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लेखक : अमीर मीनाई

संपादक : एहसानउल्लाह साक़िब

संस्करण संख्या : 002

प्रकाशक : मकतबा अदबिया, लखनऊ

मूल : लखनऊ, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1924

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : पत्र

पृष्ठ : 405

सहयोगी : इदारा-ए-अदबियात-ए-उर्दू, हैदराबाद

makaateeb-e-ameer minai
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लेखक: परिचय

दबिस्तान-ए-लखनऊ के बाहरी और दबिस्तान-ए-दिल्ली के अंतः का सुंदर समन्वय पेश करने वाले अमीर मीनाई वो क़ादिर-उल-कलाम शायर थे जिन्होंने अपने ज़माने में और उसके बाद भी अपनी शायरी का लोहा मनवाया। अमीर के कलाम में ज़बरदस्त भिन्नता और रंगारंगी है जो उनके दादा उस्ताद मुसहफ़ी की याद दिलाती है। अमीर, मुसहफ़ी के शागिर्द, असीर लखनवी के शागिर्द थे। अमीर के मिज़ाज में मुख़्तलिफ़, बल्कि विरोधाभासी मिथकों को संश्लेषित करने की  असाधारण क्षमता थी। परहेज़गारी व भय से मुक्ति, प्रेमिका से दिललगी के साथ इश्क़-ए-हक़ीक़ी और जलने पिघलने के साथ मस्ती व ख़ुशी की तरंगों को उन्होंने इंतिहाई ख़ूबी से अपनी ग़ज़ल में समोया है। उनकी शायरी में अगर एक तरफ़ उस्तादी नज़र आती है तो साथ साथ सच्ची शायरी के नमूने भी मिलते हैं। अमीर मीनाई की ग़ज़ल मुख़्तलिफ़ रंगों और ख़ुशबुओं के फूलों का एक हसीन गुलदस्ता है। हम उनकी शायरी की व्याख्या सौंदर्य का जादू से करसकते हैं।

अमीर मीनाई का नाम अमीर अहमद था और वो नवाब नसीर उद्दीन हैदर के दौर में सन् 1828 में लखनऊ में पैदा हुए। उनके वालिद मौलवी करम अहमद थे और दादा मशहूर बुज़ुर्ग मख़दूम शाह मीना के हक़ीक़ी भाई थे। इसीलिए वो मीनाई कहलाए। अमीर मीनाई ने शुरू में अपने बड़े भाई हाफ़िज़ इनायत हुसैन और अपने वालिद से शिक्षा पाई और उसके बाद मुफ़्ती साद उल्लाह मुरादाबादी से फ़ारसी, अरबी और अदब में महारत हासिल की। उन्होंने फ़िरंगी महल के आलिमों से भी शरीयत व सिद्धांत की शिक्षा प्राप्त की लेकिन उनका अपना कहना है कि अन्य विषयों का ज्ञान उनकी अपनी कोशिशों का नतीजा था। उनको शायरी का शौक़ बचपन से था, पंद्रह साल की उम्र में मुंशी मुज़फ़्फ़र अली ‘असीर’ के शागिर्द हो गए जो अपने ज़माने के मशहूर शायर और छंद विशेषज्ञ थे। उस ज़माने में लखनऊ में शायरी का चर्चा आम था। आतिश-ओ-नासिख़ और इसके बाद अनीस-ओ-दबीर की कामयाबियों ने शायरी के माहौल को गर्म कर रखा था। रिंद, ख़लील, सबा, नसीम, बहर और रश्क वग़ैरा की नग़मे सुनकर अमीर का शायरी का शौक़ चमक उठा और वो जल्द ही लखनऊ और उसके बाहर मशहूर हो गए। अमीर के कलाम और उनके कमाल की तारीफ़ें सुन कर 1852 ई. में नवाब वाजिद अली शाह ने उनको तलब किया और 200 रुपये माहाना पर अपने शहज़ादों की तालीम का काम उनके सपुर्द कर दिया, लेकिन 1956 ई. में अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया तो ये नौकरी जाती रही और अमीर गोशा नशीन हो गए। फिर अगले ही साल ग़दर का हंगामा बरपा हुआ जिसमें उनका घर तबाह हो गया और साथ ही उनका पहला संग्रह भी नष्ट हो गया, तब अमीर काकोरी चले गए और वहां एक साल रहने के बाद कानपुर होते हुए मीरपुर पहुंचे जहां उनके ख़ुस्र(ससुर) शेख़ वहीद उद्दीन डिप्टी कलेक्टर थे। उनकी सिफ़ारिश पर नवाब रामपुर यूसुफ़ अली ख़ां नाज़िम ने उनको तलब किया और अदालत-ए-दीवानी के सदस्य और मुफ़्ती-ए-शरअ की हैसियत से उनकी नियुक्ति कर दी। उसके बाद 1865 ई. में जब नवाब कल्ब अली ख़ां मस्नद नशीं हुए तो प्रेस, समाचार और मुसाहिबत के दायित्व भी उनके ज़िम्मे हो गए। नवाब ने 216 रुपये उनका वज़ीफ़ा मुक़र्रर किया। इनामात और दूसरी सुविधाएं इसके अलावा थीं।

