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लेखक : सआदत हसन मंटो

प्रकाशक : साक़ी बुक डिपो, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 1991

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : प्रतिबंधित पुस्तकें, अफ़साना

पृष्ठ : 220

सहयोगी : गौरव जोशी

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पुस्तक: परिचय

"پھندنے" سعادت حسن منٹو کے بارہ افسانوں کا مجموعہ ہے، جس میں اسی نام کا افسانہ بھی شامل ہے ،افسانہ پھندنے کے بارے میں ناقدین کا کہنا کہ یہ اردو کا پہلا ایسا افسانہ ہے جس میں منٹو کے نمائندہ تمام تر فن کارانہ دسترس کے طفیل الفاظ کو اشیاء میں منتقل کیا ہے، اس افسانہ کو اردو کا پہلا علامتی اور تجریدی افسانہ بھی کہا گیا ہے، اس افسانے مین "شعور کی رو"کی تکنیک سے بھی کام لیا ہے، اس کے علاوہ اس مجموعہ میں منٹو کا مشہور افسانہ ٹوبہ ٹیک سنگھ ، فرشتہ، بدصورتی،دودا پہلوان، مسٹر معین الدین ، سودا بیچنے والی، عشقیہ کہانی، منظور، مس اڑونا جیکسن اور اس منجدھار میں جیسے شہکار افسانے شامل ہیں ۔

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लेखक: परिचय

झूठी दुनिया का सच्चा अफ़साना निगार

“मेरी ज़िंदगी इक दीवार है जिसका पलस्तर मैं नाख़ुनों से खुरचता रहता हूँ। कभी चाहता हूँ कि इसकी तमाम ईंटें परागंदा कर दूं, कभी ये जी में आता है कि इस मलबे के ढेर पर इक नई इमारत खड़ी कर दूं।” - मंटो

मंटो की ज़िंदगी उनके अफ़सानों की तरह न सिर्फ़ ये कि दिलचस्प बल्कि संक्षिप्त भी थी। मात्र 42 साल 8 माह और चार दिन की छोटी सी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा मंटो ने अपनी शर्तों पर, निहायत लापरवाई और लाउबालीपन से गुज़ारा। उन्होंने ज़िंदगी को एक बाज़ी की तरह खेला और हार कर भी जीत गए। अउर्दू भाषी समुदाय उर्दू शायरी को अगर ग़ालिब के हवाले से जानता है तो फ़िक्शन के लिए उसका हवाला मंटो हैं।

अपने लगभग 20 वर्षीय साहित्यिक जीवन में मंटो ने 270 अफ़साने 100 से ज़्यादा ड्रामे,कितनी ही फिल्मों की कहानियां और संवाद और ढेरों नामवर और गुमनाम शख़्सियात के रेखा चित्र लिख डाले। 20 अफ़साने तो उन्होंने सिर्फ़ 20 दिनों में अख़बारों के दफ़्तर में बैठ कर लिखे। उनके अफ़साने अदबी दुनिया में तहलका मचा देते थे। उन पर कई बार अश्लीलता के मुक़द्दमे चले और पाकिस्तान में 3 महीने की क़ैद और 300 रुपया जुर्माना भी हुआ। फिर उसी पाकिस्तान ने उनके मरने के बाद उनको मुल्क के सबसे बड़े नागरिक सम्मान “निशान-ए- इम्तियाज़” से नवाज़ा। जिन अफ़सानों को अश्लील घोषित कर उन पर मुक़द्दमे चले उनमें से बस कोई एक भी मंटो को अमर बनाने के लिए काफ़ी था। बात केवल इतनी थी कि वारिस अलवी के अनुसार मंटो की बेलाग और निष्ठुर यथार्थवाद ने अनगिनत आस्थाओं और परिकल्पनाओं को तोड़ा और हमेशा ज़िंदगी के अंगारों को नंगी उंगलियों से छूने की जुरअत की। मंटो के ज़रिये पहली बार हम उन सच्चाईयों को जान पाते हैं जिनका सही ज्ञान न हो तो दिल-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक और आरामदेह आस्थाओं की क़ैद में छोटी मोटी शख़्सियतों की तरह जीता है।” मंटो ने काल्पनिक पात्रों के बजाए समाज के हर समूह और हर तरह के इंसानों की रंगारंग ज़िंदगियों को, उनकी मनोवैज्ञानिक और भावात्मक तहदारियों के साथ, अपने अफ़सानों में स्थानांतरित करते हुए समाज के घृणित चेहरे को बेनक़ाब किया। मंटो के पास समाज को बदलने का न तो कोई नारा है और न ख़्वाब। एक माहिर हकीम की तरह वो मरीज़ की नब्ज़ देखकर उसका मरज़ बता देते हैं, अब उसका ईलाज करना है या नहीं और अगर करना है तो कैसे करना है ये सोचना मरीज़ और उसके सम्बंधियों का काम है।

