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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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लेखक : बहादुर शाह ज़फ़र

संपादक : अमर वर्मा, ख़्वाजा तारिक़ महमूद

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 2003

भाषा : English, Devnagari, Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : संकलन

पृष्ठ : 240

ISBN संख्यांक / ISSN संख्यांक : 81-7650-069-0

सहयोगी : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी
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पुस्तक: परिचय

اردو ادب کی تاریخ میں بہادر شاہ ظفر بہ حیثیت کلاسیکی شاعر خاص مقام رکھتے ہیں۔ بہادر شاہ ظفر کا شعر گوئی سے ایک فطری لگاؤ تھا۔ پرشکوہ الفاظ ،عمدہ انداز بیان،ریاعت لفظی اور محاورہ بندی ظفر کے کلام کی اہم خصوصیات ہیں۔بہادر شاہ ظفر نے بہت بڑی تعداد میں اشعار لکھے ہیں۔پیش نظر ان کی غزلوں کا انتخاب "بہادر شاہ ظفر کی شاعری " ہے۔ جس کو خواجہ طارق محمود نے مرتب کیا ہے۔یہ غزلیں اپنے اسلوب ، موضوع اور عمدہ زبان و بیان کے اعتبار سے غالب اور مومن کی غزلوں کے ہم پلہ ہیں۔اس انتخاب کی ایک خاصیت یہ ہے کہ اس میں ظفر کی غزلیں" اردو ،ہندی اور رومن اردو "تینوں زبانوں میں پیش کی گئی ہیں۔ یہ انتخاب اس لیے بھی اہم ہے کہ اس سے اردو ہندی اور رومن ارد وجاننے والے شائقین، اردو شاعری اےمحظوظ ہوسکتے ہیں۔

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लेखक: परिचय


लाल क़िला की दर्द भरी आवाज़

बहादुर शाह ज़फ़र की असाधारण शोहरत की वजह 1857 ई. का इन्क़लाब है, हालांकि उनकी सार्वभौमिक व्यक्तित्व में इस बात का बड़ा दख़ल है कि वो अवध के एक अहम शायर थे। बहादुर शाह ज़फ़र जिस तरह बादशाह की हैसियत से अंग्रेज़ों की चालों का शिकार हुए उसी तरह एक शायर की हैसियत से भी उनके सर से शायरी का ताज छिनने की कोशिश की गई और कहा गया कि ज़फ़र की शायरी में जो खूबियां हैं वो उनके उस्ताद ज़ौक़ की देन हैं। सर सय्यद के सामने जब इस ख़्याल का इज़हार किया गया, तो वो भड़क उठे थे और कहा था कि “ज़ौक़ उनको लिख कर क्या देते, उसने तो ख़ुद ज़बान क़िला-ए-मुअल्ला से सीखी थी।” इसमें शक नहीं कि ज़फ़र उन शायरों में हैं जिन्होंने काव्य अभिव्यक्ति में उर्दूपन को बढ़ावा दिया और यही उर्दूपन ज़फ़र के साथ ज़ौक और दाग़ के वसीले से बीसवीं सदी के आम शायरों तक पहुंचा। मौलाना हाली ने कहा, “ज़फ़र का तमाम दीवान ज़बान की सफ़ाई और रोज़मर्रा की ख़ूबी हैं, आरम्भ से आख़िर तक यकसाँ है।” और आब-ए-बक़ा के मुसन्निफ़ ख़्वाजा अब्दुल रऊफ़ इशरत का कहना है कि “अगर ज़फ़र के कलाम पर इस एतबार से नज़र डाला जाये कि उसमें मुहावरा किस तरह अदा हुआ है, रोज़मर्रा कैसा है, असर कितना है और ज़बान कितनी प्रमाणिक है तो उनका उदाहरण और मिसाल आपको न मिलेगा। ज़फ़र बतौर शायर अपने ज़माने में मशहूर और मक़बूल थे।” मुंशी करीम उद्दीन “तबक़ात-ए-शोअराए हिंद”  में लिखते हैं, “शे’र ऐसा कहते हैं कि हमारे ज़माने में उनके बराबर कोई नहीं कह सकता। तमाम हिंदोस्तान में अक्सर क़व्वाली और रंडियां उनकी ग़ज़लें, गीत और ठुमरियां गाते हैं।”