कल्ब अली ख़ान के दौर में अक्सर कलाओं के अद्भुत कलाकार रामपुर में जमा थे। शायरों में दाग़, बहर, जलाल, क़लक़, असीर, मुनीर, तस्लीम ओज जैसे सुख़नवर वहां मौजूद थे। उस माहौल में अमीर की शायरी अपने शिखर बिंदु पर पहुंच गई। कल्ब अली ख़ान के बाद मुश्ताक़ अली ख़ां और हामिद अली ख़ां ने उनकी मुलाज़मत को बरक़रार रखा लेकिन तनख़्वाह और अन्य सुविधाओं में बहुत कमी हो गई। जब दाग़ ने रामपुर से हैदराबाद जा कर वहां बुलंदी पाई तो उनके प्रोत्साहन पर अमीर ने भी हैदराबाद जाने का इरादा किया।1899 ई. में जब निज़ाम कलकत्ता से दकन वापस जा रहे थे तो दाग़ की प्रेरणा से उनकी मुलाक़ात निज़ाम से हुई और उनका प्रशंसात्मक क़सीदा सुनकर निज़ाम बहुत ख़ुश हुए और उनको हैदराबाद आने की दावत दी। 1900 ई. में अमीर भोपाल होते हुए हैदराबाद पहुंचे लेकिन जाते ही ऐसे बीमार हुए कि फिर न उठ सके और वहीं उनका स्वर्गवास हो गया।
अमीर मीनाई स्वभावतः शरीफ़, नेक, इबादतगुज़ार और धर्मपरायण थे। दरगाह साबरिया के सज्जादा नशीं अमीर शाह साहब से मुरीदी-ओ-ख़िलाफ़त का सौभाग्य प्राप्त था। मिज़ाज में तवक्कुल, फ़क़ीरी और बेपरवाई थी जिसने अतिथि सत्कार और विनम्रता के गुणों को चमका दिया था। इसके साथ ही बेबाकी और ख़ुद्दारी, दोस्त नवाज़ी, शफ़क़त और ऐब को छुपाने में बेमिसाल थे। समकालीन शायरों विशेषतः दाग़ से दोस्ताना सम्बंध थे लेकिन किसी क़दर विरोध और प्रतिद्वंदिता मौजूद थी।