सआदत हसन मंटो 11 मई 1912 को लुधियाना के क़स्बा सम्बराला के एक कश्मीरी घराने में पैदा हुए। उनके वालिद का नाम मौलवी ग़ुलाम हुसैन था और वो पेशे से जज थे। मंटो उनकी दूसरी बीवी से थे। और जब ज़माना मंटो की शिक्षा-दीक्षा का था वो रिटायर हो चुके थे। स्वभाव में कठोरता थी इसलिए मंटो को बाप का प्यार नहीं मिला। मंटो बचपन में शरारती, खलंदड़े और शिक्षा की तरफ़ से बेपरवाह थे। मैट्रिक में दो बार फ़ेल होने के बाद थर्ड डिवीज़न में इम्तिहान पास किया किया, वो उर्दू में फ़ेल हो जाते थे। बाप की कठोरता ने उनके अंदर बग़ावत की भावना पैदा की। ये विद्रोह केवल घर वालों के ख़िलाफ़ नहीं था बल्कि उसके घेरे में ज़िंदगी के संपूर्ण सिद्धांत आ गए। जैसे उन्होंने फ़ैसला कर लिया हो कि उन्हें ज़िंदगी अपनी और केवल अपनी शर्तों पर जीनी है। इसी मनोवैज्ञानिक गुत्थी का एक दूसरा पहलू लोगों को अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने का शौक़ था। स्कूल के दिनों में उनका महबूब मशग़ला अफ़वाहें फैलाना और लोगों को बेवक़ूफ़ बनाना था, जैसे मेरा फ़ोंटेन पेन गधे की सींग से बना है, लाहौर की ट्रैफ़िक पुलिस को बर्फ़ के कोट पहनाए जा रहे हैं या ताजमहल अमरीका वालों ने ख़रीद लिया है और मशीनों से उखाड़ कर उसे अमरीका ले जाऐंगे। उन्होंने चंद साथियों के साथ मिलकर “अंजुमन अहमकां” भी बनाई थी। मैट्रिक के बाद उन्हें अलीगढ़ भेजा गया लेकिन वहां से ये कह कर निकाल दिया गया कि उनको दिक़ की बीमारी है। वापस आकर उन्होंने अमृतसर में, जहां उनका असल मकान था एफ़.ए में दाख़िला ले लिया। पढ़ते कम और आवारागर्दी ज़्यादा करते। एक रईसज़ादे ने शराब से तआरुफ़ कराया और मान्यवर को जुए का भा चस्का लग गया। शराब के सिवा, जिसने उनको जान लेकर ही छोड़ा, मंटो ज़्यादा दिन कोई शौक़ नहीं पालते थे। तबीयत में बेकली थी। मंटो का अमृतसर के होटल शीराज़ में आना जाना होता था, वहीं उनकी मुलाक़ात बारी (अलीग) से हुई। वो उस वक़्त अख़बार “मुसावात” के एडीटर थे। वो मंटो की प्रतिभा और उनकी आंतरिक वेदना को भाँप गए। उन्होंने निहायत मुख़लिसाना और मुशफ़िक़ाना अंदाज़ में मंटो को पत्रकारिता की तरफ़ उन्मुख किया और उनको तीरथ राम फ़िरोज़पुरी के उपन्यास छोड़कर ऑस्कर वाइल्ड और विक्टर ह्युगो की किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। मंटो ने बाद में ख़ुद स्वीकार किया कि अगर उनको बारी साहिब न मिलते तो वो चोरी या डाका के जुर्म में किसी जेल में गुमनामी की मौत मर जाते। बारी साहिब की फ़र्माइश पर मंटो ने विक्टर ह्युगो की किताब “द लास्ट डेज़ आफ़ ए कंडेम्ड” का अनुवाद दस-पंद्रह दिन के अंदर “सरगुज़श्त-ए-असीर” के नाम से कर डाला। बारी साहिब ने उसे बहुत पसंद किया, उसमें सुधार किया और मंटो “साहिब-ए-किताब” बन गए। उसके बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड के इश्तिराकी ड्रामे “वीरा” का अनुवाद किया जिसका संशोधन अख़तर शीरानी ने किया और पांडुलिपि पर अपने दस्तख़त किए जिसकी तारीख़ 18 नवंबर 1934 है। बारी साहिब उन्ही दिनों “मुसावात” से अलग हो कर “ख़ुल्क़” से सम्बद्ध हो गए। “ख़ुल्क़” के पहले अंक में मंटो का पहला मुद्रित अफ़साना “तमाशा” प्रकाशित हुआ।

