aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
یہ حضرت علی کے خظوط کا مجموعہ ہے۔ جس کے حاشیہ میں مکتوب الیہ کے حالات بھی مذکور ہیں، نیز تلمیحات و مقامات کی تشریح بھی کردی گئی ہے۔
हज़रत अली इब्न अबी तालिब (599 ई – 661 ई) इस्लामी इतिहास की एक महान, बहुआयामी और बेमिसाल शख्सियत हैं। वे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ﷺ के चचेरे भाई, दामाद और पहले युवा पुरुष थे जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार किया। हज़रत अली शिया मुसलमानों के पहले इमाम और ख़लीफ़ा माने जाते हैं, जबकि सुन्नी मुसलमानों के अनुसार वे ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन में चौथे खलीफा के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
उन्हें बचपन से ही पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ की सरपरस्ती में तालीम और तरबियत मिली, और उन्होंने धर्म, हिकमत (बुद्धिमत्ता), न्याय, तपस्या और नेतृत्व की उच्चतम मिसालें क़ायम कीं। इस्लाम के शुरुआती दौर में उन्होंने न केवल युद्धों में बहादुरी दिखाई, बल्कि ज्ञान और बुद्धि के मैदान में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इस्लामी दुनिया में हज़रत अली को "बाब-उल-इल्म" (ज्ञान का द्वार) कहा जाता है। उनकी बौद्धिक विरासत केवल धार्मिक विषयों तक सीमित नहीं, बल्कि दर्शन, न्यायशास्त्र, नैतिकता और राजनीति जैसे विषयों तक फैली हुई है। उनके उपदेशों, पत्रों और कथनों को "नहजुल बलाग़ा" के नाम से संकलित किया गया है, जो अरबी साहित्य और इस्लामी चिंतन का एक महान ग्रंथ माना जाता है। इस संग्रह में मौजूद उनके विचारों में फसाहत (अभिव्यक्ति की सुंदरता), बलाग़त (शैली), गहराई और रूहानियत की झलक साफ़ दिखाई देती है।
हज़रत अली को अरबी साहित्य के संस्थापकों में गिना जाता है। उनकी गद्य शैली में बौद्धिक गहराई और साहित्यिक नज़ाकत का सुंदर समावेश है। उनके भाषण विषयों की विविधता, शैली की सुंदरता और अर्थ की परतों से भरपूर होते हैं। उनके सुविचार आज भी पूरी दुनिया में बुद्धिमत्ता और मार्गदर्शन के रूप में याद किए जाते हैं।
उनकी कुछ कविताएं भी साहित्यिक धरोहर मानी जाती हैं, जिनमें नैतिक शिक्षाएं, दुनिया की नश्वरता और ईश्वरीय ज्ञान की झलक मिलती है। यद्यपि हज़रत अली को अधिकतर गद्य और भाषण के लिए जाना जाता है, परंतु उनके कुछ शेर अरबी शास्त्रीय कविता का हिस्सा बन चुके हैं।
हज़रत अली ने साहित्य को केवल भाषा का खेल नहीं समझा, बल्कि इसे विचार, दर्शन और आध्यात्मिकता का माध्यम बनाया। उनकी गद्य रचनाओं में कुरआनी शैली की छाप और उनकी चिंतनशील दृष्टि ने बाद के सूफ़ी और दार्शनिक साहित्य को गहराई से प्रभावित किया।
हज़रत अली की शहादत 661 ईस्वी में मस्जिद-ए-कूफ़ा में फज्र की नमाज़ के दौरान हुई। उनका मक़बरा नजफ़ अशरफ़ (इराक़) में स्थित है, जो आज भी ज्ञान और आध्यात्मिकता की खोज करने वालों के लिए एक केंद्र है।
हज़रत अली की शख्सियत में एक महान योद्धा, न्यायप्रिय शासक, तपस्वी इंसान, विद्वान व्याख्याकार और सुबोध वक्ता की सभी खूबियां एक साथ समाहित थीं। वे इस्लामी इतिहास का वह अनमोल दीपक हैं, जिसकी रौशनी आज भी सोच और कर्म की राहों को रौशन करती है।