aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
الطاف حسین حالی مرحوم کی یہ وہ بے نظیر اور لاجواب نظم ہے جو بہ زمانہ قیام دہلی مولانا نے سرسید کی فرمائش پر لکھی۔ یہ نظم شہرت کے پر لگا کر اڑی اور چار دانگ عالم میں حالی کا نام پکار آئی۔ اگر حالی مسدس کے سوا اور کچھ نہ لکھتے تو یہ مسدس ان کے نام کو بقائے ودام بخشنے کے لئے کافی تھا۔اس کا پورا نام ’’مسدس مدوجزر اسلام ‘‘ ہے ۔ اس میں اسلام کی گزستہ عظمت، مسلمانان سابق کے کارنامے، ان کے بلند خیالات کے بر خلاف اس کے زمانہ موجودہ میں ان کی سستی اور کاہلی کا ذکر ہے۔آخر میں مسلمانوں سے اپیل کی گئی ہے کہ تاریخ عالم میں جو مرتبہ ان کا پہلے تھا۔اب پھر اس کو حاصل کرنے کے لئے ہمت باندھیں۔
उर्दू नस्र-ओ-नज़्म के सुधारक और आलोचना के संस्थापक
ख़्वाजा अलताफ़ हुसैन हाली उर्दू साहित्य के पहले सुधारक और बहुत बड़े उपकारी हैं। वो एक साथ शायर, गद्यकार, आलोचक, साहब-ए-तर्ज़ जीवनीकार और समाज सुधारक हैं जिन्होंने अदबी और सामाजिक स्तर पर ज़िंदगी के बदलते हुए तक़ाज़ों को महसूस किया और अदब व समाज को उन तक़ाज़ों से जोड़ने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उनकी तीन अहम किताबें “हयात-ए-सादी”, “यादगार-ए-ग़ालिब” और “हयात-ए-जावेद” जीवनियाँ भी हैं और आलोचनाएं भी। “मुक़द्दमा -ए-शे’र-ओ-शायरी” के ज़रिए उन्होंने उर्दू में विधिवत आलोचना की बुनियाद रखी और शे’र-ओ-शायरी से सम्बंधित एक पूर्ण और जीवन-पुष्टि सिद्धांत तैयार किया और फिर उसकी रोशनी में शायरी पर तब्सिरा किया। अब उर्दू आलोचना के जो साँचे हैं वो हाली के बनाए हुए हैं और अब जिन चीज़ों पर ज़ोर दिया जाता है उनकी तरफ़ सबसे पहले हाली ने अपने मुक़द्दमा में तवज्जो दिलाई। अपनी मुसद्दस (मसनवी मद-ओ-जज़र इस्लाम) में वो क़ौम की दुर्दशा पर ख़ुद भी रोए और दूसरों को भी रुलाया। मुसद्दस ने सारे मुल्क में जो शोहरत और लोकप्रियता प्राप्त की वो अपनी मिसाल आप थी। सर सय्यद अहमद ख़ान कहा करते थे कि अगर रोज़-ए-महशर में ख़ुदा ने पूछा कि दुनिया से अपने साथ क्या लाया तो कह दूंगा कि हाली से मुसद्दस लिखवाई।
अलताफ़ हुसैन हाली सन् 1837 में पानीपत में पैदा हुए। नौ बरस के थे कि पिता का देहांत हो गया। उनकी परवरिश और तर्बीयत उनके बड़े भाई ने पैतृक स्नेह से की। हाली ने आरंभिक शिक्षा पानीपत में ही हासिल की और क़ुरआन कंठस्थ किया। 17 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। शादी के बाद उनको रोज़गार की फ़िक्र लाहक़ हुई चुनांचे एक दिन जब उनकी पत्नी अपने मायके गई हुई थीं, वो किसी को बतए बिना पैदल और ख़ाली हाथ दिल्ली आ गए। हाली को विधिवत शिक्षा का मौक़ा नहीं मिला। पानीपत और दिल्ली में उन्होंने किसी तर्तीब-ओ-निज़ाम के बिना फ़ारसी, अरबी, दर्शनशास्त्र व तर्कशास्त्र और हदीस-ओ-तफ़सीर(व्याख्या) की किताबों का अध्ययन किया। साहित्य में उन्होंने जो विशेष अंतर्दृष्टि प्राप्त की वो उनके अपने शौक़, अध्ययन और मेहनत की बदौलत थी। दिल्ली प्रवास के दौरान वो मिर्ज़ा ग़ालिब की ख़िदमत में हाज़िर रहा करते थे और उनके कुछ फ़ारसी क़सीदे उन ही से पाठ के रूप में पढ़े। इसके बाद वो ख़ुद भी शे’र कहने लगे और अपनी कुछ ग़ज़लें मिर्ज़ा के सामने सुधार के ग़रज़ से पेश कीं तो उन्होंने कहा, "अगरचे मैं किसी को फ़िक्र-ए-शे’र की सलाह नहीं देता लेकिन तुम्हारे बारे में मेरा ख़्याल है कि तुम शे’र न कहोगे तो अपनी तबीयत पर सख़्त ज़ुल्म करोगे।