1935 में मंटो बंबई चले गए, साहित्य मंडली में अफ़सानानिगार के रूप में उनका परिचय हो चुका था। उनको पहली नौकरी साप्ताहिक “पारस” में मिली, तनख़्वाह 40 रुपये माहवार लेकिन महीने में मुश्किल से दस पंद्रह रुपये ही मिलते थे। उसके बाद मंटो नज़ीर लुधियानवी के साप्ताहिक “मुसव्विर” के एडीटर बन गए। उन ही दिनों उन्होंने “हुमायूँ” और “आलमगीर” के रूसी अदब नंबर संपादित किए। कुछ दिनों बाद मंटो फ़िल्म कंपनियों, इम्पीरियल और सरोज में थोड़े थोड़े दिन काम करने के बाद “सिने टोन” में 100 रुपये मासिक पर मुलाज़िम हुए और उसी नौकरी के बलबूते पर उनका निकाह एक कश्मीरी लड़की सफ़िया से हो गया जिसको उन्होंने कभी देखा भी नहीं था। ये शादी माँ के ज़िद पर हुई। मंटो की काल्पनिक बुरी आदतों की वजह से सम्बंधियों ने उनसे नाता तोड़ लिया था। सगी बहन बंबई में मौजूद होने के बावजूद निकाह में शरीक नहीं हुईं।

बंबई आवास के दौरान मंटो ने रेडियो के लिए लिखना शुरू कर दिया था। उनको 1940 में ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में नौकरी मिल गई। यहां नून मीम राशिद, कृश्न चंदर और उपेन्द्रनाथ अश्क भी थे। मंटो ने रेडियो के लिए 100 से अधिक ड्रामे लिखे। मंटो किसी को ख़ातिर में नहीं लाते थे। अश्क से बराबर उनकी नोक-झोंक चलती रहती थी। एक बार मंटो के ड्रामे में अश्क और राशिद की साज़िश से रद्दोबदल कर दिया गया और भरी मीटिंग में उसकी नुक्ताचीनी की गई। मंटो अपनी तहरीर में एक लफ़्ज़ की भी इस्लाह गवारा नहीं करते थे। गर्मागर्मी हुई लेकिन फ़ैसला यही हुआ कि संशोधित ड्रामा ही प्रसारित होगा। मंटो ने ड्रामे की पांडुलिपि वापस ली, नौकरी को लात मारी और बंबई वापस आ गए।

