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लेखक : सर सय्यद अहमद ख़ान

संपादक : मोहम्मद इस्माईल पानीपति

संस्करण संख्या : 002

प्रकाशक : अहमद नदीम क़ासमी

प्रकाशन वर्ष : 1984

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शोध एवं समीक्षा, लेख एवं परिचय

उप श्रेणियां : मज़ामीन / लेख, लेख

पृष्ठ : 420

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली

maqalat-e-sir syed
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पुस्तक: परिचय

سرسید احمد خان انیسویں صدی کی وہ عہد آفریں شخصیت تھے جن کی ہمہ گیری کے اثرات بیک وقت ادب ، سیاست ، معاشرت ، تعلیم ، مذہب اور صحافت پر پڑے۔ سر سید کے متعدد عظیم الشان کارناموں میں سے ان کی ادبی خدمات کو نمایا حیثیت حاصل ہے۔ انہوں نے سترہ برس کی عمر میں قلم سبھالا اور وفات تک برابر لکھتے رہے۔ اس طویل عرصے میں انہوں نے مختلف موضوعات پر بہت سی کتابیں تصنیف اور تالیف کیں۔ دوسروں کی کتابیں تصحیح کے بعد شائع بھی کیں۔ مگر سرسید کی ادبی حیثیتوں میں سب سے بڑی اور سب سے نمایا حیثیت ان کی مضمون نگاری اور مقالہ نویسی ہے۔ وہ اپنے دور کے سب سے بڑے اور سب سے اعلی مضمون نگار تھے۔ انہوں سے سینکڑوں مضامیں اور طویل مقالے بڑی تحقیق و تدقیق اور محنت و کاوش سے لکھے اور اپنے پیچھے ایک عظیم الشان ذخیرہ نادر مضامین اور بلند پایہ مقلات کا چھوڑ گئے۔ ان کے بیش بہا مقالات و مضامین لٹریچر کے لئے مایہ ناز اور عوام و خواص کے لئے بے حد مفید ہیں۔ ان سے معلومات میں اضافہ اور نظر میں وسعت پیدا ہوتی ہے، اور علم و ادب اور مذہب و تاریخ کے ہزاروں عقدے حل ہوتے ہیں۔ ان مقالات كی خوبی یہ ہے كہ ان میں علمی اور مدلل نثر اور انداز بیان کے علاوہ علمی حقائق بھی ہیں اور ادبی لطف بھی، سیاست بھی اورمعاشرت بھی،اخلاق بھی ،مزاح ہے تو طنز بھی ہے ،درد ہے تو سوز بھی دلچسپی ،دلكشی كے ساتھ نصیحت اور سرزنش بھی موجود ہے۔گویا سرسید كے مقالات ایك سدا بہار گلدستہ ہے۔جن میں رنگ برنگے ہر قسم كے پھول موجود ہیں۔یہ مقالات عہد سرسید میں كئی رسائل اور خود سرسید كا رسالہ تہذیب الاخلاق میں شائع ہوچكے ہیں۔ محمد اسماعیل پانی پتی نے نہایت تلاش و جستجو کے بعد سر سید کے مضامین و مقالات کو کئی جلدوں میں موضوعات کے اعتبار سے ترتیب دیکر شائع کیا ہے۔ زیر نظر پہلی جلد ہے جس میں مذہبی و اسلامی مضامین شامل ہیں۔

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लेखक: परिचय

हिन्दोस्तान में जिस व्यक्ति ने शिक्षा को नया रूप और उर्दू नस्र को नई सूरत प्रदानं की उसका नाम सर सैयद अहमद खां है.आधुनिक शिक्षा के प्रेरक और आधुनिक उर्दू नस्र के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खां ने सिर्फ़ शैली ही नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों के एहसास के ढंग को भी बदला.उन्होंने वैज्ञानिक,कथ्यात्मक और तर्कपूर्ण विचारों को बढ़ावा दिया.उनके आंदोलन ने शायरों और नस्र लिखनेवालों की एक बड़ी संख्या को प्रभावित किया.सर सैयद की गिनती हिन्दुस्तान के बड़े सुधारवादियों में होती है.

सैयद अहमद की पैदाइश 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सैयद घराने में हुई .उनके पिता सैयद मुतक्की मुहम्मद शाह अकबर सानी के सलाहकार थे.दादा सैयद हादी आलमगीर शाही दरबार में ऊँचे पद पर आसीन थे और नाना जान ख्वाजा फ़रीदुद्दीन शहंशा अकबर सानी के दरबार में  वज़ीर थे.पूरा परिवार मुगल दरबार से सम्बद्ध था. उनकी माता अज़ीज़ुन्निसा बहुत ही संभ्रांत महिला थीं.सर सैयद के आरंभिक जीवन पर उनकी दीक्षा का गहरा प्रभाव है.अपने नाना ख्वाजा फ़रीदुद्दीन से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने खालू(मौसा)मौलवी खलीलुल्लाह की संगत में अदालती कामकाज सीखा.
सर सैयद को पहली नौकरी आगरा की अदालत में नायब मुंशी के रूप में मिली और फिर अपनी मेहनत से तरक्क़ी पाते रहे.मैनपुरी और फतेहपुर सीकरी में भी सेवाएँ दीं.दिल्ली में सदरे अमीन हुए.इसके बाद बिजनौर में उसी पद पर आसीन रहे.मुरादाबाद में सद्रुस्सुदुर की हैसीयत से तैनाती हुई.यहाँ से गाज़ीपुर और फिर बनारस में नियुक्त रहे.इन क्षेत्रों में श्रेष्ठ सेवाओं की वजह से बहुत लोकप्रीय रहे .जिसे स्वीकार करते हुए बरतानवी हुकूमत ने 1888 में ‘सर’ के ख़िताब से नवाज़ा.

