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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : मीर ख़लीक़

प्रकाशक : सादिक़ प्रेस, लखनऊ

मूल : लखनऊ, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1934

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : मर्सिया

पृष्ठ : 24

सहयोगी : सेंट्रल लाइब्रेरी ऑफ़ इलाहबाद यूनिवर्सिटी, इलाहबाद

marsiya dar hal shahadat ali akbar
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लेखक: परिचय

हमारी सोच के निर्माण में जो कारक कारफ़रमा होते हैं उनमें नस्ल, विरासत और परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नस्ल से शारीरिक रचना और नुक़ूश का निर्धारण होता है और विरासत में स्वभाव और मानसिक क्षमताएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती हैं। आधुनिक खोज के अनुसार सिफ़ात बर्दार जीन्स माता-पिता से बच्चों में आजाती हैं लेकिन प्रकृति के नियम के अनुसार कुछ गुण प्रमुख और प्रभावशाली होते हैं और कुछ पिछड़े और अप्रभावी या सुस्त रहते हैं। शुरू ही से बच्चों में उन प्रभावशाली गुणों का इज़हार होता है जो अगर वातावरण अनुकूल हो तो विकसित हो जाते हैं और बच्चे के व्यक्तित्व के एक ख़ास लक्षण का निर्धारण करते हैं जैसे पूत के पाँव पालने ही में मालूम होजाते हैं कि वो किस दिशा चलेगा। ऐसे लक्षण आमतौर पर दो या तीन पीढ़ियों से ज़्यादा हस्तांतरित नहीं होते हैं। इसकी वजह यह है कि गुणों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया संख्या में वृद्धि के कारण ज़्यादा फैलाव इख़्तियार कर लेता है। उदाहरण के लिए, अगर किसी परिवार में एक बौद्धिक या कलात्मक क्षमता जैसे शायरी या संगीत दो तीन पुश्तों से ज़्यादा क्रमवार सात या आठ पुश्तों तक चलती रहे तो यह इंसानी समाज में विरासत में मिली विशेषताओं का एक असाधारण घटना समझा जाएगा।

उर्दू शायरी में मीर अनीस का ख़ानदान में ये दुर्लभ गुण हैं कि निरंतर आठ पीढ़ियों तक उसमें ऐसी उच्च श्रेणी की शायरी जारी रही जिसको उर्दू भाषा में सनद का दर्जा हासिल है।

मीर ज़ाहिक़ के बेटे मीर हसन थे, उनके फ़र्ज़ंद मीर ख़लीक़ थे। मीर ख़लीक़ के बाद भी शे’र गोई और मर्सिया निगारी का सिलसिला चार पीढ़ियों तक चलता रहा। उनके बेटे मीर अनीस और उनके पुत्र मीर नफीस, उनके बेटे उरूज और फिर उनके साहबज़ादे मीर फ़ाइज़ मर्सिया निगार असातिज़ा में शुमार होते हैं। कोई भी अर्जित कला किसी परिवार में कई पीढ़ियों तक जारी नहीं रहता। यह केवल उसी परिवार के लिए विशिष्ट है कि शायरी की आत्मविस्मृति-सम्बंधी कला आठ पीढ़ियों तक चलती रही यानी ढाई शताब्दियों से कुछ अधिक समय तक। ये ईरानी मूल का मूसवी सादात का ख़ानदान है जो शहर हिरात (अफ़ग़ानिस्तान) से शाहजहाँ बादशाह के दौर में दिल्ली आकर आबाद हुआ था। उस ज़माने में दिल्ली का मुग़ल दरबार ज्ञान और साहित्य का केंद्र था। उस ख़ानदान के एक फ़र्द मीर इमामी थे जो बहुत ही योग्य व श्रेष्ठ और अद्वितीय न्यायविद थे और उन्हें शायरी से भी ज़ौक़ रखते थे। बादशाह ने सम्मानित और क़द्रदानी की और तीन हज़ारी मन्सब अता किया। चार पीढ़ियों तक यह ख़ानदान दिल्ली में सम्मानित व प्रतिष्ठित ज़िंदगी बसर करता रहा। जब मुग़लिया सल्तनत का पतन शुरू हुआ तो कलाकारों की आर्थिक परेशानियाँ बढ़ने लगीं। शरीफ़ और साहिब-ए-कमाल लोगों ने दिल्ली की रिहायश छोड़ दी और अवध का रुख़ किया। मीर इमामी मूसवी के पड़पोते मीर ग़ुलाम हुसैन ज़ाहिक भी अपने बड़े बेटे मीर हसन को साथ लेकर अवध की राजधानी फ़ैज़ाबाद आ गए। फ़ैज़ाबाद में अवध सरकार ने एक मुहावरों और कहावतों को संकलित करने का एक दफ़्तर क़ायम किया था। मीर हसन उसके मीर-ए-मुंशी मुक़र्रर किए गए। उनका निवास फ़ैज़ाबाद के मुहल्ला गुलाब बाड़ी में था जहाँ आजकल “अनीस-ओ-चकबस्त लाइब्रेरी” स्थित है।

