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लेखक: परिचय

लफ़्ज़ों का मुजस्समा साज़


“मुझे सबसे ज़्यादा ग़रज़ अपने कुछ विचारों की अभिव्यक्ति से हमेशा रही है और उनकी रिसालत (कम्युनिकेशन) को मैंने अहम जाना है। मेरे नज़दीक शायरी मात्र ध्वनियों या शब्दों का खेल नहीं बल्कि दूसरों के विचारों में उत्साह पैदा करने का नस्र से ज़्यादा प्रभावपूर्ण माध्यम है। इस दौर में शे’र की दुनिया कुछ ऐसी बदली है कि ख़ुद मुझे अपनी शायरी किसी दफ़न हुए शहर से निकले हुए पुरातत्व की तरह क़ीमती मालूम होने लगी है।” ( नून.मीम. राशिद)

नून मीम राशिद ऐसे शायर हैं जिन्होंने न केवल ये कि अपने दौर की रूह की तर्जुमानी की बल्कि नई पीढ़ी में नई चेतना पैदा कर के सृजनात्मक स्तर पर नए रवय्यों को निर्धारित करने का भी काम किया। आज़ाद नज़्म(स्वतंत्र कविता) को आम करने में उनका नाम सर्वोपरि है। राशिद ने परम्परा से हट कर उर्दू नज़्म में एक नई शैली की बुनियाद रखी। वो उर्दू के उन गिने चुने शायरों में हैं जिनकी शायरी न तो मात्र ज़बान की शायरी है और न मात्र मनोदशा की। उनकी शायरी विचार और ज्ञान की शायरी है। वो ख़ुद भी सोचते हैं और दूसरों को भी सोचने पर मजबूर करते हैं। और उनकी सोच का दायरा बहुत विस्तृत, अंतर्राष्ट्रीय और सार्वभौमिक है। वो मज़हबी, भौगोलिक, भाषायी और दूसरी हद-बंदियों को तोड़ते हुए एक ऐसे विश्व मानव के क़सीदाख़वां हैं जो एक नया मिसाली इंसान है जिसे वो “आदम-ए-नौ” या नया आदमी कहते हैं, ये ऐसा इंसान है जिसके बाहर और अंदर में पूर्ण सामंजस्य है और जो दुनिया में हाकिम है न मह्कूम... ऐसे इंसान का ख़्वाब राशिद की विचार व ज्ञान का विशेष संदर्भ है। राशिद का शे’री मिज़ाज रूमी, इक़बाल, दांते और मिल्टन जैसे शायरों से मिलता है जो एक ख़ास सतह से नीचे नहीं उतरते क्योंकि वो जिन समस्याओं और विषयों से दो-चार हैं वो उन साधारण समस्याओं और मनोदशाओं से भिन्न हैं जो गेय शायरी में विविधता, लोच और लचक पैदा करते हैं उनकी शायरी से लुत्फ़ अंदोज़ होने के लिए एक बौद्धिक स्वभाव की ज़रूरत है और इस लिहाज़ से वो अवाम के नहीं बल्कि ख़वास के शायर हैं।