बहादुर शाह ज़फ़र का नाम अबू ज़फ़र सिराज उद्दीन मुहम्मद था। उनकी पैदाइश अकबर शाह सानी के ज़माना-ए-वलीअहदी में उनकी हिंदू बीवी लाल बाई के बतन से 14 अक्तूबर 1775 ई. में हुई। अबू ज़फ़र तारीख़ी नाम है। इसी मुताबिक़त से उन्होंने अपना तख़ल्लुस ज़फ़र रखा। चूँकि बहादुर शाह के पूर्वज औरंगज़ेब के बेटे का लक़ब भी बहादुर शाह था लिहाज़ा वो बहादुर शाह सानी कहलाए। उनकी शिक्षा क़िला-ए-मुअल्ला में पूरे एहतिमाम के साथ हुई और उन्होंने विभिन्न ज्ञान व कलाओं में दक्षता प्राप्त की। लाल क़िला की तहज़ीबी ज़िंदगी और उसके मशाग़ल में भी उन्होंने गहरी दिलचस्पी ली। शाह आलम सानी का देहांत उस वक़्त हुआ जब ज़फ़र की उम्र 31 साल थी, लिहाज़ा उन्हें दादा की संगत से फ़ायदा उठाने का पूरा मौक़ा मिला। उन ही की संगत के नतीजे में बहादुर शाह को मुख़्तलिफ़ ज़बानों पर क़ुदरत हासिल हुई। उर्दू और फ़ारसी के साथ साथ बृज भाषा और पंजाबी में भी उनका कलाम मौजूद है। ज़फ़र एक विनम्र और रहमदिल इंसान थे। उनके अंदर सहिष्णुता और करुणा थी और अभिमान व घमंड उनको छू कर नहीं गया था। शाहाना ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी गुज़ारने के बावजूद उन्होंने शराब को कभी हाथ नहीं लगाया। शहज़ादगी के ज़माने से ही मज़हब की तरफ़ झुकाव था और काले साहिब के मुरीद थे। अपने वालिद अकबर शाह सानी के ग्यारह लड़कों में वो सबसे बड़े थे लेकिन अकबर शाह अपने दूसरे चहेते बेटे मिर्ज़ा सलीम को वलीअहद बनाना चाहा। अंग्रेज़ उसके लिए राज़ी नहीं हुए। फिर अकबर शाह सानी की चहेती बीवी मुमताज़ महल ने अपने बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को वलीअहद बनाने की कोशिश की बल्कि उनकी वलीअहदी का ऐलान भी कर दिया गया और गवर्नर जनरल को इसकी इत्तिला कर दी गई जिस पर गवर्नर जनरल ने सख़्त चेतावनी की कि अगर उन्होंने अंग्रेज़ों की हिदायात पर अमल न किया तो उनकी पेंशन बंद कर दी जाएगी। मिर्ज़ा जहांगीर ने एक मर्तबा ज़फ़र को ज़हर देने की भी कोशिश की और उन पर अप्राकृतिक व्यवहार के भी आरोप लगाए गए लेकिन अंग्रेज़ ज़फ़र की इज़्ज़त करते थे और उनके ख़िलाफ़ महल की कोई साज़िश कामयाब नहीं हुई। 1837 ई. में अकबर शाह सानी के देहांत के बाद बहादुर शाह की ताजपोशी हुई।