बंबई आकर मंटो ने फ़िल्म “ख़ानदान” के मशहूर निर्देशक शौकत रिज़वी की फ़िल्म “नौकर” के लिए संवाद लिखने शुरू कर दिए। उन्हें पता चला की शौकत कुछ और लोगों से भी संवाद लिखवा रहे हैं। ये बात मंटो को बुरी लगी और वो शौकत की फ़िल्म छोड़कर 100 रुपये मासिक पर संवाद लेखक के रूप में फिल्मिस्तान चले गए। यहाँ उनकी दोस्ती अशोक कुमार से हो गई। अशोक कुमार ने बंबई टॉकीज़ ख़रीद ली तो मंटो भी उनके साथ बंबई टॉकीज़ चले गए। इस अर्से में देश विभाजित हो गया था। साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गए थे और बंबई की फ़िज़ा भी कशीदा थी। सफ़िया अपने रिश्तेदारों से मिलने लाहौर गई थीं और फ़साद की वजह से वहीं फंस गई थीं। इधर अशोक कुमार ने मंटो की कहानी को नज़रअंदाज कर के फ़िल्म “महल” के लिए कमाल अमरोही की कहानी पसंद कर ली थी। मंटो इतने निराश हुए कि एक दिन किसी को कुछ बताए बिना पानी के जहाज़ से पाकिस्तान चले गए।

पाकिस्तान में थोड़े दिन उनकी आवभगत हुई फिर एक एक करके सब आँखें फेरते चले गए। पाकिस्तान पहुंचने के कुछ ही दिनों बाद उनकी कहानी “ठंडा गोश्त” पर अश्लीलता का आरोप लगा और मंटो को 3 माह की क़ैद और 300 रूपये जुर्माने की सज़ा हुई। इस पर कुत्ता भी नहीं भोंका। सज़ा के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की साहित्य मंडली से कोई विरोध नहीं हुआ, उल्टे कुछ लोग ख़ुश हुए कि अब दिमाग़ ठीक हो जाएगा। इससे पहले भी उन पर इसी इल्ज़ाम में कई मुक़द्दमे चल चुके थे लेकिन मंटो सब में बच जाते थे। सज़ा के बाद मंटो का दिमाग़ ठीक तो नहीं हुआ, सच-मुच ख़राब हो गया। यार लोग उन्हें पागलखाने छोड़ आए। इस बेकसी, अपमान के बाद मंटो ने एक तरह से ज़िंदगी से हार मान ली। शराबनोशी हद से ज़्यादा बढ़ गई। कहानियां बेचने के सिवा आमदनी का और कोई माध्यम नहीं था। अख़बार वाले 20 रुपये दे कर और सामने बिठा कर कहानियां लिखवाते। ख़बरें मिलतीं कि हर परिचित और अपरिचित से शराब के लिए पैसे मांगते हैं। बच्ची को टायफ़ॉइड हो गया, बुख़ार में तप रही थी। घर में दवा के लिए पैसे नहीं थे, बीवी पड़ोसी से उधार मांग कर पैसे लाईं और उनको दिए कि दवा ले आएं, वो दवा की बजाए अपनी बोतल लेकर आगए। सेहत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी लेकिन शराब छोड़ना तो दूर, कम भी नहीं हो रही थी। वो शायद मर ही जाना चाहते थे। 18 अगस्त 1954 को उन्होंने ज़फ़र ज़ुबैरी की ऑटोग्राफ बुक पर लिखा था:

786
कत्बा 
यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है। उसके सीने में अफ़साना निगारी के सारे इसरार-ओ-रमूज़ दफ़न हैं
वो अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफ़साना निगार है या ख़ुदा।
सआदत हसन मंटो
18 अगस्त 1954