बाद के शायरों में अमीर मीनाई एक उत्कृष्ट दर्जा रखते हैं। क़सीदागोई में उनकी कथन शैली परिपूर्ण है जबकि ग़ज़ल में उनके कलाम का आम जौहर ज़बान की रवानी, विषय की नज़ाकत और शगुफ़्ता बयानी है जिसमें लखनऊ की मुनासबत से हुस्न की रंगीनी के आवश्यक तत्व और नारीवादी विशेषताओं की झलक मौजूद है। कलाम सरासर हमवार है जिसमें अनुकूलता, नाज़ुक ख़्याली, परिपक्वता, विषय सृजन, चित्रण और तसव्वुफ़ ने एक रंगा-रंग चमन खिला दिया है। मुसहफ़ी की तरह ज़बान व छंद के विधान से ज़रा नहीं हटते और अभ्यास के ज़ोर में दो ग़ज़ले और सह ग़ज़ले कहते हैं। उनके बारे में हकीम अबदुलहई कहते हैं, “वे मुकम्मल उस्ताद थे, कलाम का ज़ोर मज़मून की नज़ाकत से दस्त-ओ-गरीबां है, बंदिश की चुसती और संयोजन की दुरुस्ती से लफ़्ज़ों की ख़ूबसूरती पहलू ब पहलू जोड़ते हैं। नाज़ुक ख़्यालात और बुलंद मज़ामीन इस तरह पर बाँधते हैं, बारीक नक्काशी पर फ़साहत-ए-आईना का काम देती है (गुल-ए-राना)। राम बाबू सक्सेना की राय भी क़रीब क़रीब यही है। अमीर की ग़ज़ल में दाग़ की सी बरजस्तगी, शोख़ी और सफ़ाई नहीं लेकिन पुख़्तगी, भाषाज्ञान, शब्दों की उपयुक्तता और विषयों की रंगीनी के एतबार से उनकी ग़ज़ल एक गुलदस्ता होती है। अपने समकालिक दाग़ के मुक़ाबले में उनका व्यक्तित्व ज़्यादा पेचीदा और कर्म क्षेत्र बहुत व्यापक है। उन्होंने शायरी की विभिन्न विधाओं में अभ्यास किया। उनके बहुत से शे’र ख़ास-ओ-आम की ज़बान पर हैं। शायरी से दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई शख़्स होगा जिसने उनका ये शे’र: 
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है 

न सुना होगा।शायरी से हट कर अमीर मीनाई को शोध की भाषा से ख़ास दिलचस्पी थी। उन्होंने उर्दू में ग़लत प्रचलित अरबी और फ़ारसी शब्दों को चिन्हित किया और उनको 300 पृष्ठों की एक किताब में जमा किया। उस किताब का नाम “सुर्मा-ए-बसीरत” है। उनकी किताब "बहार-ए-हिंद” उर्दू के मुहावरों और शब्दावलियों पर आधारित है जिनका प्रमाण अशआर के ज़रिये पेश किया गया है और जिसे अमीर-उल-लुग़ात का नक़्श-ए-अव़्वल कहा जा सकता है। अमीर-उल-लुग़ात उनकी ना-मुकम्मल लुग़त(शब्दकोश) है जिसके सिर्फ़ दो खंड प्रकाशित हो सके।

शायरी में अमीर मीनाई ने “ग़ैरत-ए-बहार”, “मिरात-उल-गैब”, “गौहर-ए- इंतिख़ाब” और "सनम ख़ाना-ए-इश्क़" सहित कई दीवान संकलित किए। अन्तोल्लिखित को वो अपने सभी संग्रहों से बेहतर ख़्याल करते थे। मज़हब और अख़लाक़ में “मोहामद ख़ातिम-उल-नबीयीन” में उनका नाअतिया कलाम है। उन्होंने चार मुसद्दस, “ज़िक्र-ए-शहे अंबिया”, “सुब्ह-ए-अज़ल”, “शाम-ए-अबद” और “लैलत-उल-क़द्र” के उनवान से लिखे। “नूर-ए-तजल्ली” और “अब्र-ए-करम” उनकी दो मसनवीयाँ अख़लाक़-ओ-मार्फ़त के विषय पर हैं। उनके अलावा “नमाज़ के इसरार”, “ज़ाद-उल-मआद” (दुआएं) और “ख़्याबान-ए-आफ़रीनिश” (नस्र में मीलाद की किताब) उनकी यादगार हैं।


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