मीर मुस्तहसिन ख़लीक़, मीर ग़ुलाम हसन तख़ल्लुस मीर हसन के मँझले बेटे थे। रीति के अनुसार उनकी शिक्षा-दीक्षा घर ही पर हुई थी। घर की ज़बान मुहावरे रोज़मर्रा और पाकीज़गी में सनद समझी जाती थी। शेख़ इमाम बख़्श नासिख़ भी अपने शागिर्दों को ये हिदायत दिया करते थे कि अगर ज़बान सीखना हो तो ख़लीक़ के हाँ जाया करो। तज़्किरा जात में आया है कि सोलह बरस की उम्र से तबीयत शायरी की तरफ़ उन्मुख हुई। ज़रूरी तालीम फ़ैज़ाबाद और लखनऊ के उस्तादों ने मुकम्मल करा दी थी। ख़लीक़ ने आरंभ में कुछ दिन अपने वालिद मीर हसन से अपने कलाम को संशोधित कराया। मीर हसन उन दिनों “मसनवी सह्र उल ब्यान”  लिखने में मसरूफ़ थे इसलिए उन्होंने ख़लीक़ को मुसहफ़ी की शागिर्दी में दे दिया। ये भी बयान किया जाता है कि पहले मीर हसन ख़लीक़ को मीर तक़ी मीर के पास ले गए लेकिन उन्होंने कहा कि वो अपने ही औलाद के प्रशिक्षण पर ध्यान नहीं दे पारहे हैं तो किसी और की त्रुटियों को ठीक करने और प्रशिक्षण का दिमाग़ कहाँ से लाएंगे। मीर साहब से ये जवाब सुंनने के बाद ही उनको मुसहफ़ी के सपुर्द किया। इसमें शक नहीं कि ग़ज़लों की हद तक मुसहफ़ी ने ख़लीक़ की मुनासिब रहनुमाई की और उस फ़न की बारीकियों से अवगत कराया। ये भी कहा जाता है कि मुसहफ़ी ने शायरों के तज़किरों पर आधारित किताब “तज़किरा हिन्दी” मीर ख़लीक़ की फ़र्माइश पर सम्पादित की। मीर ख़लीक़ की आरंभिक नौकरी फ़ैज़ाबाद के एक नीशापुरी ख़ानदान में 15 रुपये मासिक पर हुई थी। इसके बाद वो नवाब आसिफ़ उद्दौला के बहनोई मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी ख़ां तरक़ी की सरकार से सम्बद्ध हो गए थे। कभी कभी फ़ैज़ाबाद से लखनऊ आया करते और मिर्ज़ा फ़ख़्र उद्दीन उर्फ़ मिर्ज़ा जाफ़र के हाँ जो मुहल्ला पीर बुख़ारा में रहते थे कुछ दिन मेहमान रहा करते थे और लखनऊ में होने वाले मुशायरों और अदबी महाफ़िलों में शिरकत करते थे। उस वक़्त उनकी ग़ज़लगोई उठान पर थी। एक बार मिर्ज़ा तक़ी ख़ां तरक़ी ने एक मुशायरा बजाय लखनऊ के फ़ैज़ाबाद में आयोजित किया और ख़्वाजा आतिश को भी लखनऊ से बुलवाया। उस मुशायरे में मिस्र ए तरह था,
मिस्ल-ए-आईना है इस रश्क-ए-क़मर का पहलू

मीर ख़लीक़ ने इस तरह के मिसरे से ग़ज़ल का मतला बना कर पेश किया,

मिस्ल-ए-आईना है इस रश्क-ए-क़मर का पहलू
साफ़ इधर से नज़र आता है उधर का पहलू

यह ग़ज़ल सुनने के बाद आतिश ने अपनी ग़ज़ल फाड़ डाली और कहा कि जब ऐसा शख़्स यहाँ मौजूद है तो मेरी क्या ज़रूरत है।

