہندی و ہندوستانی عناصر کی جھلکیاں حد درجہ نمایاں ہیں۔ نظیر کی شاعری میں ہندوستانیت کے اسی گہرے رچاو نے انھیں عوامی مقبولیت کا تاج پہنایا۔ زیر نظر کتاب "مجموعہ نظیر اکبر آبادی " میں نظیر کی آٹھ مشہور ومعروف نظمیں، جیسے کہ کوڑی نامہ، پنکھے نامہ، برسات نامہ، موت نامہ، پیسے نامہ، بنجارہ نامہ، ہرن نامہ اور نصیحت نامہ شامل ہیں۔

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लेखक: परिचय

 तख़ल्लुस नज़ीर और शायर बेनज़ीर, बेनज़ीर इसलिए कि उन जैसा शायर तो दूर रहा, उनकी श्रेणी का शायर न उनसे पहले कोई था न उनके बाद कोई पैदा हुआ। नज़ीर अकबराबादी उर्दू शायरी की एक अनोखी आवाज़ हैं जिनकी शायरी इस क़दर अजीब और हैरान करनेवाली थी कि उनके ज़माने की काव्य चेतना ने उनको शायर मानने से ही इनकार कर दिया था। नज़ीर से पहले उर्दू शायरी ग़ज़ल के गिर्द घूमती थी। शो’रा अपनी ग़ज़लगोई पर ही फ़ख़्र करते थे और शाही दरबारों तक पहुँच के लिए क़सीदों का सहारा लेते थे या फिर रुबाईयाँ और मसनवियाँ कह कर शे’र के फ़न में अपनी उस्तादी साबित करते थे। ऐसे में एक ऐसा शायर जो बुनियादी तौर पर नज़्म का शायर था, उनके लिए ग़ैर था। दूसरी तरफ़ नज़ीर न तो शायरों में अपनी कोई जगह बनाने के ख़ाहिशमंद थे, न उनको मान-मर्यादा, शोहरत या जाह-ओ-मन्सब से कोई ग़रज़ थी, वो तो ख़ालिस शायर थे। जहां उनको कोई चीज़ या बात दिलचस्प और क़ाबिल-ए-तवज्जो नज़र आई, उसका हुस्न शे’र बन कर उनकी ज़बान पर जारी हो गया। नज़ीर की शायरी में जो क़लंदराना बांकपन है वह अपनी मिसाल आप है। विषय हो, ज़बान हो या लहजा नज़ीर का कलाम हर एतबार से बेनज़ीर है।

नज़ीर का असल नाम वली मुहम्मद था। वालिद मुहम्मद फ़ारूक़ अज़ीमाबाद की सरकार में मुलाज़िम थे। नज़ीर की पैदाइश दिल्ली में हुई जहां से वो अच्छी ख़ासी उम्र में अकबराबाद (आगरा) चले गए, इसीलिए कुछ आलोचक उनके देहलवी होने पर आग्रह करते हैं। लगभग उन्नीसवीं सदी के आख़िर तक तज़किरा लिखनेवालों और आलोचकों ने नज़ीर की तरफ़ से ऐसी उपेक्षा की कि उनकी ज़िंदगी के हालात पर पर्दे पड़े रहे। आख़िर 1896 ई. में प्रोफ़ेसर अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़ ने "ज़िंदगानी-ए-बेनज़ीर” संकलित की जिसे नज़ीर की ज़िंदगी के हवाले से अंतिम शब्द कहा गया है, हालाँकि ख़ुद प्रोफ़ेसर शहबाज़ ने स्वीकार किया है कि उनका शोध विचारों का मिश्रण है। ये बात निश्चित है कि अठारहवीं सदी में दिल्ली अराजकता और बर्बादी से इबारत थी। स्थानीय और अंदरूनी कलह के इलावा 1739 ई. में नादिर शाही मुसीबतों का सैलाब आया फिर 1748, 1751 और 1756 ई. में अहमद शाह अबदाली ने एक के बाद एक कई हमले किए। उन हालात में नज़ीर ने भी बहुत से दूसरों की तरह, दिल्ली छोड़कर अकबराबाद की राह ली, जहां उनके नाना नवाब सुलतान ख़ां क़िलेदार रहते थे। उस वक़्त उनकी उम्र 22-23 साल बताई जाती है। नज़ीर के दिल्ली के क़ियाम के बारे में कोई विवरण तज़किरों या ख़ुद उनके कलाम में नहीं मिलता। नज़ीर ने कितनी शिक्षा प्राप्त की और कहाँ, ये भी मालूम नहीं। कहा जाता है कि उन्होंने फ़ारसी की सभी सामान्य किताबें पढ़ी थीं और फ़ारसी की महत्वपूर्ण पुस्तकों का अध्ययन किया था। लेकिन नज़ीर ने अरबी न जानने को स्वयं स्वीकार किया है। नज़ीर कई ज़बानें जानते थे लेकिन उनको ज़बान की बजाय बोलियाँ कहना ज़्यादा मुनासिब होगा, जिनका असर उनकी शायरी में नुमायां है। आगरा में नज़ीर का पेशा बच्चों को पढ़ाना था। उस ज़माने के मकतबों और मदरसों की तरह उनका भी एक मकतब था, जो शहर के कई जगहों पर रहा, लेकिन सबसे ज़्यादा शोहरत उस मकतब को मिली जहां वो दूसरे बच्चों के इलावा आगरा के एक व्यापारी लाला बिलास राय के कई बेटों को फ़ारसी पढ़ाते थे। नज़ीर उस शिक्षण में संतोष की ज़िंदगी बसर करते थे। भरतपुर, हैदराबाद और अवध के शाही दरबारों ने सफ़र ख़र्च भेज कर उनको बुलाना चाहा लेकिन उन्होंने आगरा छोड़कर कहीं जाने से इनकार कर दिया। नज़ीर के बारे में जिसने भी कुछ लिखा है उसने उनके सादगी, नैतिकता,सरलता, सज्जनता और शालीनता का उल्लेख बहुत अच्छे शब्दों में किया है। दरबारदारी और वज़ीफ़ा लेने के उस दौर में उससे बचना एक विशिष्ट चरित्र का पता देता है। कुछ लोगों ने नज़ीर को क़ुरैशी और कुछ ने सय्यद कहा है। उनका मज़हब इमामिया मालूम होता है लेकिन ज़्यादा सही ये है कि वो सूफ़ी मशरब और सुलह-ए-कुल इंसान थे और कभी कभी ज़िंदगी को एकेश्वरवाद की दृष्टि से देखते नज़र आते हैं। शायद यही वजह है कि उन्होंने जिस ख़ुलूस और जोश के साथ हिंदू मज़हब के कुछ विषयों पर जैसी नज़्में लिखी हैं वैसी ख़ुद हिंदू शायर भी नहीं लिख सके। पता नहीं चलता की उन्होंने अपने दिल्ली के क़ियाम में किस तरह की शायरी की या किस को उस्ताद बनाया। उनकी कुछ ग़ज़लों में मीर-ओ-मिर्ज़ा के दौर का रंग झलकता है। दिल्ली के कुछ शायरों की ग़ज़लों की तज़मीन(किसी शायर द्वारा कही गई ग़ज़ल जैसी ग़ज़ल कहना) उनकी आरम्भिक शायरी की यादगार हो सकती है। लेकिन इसका कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता कि उनकी दिल्ली की शायरी का क्या रंग था। उन्होंने ज़्यादातर विभिन्न विषयों पर नज़्में लिखीं और वो उन ही के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपना कलाम एकत्र नहीं किया। उनके देहांत के बाद बिलास राय के बेटों ने विविध चीज़ें एकत्र कर के पहली बार कुल्लियात-ए-नज़ीर अकबराबादी के नाम से शाया किया जिसका प्रकाशन वर्ष मालूम नहीं। फ़्रांसीसी प्राच्य भाषाशास्त्री गार्सां दत्तासी ने ख़्याल ज़ाहिर किया है कि नज़ीर का पहला दीवान 1720 ई. में देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुआ था। आगरा के प्रकाशन इलाही ने बहुत से इज़ाफ़ों के साथ उर्दू में उनका कुल्लियात(समग्र) 1767 ई. में प्रकाशित किया था। उसके बाद विभिन्न समयों में कुल्लियात-ए-नज़ीर नवलकिशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित होता रहा। नज़ीर ने लम्बी उम्र पाई। उम्र के आख़िरी हिस्से में फ़ालिज हो गया था, उसी हालत में 1830 ई. में उनका देहांत हुआ। उनके बहुत से शागिर्दों में मीर मेहदी ज़ाहिर, क़ुतुब उद्दीन बातिन, लाला बद सेन साफ़ी, शेख़ नबी बख़्श आशिक़, मुंशी, मुंशी हसन अली मह्व के नाम मिलते हैं।