1857 ई. के हंगामों में हाली को दिल्ली छोड़कर पानीपत वापस जाना पड़ा और कई साल बेरोज़गारी और तंगी में गुज़रे फिर उनकी मुलाक़ात नवाब मुस्तफ़ा ख़ान शेफ़्ता, रईस दिल्ली-ओ-ताल्लुक़ादार जहांगीराबाद (ज़िला बुलंदशहर) से हुई जो उनको अपने साथ जहांगीराबाद ले गए और उन्हें अपना मुसाहिब और अपने बच्चों का अतालीक़(संरक्षक) बना दिया। शेफ़्ता ग़ालिब के दोस्त, उर्दू-ओ-फ़ारसी के शायर थे और अतिशयोक्ति को सख़्त नापसंद करते थे। वो सीधी-सादी और सच्ची बातों को हुस्न बयान से दिलफ़रेब बनाने को शायरी का कमाल समझते थे और साधारण विचार से घृणा करते थे। हाली की शायराना प्रतिभा निर्माण में शेफ़्ता की संगत का बड़ा दख़ल था। हाली ग़ालिब के अनुयायी ज़रूर थे लेकिन शायरी में उनको अपना आदर्श नहीं बनाया। शायरी में वो ख़ुद को मीर का अनुयायी बताते हैं। 1872 ई. में शेफ़्ता के देहांत के बाद हाली पंजाब गर्वनमेंट बुक डिपो में मुलाज़िम हो गए जहां उनका काम अंग्रेज़ी से उर्दू में अनुवाद की जाने वाली किताबों की भाषा ठीक करना था। उसी ज़माने में पंजाब के शिक्षा विभाग के डायरेक्टर कर्नल हालराइड की ईमा पर मुहम्मद हुसैन ने ऐसे मुशायरों की नींव डाली जिनमें शायर किसी एक विषय पर अपनी नज़्में सुनाते थे। हाली की चार नज़्में “हुब्ब-ए-वतन”, “बरखा-रुत”, “निशात-ए- उम्मीद” और “मुनाज़रा-ए-रहम-ओ-इन्साफ़” उन ही मुशायरों के लिए लिखी गईं। लाहौर में ही उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए अपनी किताब “मजालिस उन निसा” क़िस्सा के रूप में लिखी जिस पर वाइसराय नॉर्थ ब्रूक ने उनको 400 रुपये का इनाम दिया। कुछ अरसे बाद वो लाहौर की नौकरी छोड़कर दिल्ली के ऐंगलो अरबिक स्कूल में शिक्षक हो गए और फिर 1879 ई. में सर सय्यद की तरग़ीब पर मसनवी “मद-ओ-जज़र इस्लाम” लिखी जो मुसद्दस हाली के नाम से मशहूर है। उसके बाद 1884 ई. में हाली ने “हयात-ए-सादी” लिखी जिसमें शेख़ सादी के हालात-ए-ज़िंदगी और उनकी शायरी पर तब्सिरा है। “हयात-ए-सादी” उर्दू की सिद्धांतपूर्ण जीवनी की पहली अहम किताब है।
“मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी” हाली के दीवान के साथ सन्1893 में प्रकाशित हुआ जो उर्दू आलोचना लेखन में अपनी नौईयत की पहली किताब है। उसने आलोचनात्मक परम्परा की दिशा बदल दी और आधुनिक आलोचना की बुनियाद रखी। इस किताब में शायरी के हवाले से व्यक्त किए गए विचार, पाश्चात्य आलोचनात्मक सिद्धांतों के प्रकाशन के बावजूद अब भी महत्वपूर्ण हैं। उनकी “यादगार-ए-ग़ालिब” 1897 ई. में प्रकाशित हुई। यह ग़ालिब के