इसी तरह एक जगह लिखा, “अगर मेरी मौत के बाद मेरी तहरीरों पर रेडियो, लाइब्रेरीयों के दरवाज़े खोल दिए जाएं और मेरे अफ़सानों को वही रुत्बा दिया जाए जो इक़बाल मरहूम के शे’रों को दिया जा रहा है तो मेरी रूह सख़्त बेचैन होगी और मैं उस बेचैनी के पेश-ए-नज़र उस सुलूक से बेहद मुतमईन हूँ जो मुझसे रवा रखा गया है, दूसरे शब्दों में मंटो कह रहे थे, ज़लीलो मुझे मालूम है कि मेरे मरने के बाद तुम मेरी तहरीरों को उसी तरह चूमोगे और आँखों से लगाओगे जैसे पवित्र ग्रंथों को लगाते हो। लेकिन मैं लानत भेजता हूँ तुम्हारी इस क़दरदानी पर। मुझे उस की कोई ज़रूरत नहीं।”

17 जनवरी की शाम को मंटो देर से घर लौटे। थोड़ी देर के बाद ख़ून की उल्टी की। रात में तबीयत ज़्यादा ख़राब हुई, डाक्टर को बुलाया गया, उसने अस्पताल ले जाने का मश्वरा दिया। अस्पताल का नाम सुनकर बोले, “अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे अस्पताल न ले जाओ।” थोड़ी देर बाद भांजे से चुपके से कहा, “मेरे कोट की जेब में साढ़े तीन रुपये हैं, उनमें कुछ पैसे लगा कर मुझे व्हिस्की मंगा दो।” व्हिस्की मँगाई गई, कहा दो पैग बना दो। व्हिस्की पी तो दर्द से तड़प उठे और ग़शी तारी हो गई। इतने में एम्बुलेंस आई। फिर व्हिस्की की फ़र्माइश की। एक चमचा व्हिस्की मुँह में डाली गई लेकिन एक बूंद भी हलक़ से नहीं उतरी, सब मुँह से बह गई। एम्बुलेंस में डाल कर अस्पताल ले जाया गया। रास्ते में ही दम तोड़ गए।

देखा आपने, मंटो ने ख़ुद को भी अपनी ज़िंदगी के अफ़साने का जीता जागता किरदार बना कर दिखा दिया ताकि कथनी-करनी में कोई अन्तर्विरोध न रहे। क्या मंटो ने नहीं कहा था, “जब तक इंसानों में और सआदत हसन मंटो में कमज़ोरियाँ मौजूद हैं, वो ख़ुर्दबीन से देखकर इंसान की कमज़ोरियों को बाहर निकालता और दूसरों को दिखाता रहेगा। लोग कहते हैं, ये सरासर बेहूदगी है। मैं कहता हूँ बिल्कुल दुरुस्त है, इसलिए कि मैं बेहूदगियों और ख़ुराफ़ात ही के मुताल्लिक़ लिखता हूँ।”

लोग कहते हैं कि मंटो को अश्लील लिखनेवाला कहना उनकी तोहीन है। दरअसल उनको महज़ अफ़साना निगार कहना भी उनकी तौहीन है, इसलिए कि वो अफ़साना निगार से ज़्यादा हक़ीक़त निगार हैं और उनकी रचनाएं किसी महान चित्रकार से कम स्तर की नहीं। ये किरदार निगारी इतनी शक्तिशाली है कि लोग किरदारों में ही गुम हो कर रह जाते हैं और किरदार निगार के आर्ट कि बारीकियां पीछे चली जाती हैं। मंटो अफ़साना निगार न होते तो बहुत बड़े शायर या मुसव्विर होते।

मंटो की कलात्मक विशेषताएं सबसे जुदा हैं। उन्होंने अफ़साने को हक़ीक़त और ज़िंदगी से बिल्कुल क़रीब कर दिया और उसे ख़ास पहलूओं और ज़ावियों से पाठक तक पहुंचाया। अवाम को ही किरदार बनाया और अवाम ही के अंदाज़ में अवाम की बातें कीं। इसमें शक नहीं कि फ़िक्शन में प्रेमचंद और मंटो की वही हैसियत है जो शायरी में मीर और ग़ालिब की।


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