तज़किरा लिखनेवालों और 19वीं सदी के अक्सर आलोचकों ने नज़ीर को नज़र अंदाज़ करते हुए उनकी शायरी में बाज़ारियत, अश्लीलता, तकनीकी ग़लतियां और दोषों का उल्लेख किया। शेफ़्ता इसीलिए उनको शायरों की पंक्ति में जगह नहीं देना चाहते। आज़ाद, हाली और शिबली ने उनके शायराना मर्तबे पर कोई स्पष्ट राय देने से गुरेज़ किया है। असल कारण ये मालूम होता है कि नज़ीर ने अपने दौर के शायरी के स्तर और कमाल-ए-फ़न के नाज़ुक और कोमल पहलूओं को ज़िंदगी के आम तजुर्बात के सादा और पुरख़ुलूस बयान पर क़ुर्बान कर दिया। दरबारी शायरी की फ़िज़ा से दूर रह कर, विषयों के चयन और उनकी अभिव्यक्ति में एक विशेष वर्ग के शायरी की रूचि को ध्यान में रखने के बजाय उन्होंने आम लोगों की समझ और रूचि पर निगाह रखी, यहां तक कि ज़िंदगी और मौत, ज़िंदगी की मंज़िलें और प्रकृति दृश्य, मौसम और त्योहार, अमीरी और ग़रीबी, इश्क़ और मज़हब, मनोरंजन और ज़िंदगी की व्यस्तताएं, ख़ुदा शनासी और सनम आश्नाई, हास्य और प्रेरणा ग़रज़ कि जिस विषय पर निगाह डाली, वहां ज़बान, अंदाज़-ए-बयान और उपमाएं और रूपक के लिहाज़ से पढ़ने वालों के एक बड़े समूह को नज़र में रखा। यही वजह है कि ज़िंदगी के सैकड़ों पहलूओं के ज्ञान, विस्तार से असाधारण जानकारी, व्यापक मानवीय सहानुभूति, निस्वार्थ अभिव्यक्ति के महत्व को देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं कि नज़ीर एक उच्च श्रेणी के कवि हैं। उन्होंने कला और उसकी अभिव्यक्ति की प्रसिद्ध अवधारणाओं से हट कर अपनी नई राह निकाली। नज़ीर की निगाह में गहराई और चिंतन में वज़न की जो कमी नज़र आती है उसकी भरपाई उनकी व्यापक दृष्टि, ख़ुलूस, विविधता, यथार्थवाद, सादगी और सार्वजनिक दृष्टिकोण से हो जाती है और यही बातें उनको उर्दू का एक अनोखा शायर बनाती हैं।

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