नून मीम राशिद एक अगस्त 1910 को पाकिस्तान के ज़िला गुजरांवाला के क़स्बे अकाल गढ़ (मौजूदा अलीपुर चठ) के एक ख़ुशहाल घराने मेँ पैदा हुए। उनके वालिद का नाम राजा फ़ज़ल इलाही चिशती था जो डिस्ट्रिक्ट इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्ज़ थे। उन्होंने उसी क़स्बे के गर्वनमेंट स्कूल से1926 में मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। घर में शे’र-ओ-शायरी का चर्चा था। दादा जो पेशे से डाक्टर और सिवल/मिल्ट्री सर्जन थे उर्दू और फ़ारसी में शे’र कहते थे और वालिद भी शायरी के दिलदादा थे। राशिद को बचपन से ही शायरी का शौक़ पैदा हो गया। सात-आठ साल की उम्र में उन्होंने पहली नज़्म ‘इंस्पेक्टर और मक्खियां’ लिखी। उस नज़्म में उस इंस्पेक्टर का ख़ाका उड़ाया गया था जो उनके स्कूल के मुआइने के लिए आया था और जिसके सर पर मक्खियों के एक झुंड ने हमला कर दिया था और वह उनको दूर करने के लिए अपने सर पीठ और गाल पर चपतें मार रहा था। उस नज़्म के लिए बाप ने उनको एक रुपया इनाम दिया, दादा भी ख़ुश हुए लेकिन शायरी से दूर रहने की ताकीद भी की। शुरू में राशिद ने कुछ हमदें और ना’तें भी लिखीं जो गुमनाम रिसालों में प्रकाशित हुईं। राशिद के वालिद ख़ुद शे’र कम कहते थे लेकिन हाफ़िज़, सादी, ग़ालिब और इक़बाल के शैदाई थे। उनकी बदौलत राशिद को उर्दू-फ़ारसी के बड़े शायरों के कलाम से आगाही हुई। राशिद स्कूल के ज़माने में अंग्रेज़ी के शायरों से भी प्रभावित हुए और उन्होंने मिल्टन,वर्ड्सवर्थ और लॉंग फ़ैलो की कुछ नज़्मों के अनुवाद किए और स्कूल की अदबी महफ़िलों में पढ़ कर इनाम के हक़दार बने।

1926 में राशिद ने उच्च शिक्षा के लिए गर्वनमेंट कॉलेज लायलपुर में दाख़िला लिया जहां अंग्रेज़ी अदब,तारीख़, फ़ारसी और उर्दू उनके मज़ामीन थे। वहां उनको उनकी काव्य रूचि को देखते हुए कॉलेज की पत्रिका “बेकन” का छात्र सम्पादक बना दिया गया। उस ज़माने में उन्होंने अंग्रेज़ी में कई आलेख लिखे। उस युवावस्था में भी वो ख़ासे तेज़ तर्रार थे। लायलपुर से एक रिसाला ‘ज़मींदार गज़ट’ निकलता था जिसके सम्पादक से उनकी दोस्ती थी। उसके कहने पर उस पत्रिका का सम्पादन सँभाल लिया और देहात सुधार पर कई आलेख लिखे।1928 में इंटरमीडिएट पास करने के लिए गर्वनमेंट कॉलेज लाहौर में दाख़िला लिया, वो कॉलेज के मुशायरों में हिस्सा लेने लगे और कॉलेज के रिसाला “रावी” के उर्दू सेक्शन के एडिटर बना दिए गए। उसमें उनकी कई नज़्में और हास्य लेख प्रकाशित हुए। जल्द ही उनकी रचनाएं “निगार” और “हुमायूँ” जैसी मानक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। 1930 में राशिद ने बी.ए पास करने के बाद अर्थशास्त्र में एम.ए करने का फ़ैसला किया और साथ ही फ़्रांसीसी की रात्रि कक्षाओं में भी शिरकत कर के सेकेंड्री के बराबर सनद हासिल कर ली। साथ ही उन्होंने आई.सी.एस, पी.सी.एस में भी क़िस्मत आज़माई की लेकिन नाकाम रहे। उर्दू के पर्चे में उनको सबसे कम नंबर मिले थे। उसी अर्से में उन्होंने मुंशी फ़ाज़िल का इम्तिहान भी पास कर डाला। उस अर्से में उनके आलेख “उर्दू शायरी पर ग़ालिब का असर,” “ज़फ़र अली ख़ां की शायरी” और “इम्तियाज़ अली ताज का ड्रामा अनार कली” वग़ैरा प्रकाशित होते रहे। इसमें उनको डाक्टर दीन मोहम्मद तासीर की रहनुमाई हासिल थी। एम.ए करने के बाद वो अपने वालिद के साथ कई विभिन्न जगहों पर रहे और ख़ासा वक़्त शेख़ूपुरा और मुल्तान में गुज़ारा। 1934 में ताजवर नजीब आबादी के रिसाला “शहकार” का सम्पादन किया लेकिन एक साल बाद उससे अलग हो गए। फिर बेकारी से तंग आकर मुल्तान के कमिशनर के दफ़्तर में बतौर क्लर्क मुलाज़मत कर ली। उसी ज़माने में उन्होंने अपनी पहली आज़ाद नज़्म “जुरअत-ए-परवाज़” लिखी लेकिन पाठकों को जिस नज़्म ने सबसे ज़्यादा चौंकाया वो “इत्तफ़ाक़ात” थी जो “अदबी दुनिया” लाहौर के वार्षिकी में प्रकाशित हुई थी। 1935 में उनकी शादी मामूं ज़ाद बहन से कर दी गई।