मुहावरों और कहावतों अदबी दफ़्तर जिसके मीर-ए-मुंशी मीर हसन थे, बाद को मीर ख़लीक़ की निगरानी में दे दिया गया। जहाँ ज़बान की ख़ूब छानबीन होती थी। सआदत यार ख़ां रंगीन देहलवी जब फ़ैज़ाबाद आए तो मीर ख़लीक़ से मुलाक़ात की और रंगीन ने मीर हसन की “मसनवी सह्र उल ब्यान” के कुछ संदिग्ध अशआर के बारे में अपने विचार व्यक्त किए और उनसे सुधार कराया।

मीर ख़लीक़ का स्थायी निवास तो फ़ैज़ाबाद में रहता था लेकिन जैसा कि ऊपर बयान हुआ है कि वो कुछ-कुछ मुद्दत के लिए लखनऊ भी आ जाया करते थे। यक़ीन के साथ नहीं मालूम कि उन्होंने कब फ़ैज़ाबाद का निवास स्थान छोड़ कर लखनऊ में क़ियाम इख़तियार किया। जब तक फ़ैज़ाबाद में रहे अहल-ए-सुख़न की इस्लाह का काम अंजाम देते रहे चुनांचे उनके शागिर्दों में मीर अवसत अली रश्क और सय्यद मुहम्मद ख़ां रिंद भी थे। लखनऊ आने के बाद दोनों के विषयों में, शे’र में जो अंतर है, वह उनकी कल्पना शक्ति को दर्शाता है। मीर अनीस ने रुख़ पर तिल को नाख़ुन पर स्याह नुक़्ते की उपमा देकर बेहद जानदार मज़मून पैदा किया है।

इस ख़ानदान में ग़ज़लगोई का सिलसिला अनीस पर आकर ख़त्म हो गया बल्कि जहाँ ख़लीक़ की ग़ज़लें बमुशकिल उपलब्ध हैं वहाँ अनीस की ग़ज़लों का कोई भी स्रोत नहीं है। अनीस आरंभ में ग़ज़लों पर ख़लीक़ ही से इस्लाह लिया करते थे। बाप ने ये महसूस किया कि ग़ज़ल का मैदान अनीस के लिए तंग होगा, इसलिए उन्होंने एक दिन ग़ज़ल पर इस्लाह देने के बाद अनीस से कहा कि “मियां, अब इस ग़ज़ल को सलाम करो।” उस दिन से अनीस ने अपने वालिद के मश्वरे पर अमल किया और बाद में सिर्फ सलाम और मर्सिये ही कहे। ख़लीक़ की राय कितनी ठीक थी कि उन्होंने उर्दू को अनीस जैसा शायर दिया जिसके कलाम के वज़न शे’र के तराज़ू का पल्ला गिरां कर दिया।

ग़ज़ल के जो अशआर मीर अनीस से सम्बद्ध हैं उनके प्रामाणिक होने का कोई सबूत नहीं लेकिन अशआर का हुस्न ख़ुद ही इसका गवाह है,

आशिक़ को देखते हैं दुपट्टा को तान कर
देते हैं हमको शर्बत-ए-दीदार छानकर

रख के मुँह सो गए हम आस्तीं रुख़्सारों पर
इतना जागे थे कि नींद आगई अंगारों पर

खुला बाइस ये इस बेदर्द के आँसू निकलने का
धुआँ लगता है आँखों में किसी के दल के जलने का

लिख कर ज़मीं पे नाम हमारा मिटा दिया
उनका था खेल ख़ाक में हमको मिला दिया

मीर ख़लीक़ के ज़माने में चूँकि नासिख़ की सुधार की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी और भाषा की सरलता के अनुसार शब्दों के छोड़ने और अपनाने का सिलसिला जारी था इसलिए मीर ख़लीक़ के आरंभिक अशआर में और आख़िर उम्र के कलाम में अच्छा-ख़ासा फ़र्क़ है। उनका कलाम दिल्ली और लखनऊ के दबिस्तानों के बीच के दौर का नमूना है जिसमें उन्होंने मुहावरों और रोज़मर्रा के इस्तेमाल में निहायत नफ़ासत से काम लिया और यही चीज़ मीर अनीस ने विरासत में पाई थी।

मीर ख़लीक़ ने सन् 1844 में अपनी आयु के 77 साल गुज़ारने के बाद इस नश्वर दुनिया से कूच किया और विरासत में 3 लड़के और 4 लड़कियां छोड़ीं जिनमें मीर बब्बर अली अनीस सबसे बड़े थे,

जो इनायत इलाही से हुआ नेक हुआ
नाम बढ़ता गया जब एक के बाद एक हुआ

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