हालात-ए-ज़िंदगी और उनकी शायरी पर तब्सिरा है। ग़ालिब को अवामी मक़बूलियत दिलाने में इस किताब का बहुत बड़ा हाथ है। इससे पहले ग़ालिब य शायरी सिर्फ़ ख़वास की पसंदीदा थी। नस्र में हाली की एक और रचना “हयात-ए-जावेद” है जो सन् 1901 में प्रकाशित हुई। ये सर सय्यद की जीवनी और उनके कारनामों का दस्तावेज़ ही नहीं बल्कि मुसलमानों की लगभग एक सदी का सांस्कृतिक इतिहास भी है। उसमें उस ज़माने के समाज, शिक्षा, मज़हब, सियासत और ज़बान वग़ैरा की समस्याओं पर बहस किया गया है।
हाली ने औरतों की तरक़्क़ी और उनके अधिकारों के लिए बहुत कुछ लिखा। उनमें “मुनाजात-ए- बेवा” और “चुप की दाद” ने शोहरत हासिल की। हाली ने उर्दू मरसिए को भी नया रुख़ दिया जो सच्चे दर्द के तर्जुमान हैं। हाली ने ग़ज़लों, नज़्मों और मसनवियों के अलावा क़तात, रुबाईयात और क़साइद भी लिखे।
सन् 1887 में सर सय्यद की सिफ़ारिश पर रियासत हैदराबाद ने इमदाद मुसन्निफ़ीन(लेखकों की सहायता) के विभाग से उनका पचहत्तर रुपये मासिक वज़ीफ़ा निर्धारित कर दिया जो बाद में सौ रुपये मासिक हो गया। उस वज़ीफ़े के बाद संतोष प्रिय हाली ऐंगलो अरबिक कॉलेज की नौकरी से इस्तीफ़ा दे कर पानीपत चले गए और वहीं अपना लेखन क्रम जारी रखा। सन् 1904 में सरकार ने उन्हें शम्सुल उलमा के ख़िताब से नवाज़ा जिसे उन्होंने अपने लिए मुसीबत जाना कि अब सरकारी हुक्काम के सामने हाज़िरी देना पड़ेगी। शिबली ने उन्हें ख़िताब दिए जाने पर कहा कि अब सही माअनों में इस ख़िताब की इज़्ज़त-अफ़ज़ाई हुई। हाली नज़ला के स्थायी मरीज़ थे जिस पर क़ाबू पाने के लिए उन्होंने अफ़ीम का इस्तेमाल शुरू किया जिससे फ़ायदा की बजाए नुक़्सान हुआ। उनकी दृष्टि भी धीरे धीरे कम होती गई। दिसंबर 1914 ई. में उनका देहांत हो गया।
उर्दू अदब में हाली की हैसियत कई एतबार से मुमताज़-ओ-मुनफ़रद है। इन्होंने जिस वक़्त अदब के कूचे में क़दम रखा उस वक़्त उर्दू शायरी लफ़्ज़ों का खेल बनी हुई थी या फिर आशिक़ाना शायरी में मुआमलाबंदी के विषय लोकप्रिय थे। ग़ज़ल में सांसारिकता और एकता का संदर्भ बहुत कम था और शायरी एक निजी मशग़ला बनी हुई थी। हाली ने इन रुजहानात के मुक़ाबले में वास्तविक और सच्चे जज़्बात के अनौपचारिक अभिव्यक्ति को तर्जीह दी। वो आधुनिक नज़्म निगारी के प्रथम निर्माताओं में से एक थे। उन्होंने ग़ज़ल को हक़ीक़त से जोड़ दिया और राष्ट्रीय व सामूहिक शायरी की बुनियाद रखी। इसी तरह उन्होंने नस्र में भी सादगी और बरजस्तगी दाख़िल कर के उसे हर तरह के विद्वत्तापूर्ण, साहित्यिक और शोध लेखों अदा करने के काबिल बनाया। हाली शराफ़त और नेक नफ़सी का मुजस्समा थे। स्वभाव में संयम, सहनशीलता और उच्च दृष्टि उनकी ऐसी खूबियां थीं जिनकी झलक उनके कलाम में भी नज़र आती है। उर्दू साहित्य की जो विस्तृत व भव्य, ख़ूबसूरत और दिलफ़रेब इमारत आज नज़र आती है उसकी बुनियाद के पत्थर हाली ने ही बिछाए थे।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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