जिस ज़माने में राशिद मुल्तान में क्लर्क थे, वो इनायत उल्लाह ख़ान मशरिक़ी की ‘ख़ाकसार तहरीक’ से प्रभावित हो गए और मुल्तान के सालार बना दिए गए। वो उस तहरीक की डिसिप्लिन से प्रभावित हो कर उसमें शामिल हुए थे और डिसिप्लिन की मिसाल क़ायम करने के लिए अपनी एक ख़ता पर ख़ुद को सर-ए-आम कोड़े भी लगवाए थे लेकिन जल्द ही वो तहरीक की तानाशाही से निराश हो कर ख़ामोशी से अलग हो गए। उसी ज़माने में नॉवेल “माया” का तर्जुमा भी किया जिसका मुआवज़ा पब्लिशर डकार गया और किताब पर उनका नाम तक दर्ज नहीं किया।

मई 1939 में उनकी नियुक्ति ऑल इंडिया रेडियो में न्यूज़ एडिटर के रूप में हुई और उसी साल प्रोग्राम अस्सिटेंट बना दिए गए, फिर उन्हें डायरेक्टर आफ़ प्रोग्राम के पद पर तरक़्क़ी दे दी गई। 1941 में उनका तबादला दिल्ली कर दिया गया। राशिद ख़ासे दुनियादार और होशमंद आदमी थे। पारम्परिक शायरों जैसी दरवेशी या लाउबालीपन से उन्हें दूर का भी वास्ता नहीं था। वो ख़ूब जानते थे कि किससे क्या काम लेना है, किससे बना कर रखनी है और किस पर अपनी अफ़सरी की धौंस जमानी है। दिल्ली रेडियो पर वो उस पंजाबी लॉबी में शामिल थे जो मजाज़ और अख़तरुल ईमान जैसे सादा-लौह शायरों की बर्खास्तगी का कारण बनी थी। अपनी उन ही तर्रारियों की बदौलत वो 1942 में फ़ौज में अस्थायी कमीशन हासिल कर के समुंदर पार चले गए और फिर उनकी दुनियावी तरक़्क़ी का रास्ता हमवार होता चला गया। 1943 से 1947 तक वो इंटर सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशन्ज़ डायरेक्ट्रेट इंडिया के तहत इराक़, ईरान, मिस्र, सीलोन (श्रीलंका) वग़ैरा में रहे। फ़ौज की मुद्दत मुलाज़मत के ख़ातमा पर वो ऑल इंडिया रेडियो में वापस आ गए और लखनऊ स्टेशन के रीजनल डायरेक्टर बना दिए गए। देश विभाजन के बाद उसी पद पर वो रेडियो पाकिस्तान पेशावर पर नियुक्त किए गए। एक साल पेशावर में और डेढ़ साल लाहौर में गुज़ारा फिर 1949 में उनको रेडियो पाकिस्तान के सदर दफ़्तर कराची में डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन्ज़ बना दिया गया। इसके बाद 1950 से 1951 तक पेशावर स्टेशन के रीजनल डायरेक्टर के पद पर काम किया। 1952  में वो संयुक्तराष्ट्र संघ में शामिल हुए और न्यूयार्क, जकार्ता, कराची और तेहरान में संयुक्तराष्ट्र संघ के सूचना विभाग में काम करते रहे। 1961 में बीवी के देहांत के बाद उन्होंने 1963 में दूसरी शादी कर ली। ये उनसे उम्र में 20 साल छोटी, बाप की तरफ़ से इतालवी और माँ की तरफ़ से अंग्रेज़ और स्कूल में उनकी बेटी की अध्यापिका थीं। शायरी के अलावा राशिद के दूसरे शौक़, घुड़सवारी, शतरंज, किशतीरानी थे। शराबनोशी कभी कम और कभी ज़्यादा उस वक़्त तक चलती रही जब तक दिल की बीमारी के नतीजे में डाक्टरों ने सख़्ती से मना नहीं कर दिया। मुशायरों में बहुत कम शरीक होते थे। राशिद का स्वर्गवास 1975 में दिल की धड़कन रुक जाने से इंग्लैंड के क़स्बा चल्टनहम में हुआ और अंतिम संस्कार कहीं नहीं हुआ क्योंकि उनकी कथित वसीयत के मुताबिक़ उनकी लाश को जलाया जाना था। पाकिस्तान में इस बात पर ख़ासी नाराज़गी जताई गई थी, यहां तक कि बाक़ायदा तौर पर श्रद्धांजलि सभाएं भी नहीं हुईं।