उन स्थानों में निवास और बिरादरी की सामूहिक परिस्थिति ने सर सैयद को बेचैन कर दिया.बग़ावत और फ़साद ने भी उनके ज़ेहन को बहुत प्रभावित किया. राष्ट्र के कल्याण के लिए वह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हुए .उस अँधेरे में उन्हें नई शिक्षा की रौशनी अकेली सहारा नज़र आयी जिसके ज़रीये वह पूरी बिरादरी को जड़ता से निकाल सकते थे.अतः उन्होंने निश्चय किया कि इस बिरादरी के ज़ेह्न से अंग्रेज़ी ज़बान और पाश्चात्य शिक्षा से घृणा को ख़त्म करना होगा,तभी उनपर बंद किये गये सारे दरवाज़े खुल सकते हैं ,वर्ना यह पूरी बिरादरी खानसामा  और सेवक बन कर ही रह जायेगी.इस भावना और उद्देश्य से उन्होंने 1864 में गाज़ीपुर में साइंटिफिक सोसाइटी स्थापित की.1870 में ‘तहज़ीबुल अखलाक़’ जारी किया.साइंटिफिक सोसाइटी का उद्देश्य पश्चिमी भाषाओं लिखी गयी किताबों का उर्दू में अनुवाद करना था और ‘तहज़ीबुल अखलाक़’  के प्रकाशन का उद्देश्य आम मुसलमानों की प्रतिभा को निखारना था.1875 में अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम फिर मोहमडन ओरिएंटल कालेज की स्थापना के पीछे भी यही भावना और उद्देश्य था.सर सैयद को अपने इस उद्देश्य में सफलता मिली  और आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में सर सैयद के ख़्वाबों का परचम पूरी दुनिया में  लहरा रहा है.

सर सैयद ने अलीगढ़ आंदोलन को जो रूप प्रदान किया था उसने हिन्दुस्तानी राष्ट्र और समाज को बहुत से स्तरों पर प्रभावित किया है.इस आंदोलन ने उर्दू ज़बान व अदब को ना सिर्फ़ नये विस्तार से परिचय कराया बल्कि वर्णन शैली और विषयों को बदलने में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है.उर्दू नस्र को सादगी ,सरलता से परिचय कराया ,साहित्य को उद्देश्यपूर्ण बनाया अदब को ज़िंदगी और उसकी समस्याओं से जोड़ा.उर्दू नज़्म में प्रकृति को शामिल किया.

सर सैयद ने अपनी नस्र में सादगी. ख्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली,अल्लामा शिब्ली,मौलवी नज़ीर अहमद, मौलवी ज़का उल्लाह सभी ने अलीगढ़ आंदोलन से रौशनी हासिल की और उर्दू ज़बान व अदब को विचार व दृष्टि के दृष्टिकोण दिये.

सर सैयद ने भी अपनी रचनाओं में इसे अनिवार्य किया.उनकी रचनाओं में‘‘आसारुससनादीद’ ‘असबाबे बगावते हिन्द’,खुत्बाते अहमदिया’,’तफसीरुल क़ुरान’,’तारीख़े सरकशी बिजनौर’ बहुत महत्वपूर्ण हैं. ‘आसारुस सनादीद’ दिल्ली की प्राचीन एतिहासिक ईमारतों के हवाले से एक कीमती दस्तावेज़ है तो ‘असबाबे बगावते हिन्द’में ग़दर के हालात दर्ज हैं.इस किताब के द्वारा उन्होंने अंग्रेज़ों की बदगुमा नी दूर करने की कोशिश की है .’खुत्बाते अहमदिया’में उस इसाई लेखक का जवाब है जिसने इस्लाम की आकृति को विदीर्ण करने की कोशिश की थी.’तफसीरुल क़ुरान’सर सैयद की विवादित पुस्तक है जिसमें उन्होंने क़ुरान की बौद्धिक टीका की और चमत्कारों से इन्कार किया.सर सैयद के यात्रावृत और आलेख भी पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुके हैं.

एक महान शिक्षण आंदोलन के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खां का देहांत 27 मार्च 1898 में हुआ. वह मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ की जामा मस्जिद के अहाते में दफ़न हैं.


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