क़िले के नियम के अनुसार बहादुर शाह ज़फ़र की शादी नव उम्र ही में ही कर दी गई थी और ताजपोशी के वक़्त वो पोते-पोतियों वाले थे। ज़फ़र की बेगमात की सही तादाद नहीं मालूम लेकिन विभिन्न सूत्रों से शराफ़त महल बेगम, ज़ीनत महल मबीतम, ताज महल बेगम, शाह आबादी बेगम, अख़तरी महल बेगम, सरदारी बेगम के नाम मिलते हैं, उनमें ज़ीनत महल सबसे ज़्यादा चहेती थीं और उनसे ज़फ़र ने उस वक़्त 1840 ई.में शादी की थी जब उनकी उम्र 65 साल थी जब कि ज़ीनत महल 19 साल की थीं। ताजमहल बेगम भी बादशाह की चहेती बीवीयों में थीं। शाह आबादी बेगम का असल नाम हिन्दी बाई था। अख़तरी महल बेगम एक गाने वाली थीं, सरदारी बेगम एक ग़रीब घरेलू मुलाज़िमा थीं जिनको ज़फ़र ने रानी बना लिया। ज़फ़र के 16  बेटे और 31 बेटियां थीं। बारह शहज़ादे 1857 ई. तक ज़िंदा थे। बहादुर शाह एक बहुमुखी इंसान थे। वो हिन्दुओं की भावनाओं की भी क़द्र करते थे और उनकी कई रीतियों को भी अदा करते थे। उन्होंने शाह अब्बास की दरगाह पर चढ़ाने के लिए एक अलम लखनऊ भेजा था जिसके नतीजे में अफ़वाह फैल गई थी कि वो शिया हो गए हैं लेकिन ज़फ़र ने इसका खंडन किया। अंग्रेज़ों की तरफ़ से ज़फ़र को एक लाख रुपये पेंशन मिलती थी जो उनके शाहाना ख़र्चे के लिए काफ़ी नहीं थी लिहाज़ा वो हमेशा आर्थिक तंगी का शिकार और क़र्ज़दार रहते थे। साहूकारों के तक़ाज़े उनको फ़िक्रमंद रखते थे और वह नज़राने वसूल करके नौकरियां और ओहदे तक़सीम करते थे। लाल क़िले के अंदर चोरियों और ग़बन के वाक़ियात शुरू हो गए थे।

बहादुर शाह की उम्र बढ़ने के साथ अंग्रेज़ों ने फ़ैसला कर लिया था कि दिल्ली की बादशाहत ख़त्म कर दी जाएगी और लाल क़िला ख़ाली करा के शहज़ादों का वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया जाएगा। इस सिलसिले में उन्होंने शहज़ादा मिर्ज़ा फ़ख़रू से जो वलीअहदी के उम्मीदवार थे, एक समझौता भी कर लिया था लेकिन कुछ ही दिनों बाद 1857 ई. का हंगामा बरपा हो गया, जिसका नेतृत्व दिल्ली में शहज़ादा मुग़ल ने की। कुछ दिनों के लिए दिल्ली बाग़ीयों के क़ब्ज़े में आ गई थी। बहादुर शाह शुरू में इस हंगामे से बिल्कुल अनभिज्ञ रहे। वो समझ ही नहीं पाए कि हो क्या रहा है। जब उनको पता चला कि हिंदुस्तानी सिपाहीयों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी है तो उनकी परेशानी बढ़ गई। उन्होंने कोशिश की कि बाग़ी अपने इरादे से बाज़ आ जाएं और बाग़ीयों से कहा कि वो अंग्रेज़ों से उनकी सुलह करा देंगे, लेकिन जब बाग़ीयों ने पूरी तरह दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उनको ज़बरदस्ती मजबूर किया कि वो आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में लें। शुरू में उन्होंने न चाहते हुए इस ज़बरदस्ती को क़बूल किया था लेकिन जब आंदोलन ज़ोर पकड़ गया तो वो उसमें फँसते चले गए और आख़िर तक आंदोलन के साथ रहे। ये आंदोलन बहरहाल जल्द ही दम तोड़ गया। बहादुर शाह को गिरफ़्तार कर लिया गया। गिरफ़्तारी के बाद मुक़द्दमे की सुनवाई के दौरान बहादुर शाह ने इंतहाई बेचारगी के दिन गुज़ारे। क़ैद मैं उनसे मिलने गई एक ख़ातून ने उनकी हालत इस तरह बयान की है, “हम निहायत तंग-ओ-तारीक छोटे से कमरे में दाख़िल हुए। यहां मैले कुचैले कपड़े पहने हुए एक कमज़ोर, दुबला पतला, पस्ताकद बूढ्ढा सर्दी के सबब गंदी रज़ाइयों में लिपटा एक नीची सी चारपाई पर पड़ा था। हमारे दाख़िल होते ही वो हुक़्क़ा जो वो पी रहा था, एक तरफ़ रख दिया और फिर वो शख़्स जो कभी किसी को अपने दरबार में बैठा हुआ देखता, अपनी तौहीन समझता था, खड़े हो कर हमको निहायत आजिज़ी से सलाम करता जा रहा था कि उसे हमसे मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई।”  19 मार्च 1958 को अदालत ने बहादुर शाह ज़फ़र को उन सभी अपराधों का दोषी पाया जिनका उन पर इल्ज़ाम लगाया गया था। 7 अक्तूबर 1858  को पूर्व शहनशाह दिल्ली और मुग़लिया सलतनत के आख़िरी ताजदार अबू ज़फ़र सिराज उद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह सानी ने दिल्ली को हमेशा के लिए ख़ैर बाद कह दिया और रंगून में जिला वतनी के दिन गुज़ारते हुए 7 नवंबर 1860 को सुबह पाँच बजे क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म से छूट गए।