नून मीम राशिद के चार काव्य संग्रह मावरा (1942), ईरान में अजनबी (1955), ला=इंसान (1969) और गुमाँ का मुम्किन (1977) प्रकाशित हुए। ईरान में क़ियाम के दौरान उन्होंने 80 आधुनिक फ़ारसी शायरों के कलाम का अनुवाद “जदीद फ़ारसी शायर” के नाम से संकलित किया। उनके अनगिनत आलोचनात्मक आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए जिनको किताबी आकार नहीं मिला है। फ़ैज़ ने “नक़्श-ए-फ़रयादी” की भूमिका राशिद से ही लिखवाई थी हालांकि राशिद कभी प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े नहीं रहे। वो हलक़ा-ए-अर्बाब-ए-ज़ौक़ से सम्बंध रखते थे।

नून मीम राशिद कभी फ़ैज़ या मजाज़ की तरह लोकप्रिय शायर नहीं रहे, उसकी वजह ये है कि राशिद की शायरी में विभिन्न घटकों का जो संयोजन है वो बौद्धिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों के टकराव, प्रतिक्रिया और सामंजस्य की एक सतत प्रक्रिया है जिसको समझने और आत्मसात करने के लिए कोशिश और मेहनत की ज़रूरत है। राशिद की शायरी हल्की या तुरंत उत्तेजित करनेवाली चीज़ नहीं। उनकी शायरी हर अच्छी और बड़ी शायरी की तरह अपने लिए एक अलग आलोचना की मांग करती है जो ख़ुद उस शायरी से रोशनी हासिल करके उसके अध्ययन,समझ और प्रशंसा की राह हमवार करे। राशिद ने अपनी नज़्मों में जिस क़िस्म के आंतरिक सामंजस्य की रचना की है उसके लिए केवल स्वतंत्र कविता ही अभिव्यक्ति का अधिक उपयुक्त माध्यम हो सकती थी। बक़ौल आफ़ताब अहमद, राशिद शायरी में शब्दों के मूर्तिकार हैं वो नज़्में नहीं कहते साँचों में ढले मूर्तियां तैयार करते हैं। अपनी नज़्मों की निर्माण और गठन में उनकी तराश-ख़राश में, राशिद जिस एहतियात और सलीक़े से काम लेते हैं इससे उनकी भावनाओं का अंदाज़ा होता है। उनके यहां प्रयोग, जो परस्पर जुड़े दिखाई देते हैं, उनके क्रम में एक विकासवादी विचार नज़र आता है, प्रत्येक विवरण एक विशिष्ट उद्देश्य पूरा करता है और इस तरह जैसे कि एक पूरे का हिस्सा है। राशिद की नज़्में सही अर्थों में नज़्में होती हैं। अपने आंतरिक सम्बंध के कारण भी और अपने बाहरी संगठन के कारण भी।
उर्दू की जदीद नज़्म अभिव्यक्ति के नए दृष्टिकोण, रवैयों और ज़बान-ओ-बयान के प्रयोगों के लिए हमेशा राशिद की ऋणी रहेगी।

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