aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
اس کتاب میں مولانا ابولکلام آزاد کا عدالتی بیان، ان کی گرفتاری اور پھر عدالت میں آٹھ پیشیاں ، نقل استغاثہ، تقریری بیان اور فیصلۂ عدالت کی نقل کاپی نے کتاب میں دلچسپی کو لازوال کردیا ہے ۔آگے ضمیمہ کے تحت " آخری منزل کے آثار پھر شروع ہوگئے" کے تحت بعد کے حالات اور ایک اہم عنوان " بیگم صاحبہ مولانا کا تار بنام مہاتما گاندھی " کتاب کی اہمیت کو بہت بڑھا دیتا ہے۔ خلاصہ کلام یہ کہ مولانا آزاد نے گورمنٹ کے استغاثہ کے جواب میں جو کچھ تحریر کیا تھا، یہ تحریر تحریک خلافت اور سوراج کے اسباب و مقاصد اور ملک کے قومی و مذہبی فرائض پر سب سے بہتر اور مستند بیان ہے۔ کتاب کے مطالعہ سے بالخصوص مسلمانوں کو یہ پیغام ملتا ہے کہ اسلام کسی حال میں بھی آزادی کھونے کو جائز قرار نہیں دیتا ۔اگر آزادی حاصل کرنے کی راہ میں موت آجائے تو اسلام میں وہ موت زندگی کے مقابلے میں زیادہ پسندیدہ ہے۔
अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 1888 में मक्का शहर में हुआ। उनका असल नाम मुहिउद्दीन अहमद था मगर उनके पिता मौलाना सैयद मुहम्मद ख़ैरुद्दीन बिन अहमद उन्हें फ़िरोज़ बख़्त के नाम से पुकारते थे। अबुल कलाम आज़ाद की माता आलिया बिंत-ए-मुहम्मद का संबन्ध एक शिक्षित परिवार से था। आज़ाद के नाना मदीना के एक प्रतिष्ठित विद्वान थे जिनकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक थी। अपने पिता से आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आज़ाद मिश्र की प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान जामिया अज़हर चले गए जहाँ उन्होंने प्राच्य शिक्षा प्राप्त की।
अरब से प्रवास करके हिंदुस्तान आए तो कलकत्ता को अपनी कर्मभूमि बनाया। यहीं से उन्होंने अपनी पत्रकारिता और राजनीतिक जीवन का आरंभ किया। कलकत्ता से ही 1912 में ‘अलहिलाल’ के नाम से एक साप्ताहिक निकाला। यह पहला सचित्र राजनैतिक साप्ताहिक था और इसकी मुद्रित प्रतियों की संख्या लगभग 52 हज़ार थी। इस साप्ताहिक में अंग्रेज़ों की नीतियों के विरुद्ध लेख प्रकाशित होते थे, इसलिए अंग्रेज़ी सरंकार ने 1914 में इस साप्ताहिक पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद मौलाना ने ‘अलबलाग़’ नाम से दूसरा अख़बार जारी किया। यह अख़बार भी आज़ाद की अंग्रेज़ विरुद्ध नीति पर अग्रसर रहा।
मौलाना आज़ाद का उद्देश्य जहां अंग्रेज़ों का विरोध था वहीं राष्ट्रीय मेलजोल और हिंदू-मुस्लिम एकता पर उनका पूरा ज़ोर था। उन्होंने अपने अख़बारों के द्वारा राष्ट्रीय, स्वदेशीय भावनाओं को जागृत करने की कोशिश की। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ‘पैग़ाम’ और ‘लिसान-उल-सिद्क़’ जैसी पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित कीं और विभिन्न अख़बारों से भी के सम्बद्ध रहे जिनमें ‘वकील’ और ‘अमृतसर’ उल्लेखनीय हैं।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद राजनीतिक क्षेत्र में की सक्रीय रहे। उन्होंने ‘असहयोग आन्दोलन’, ‘हिन्दुस्तान छोड़ो’ और ‘ख़िलाफ़त आन्दोलन’ में भी हिस्सा लिया। महात्मा गांधी, डॉ. मुख़तार अहमद अंसारी, हकीम अजमल ख़ाँ और अली भाइयों के साथ उनके बहुत अच्छे संबन्ध रहे। गाँधी जी के अहिंसा के दर्शन से वह बहुत प्रभावित थे। गांधी जी के नेतृत्व पर उन्हें पूरा विश्वास था। गांधी के चिंतन और सिद्धांतों के प्रसार के लिए उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया।
मौलाना आज़ाद एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। वह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हें जेल की यात्नाएँ भी सहनी पड़ीं। इस अवसर पर उनकी धर्मपत्नी ज़ुलेख़ा बेगम ने उनका बहुत साथ दिया। ज़ुलेख़ा बेगम भी आज़ादी की जंग मैं मौलाना आज़ाद के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी रहीं। इस लिए उनकी गिनती भी आज़ादी की जाँबाज़ महिलाओं में होती है।
हिन्दुस्तान की आज़ादी के बाद मौलाना आज़ाद देश के शिक्षा मंत्री बनाए गए। उन्होंने शिक्षा मंत्री के रूप में बहुत महत्वपूर्ण काम किये। विश्विद्यालय अनुदान आयोग और दूसरे तकनीकी, अनुसंधात्मक और सांस्कृतिक संस्थाएं उन्हीं की देन हैं।
मौलाना आज़ाद मात्र एक राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि एक अच्छे साहित्यकार, उत्कृष्ट पत्रकार और टीकाकार भी थे। उन्होंने शायरी भी की, निबंध भी लिखे, विज्ञान से संबंधित आलेख भी लिखे, विद्या-सम्बंधी आलेख भी लिखे, विद्या-सम्बंधी और शोध प्रबंध भी लिखे। क़ुरआन की टीका भी लिखी। ग़ुबार-ए-ख़ातिर, तज़्किरा, तर्जुमान-उल-क़ुरआन उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। ग़ुबार-ए-ख़ातिर उनकी वह पुस्तक है जो क़िला अहमद नगर में क़ैद के दौरान उन्हों लिखी थी। उसमें वह सारे पत्र हैं जो उन्होंने मौलाना हबीबुर्रहमान ख़ाँ शेरवानी के नाम लिखे थे। उसे मालिक राम जैसे शोधकर्ता ने संपादित किया है और यह पुस्तक साहित्य अकादेमी ने प्रकाशित की है। यह मौलाना आज़ाद की ज़िंदगी के हालात और परिस्थितियों को जानने का उत्कृष्ट स्रोत है।
मौलाना आज़ाद अपने युग के बहुत ही विद्वान व्यक्ति थे जिसे सभी विद्वान स्वीकार करते हैं और इसी प्रतिभा, योग्यता और समग्र सेवाओं की स्वीकृति में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था।
मौलाना आज़ाद का देहांत 02 फ़रवरी 1958 को हुआ। उनका मज़ार उर्दू बाज़ार, जामा मस्जिद देहली के परिसर में है।
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