ज़फ़र ने अपने आख़िरी ज़माने में इंतहाई पुरदर्द ग़ज़लें कहीं। अदब के शायरों से उनको हमेशा गहरा लगाव रहा। उन्होंने मुख़्तलिफ़ ज़बानों में शाह नसीर, इज़्ज़त उल्लाह इश्क़, मीर काज़िम बेक़रार, ज़ौक़ और ग़ालिब को अपना कलाम दिखाया। उनकी शायरी मुख़्तलिफ़ दौर में मुख़्तलिफ़ रंग लेती रही, इसलिए उनके कलाम में हर तरह के अशआर पाए जाते हैं। ज़फ़र के चुनिंदा कलाम में उनकी अपनी विशिष्टता स्पष्ट है। ग़ज़ल कहना, काव्य मनोदशा और सौंदर्य रचना के संदर्भ में उनका ये कलाम उर्दू ग़ज़ल के उस सरमाये से क़रीब आ जाता है जिसे मीर, क़ाएम, यकीन, दर्द, मुसहफ़ी, सोज़, और आतिश जैसे शायरों ने सींचित किया। ज़फ़र के कलाम का चयनित अंश अपने अंदर ऐसी ताज़गी, दिलकशी और प्रभावशीलता का तत्व रखता है जिसके अपने शाश्वत मूल्य हैं,  विशेष रूप से वो हिस्सा जिसमें ज़फ़र की “आप बीती” है, इसमें कुछ ऐसी चुभन और गलन है जो उर्दू ग़ज़ल के सरमाये में अपना जवाब नहीं रखता;
शम्मा जलती है पर इस तरह कहाँ जलती है
हड्डी हड्डी मिरी ऐ सोज़-ए-निहाँ चलती है

ज़फ़र की पूरी ज़िंदगी एक तरह की रुहानी कश्मकश और ज़हनी जिला वतनी में गुज़री। एक मुसलसल अज़ाब गुत्था। हड्डियों को पिघला देने वाला यही ग़म उनकी शायरी की मूल प्रेरणा है और उस आग में जल कर उन्होंने जो शे’र कहे हैं वो हमारे सामने एक ज़बरदस्त दुखद चरित्र पेश करते हैं;
हर-नफ़स इस दामन-ए-मिज़्गाँ की जुंबिश से ज़फ़र
इक शोला सा भड़का और भड़क कर रह गया

ज़फ़र की शायरी आज अपने दर्जे के नए सिरे से परीक्षण की मांग करती है।


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