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लेखक: परिचय

मुल्ला वजही दकन के उन नामवर शायरों में से एक है जिन्होंने दकनी ज़बान की समस्त काव्य विधाओं पर अभ्यास किया है और शे’र गोई में अपना एक स्थान बनाया है। उसने इस तरह ज़बान की बुनियादें मज़बूत कीं कि लगभग ढाई सौ बरस तक उनकी शायरी दकन के साहित्यिक गलियारों में पसंदीदगी और क़दर की निगाहों से देखी जाती रही। मुल्ला वजही ने न सिर्फ़ नज़्म में बल्कि नस्र में भी अपने क़लम का ज़ोर दिखाया है।

गोलकुंडे के सुलतान इब्राहीम क़ुतुब शाह के ज़माने में मुल्ला वजही पैदा हुए। कहा जाता है कि उनके पूर्वज खुरासान से दकन आए थे और यहीं के हो रहे। ये नया वतन उनको बहुत पसंद आया, इसलिए वजही ने एक जगह कहा है,

दकन है नगीना अँगूठी है जग
अँगूठी को हुर्मत नगीना है लग
दकन मुल्क को धन अजब साज है
कि सब मुल्क सर और दकन ताज है

वजही की शिक्षा-दीक्षा योग्य गुरुओं के हाथों हुई। जब इब्राहीम क़ुतुब शाह के बाद मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह तख़्त नशीन हुआ तो मुल्ला वजही दरबार में उपस्थित हुआ और अपनी क़ाबिलीयत और ज्ञान के सबब उसने मलक-उल-शोअरा का दर्जा पाया। इस दरबार से जुड़े दूसरे शायर जैसे ग़व्वासी वग़ैरा उतना सम्मान न पा सके। वाक़ियात में दर्ज है कि मुल्ला वजही ने अपने मर्तबा पर हर जगह फ़ख़्र व अभिमान किया है और समकालीन शायरों को अपना आलोचक माना है। एक जगह कहता है,
जुते शाइराँ शायर होर आएँगे
सो मंज से तर्ज़ शे’र का पाएँगे

लेकिन वजही की ये आत्म प्रशंसा उस वक़्त ख़त्म हो गई जब क़ुली क़ुतुब शाह का देहांत हो गया और मुहम्मद क़ुतुब शाह तख़्त नशीन हुआ। मुहम्मद क़ुतुब शाह एक संयमी और परहेज़गार सुलतान था और हज़रत मीर मोमिन पेशवाए सल्तनत का भक्त था। वह शे’र-ओ-  शायरी जैसे कामों में वक़्त नहीं लगाता था बल्कि इलाही की इबादत में मसरूफ़ रहता था। उस की दीनदारी की एक अज़ीम यादगार हैदराबाद की मक्का मस्जिद है। उसके दौर में वजही को आर्थिक विपन्नता और गुमनामी की ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी। फिर मुहम्मद क़ुतुब शाह के बेवक़्त मौत के बाद जब अब्दुल्लाह क़ुतुब शाह ने हुकूमत की बागडोर संभाली तो वजही के उजड़े बाग़ में फिर से बहार आगई। सुलतान ने ख़ुद वजही को तलब किया और इज़्ज़त-ओ-मर्तबा से सम्मानित किया।

किताब “सब रस” मुल्ला वजही का नस्री कारनामा है। इस किताब में शिष्टाचार और तसव्वुफ़ के मसाइल को क़िस्से के रूप में बहुत ही ख़ूबी से बयान किया गया है। उन नैतिक विषयों पर बहस की गई है जो इंसान की साफ़ सुथरी ज़ेहनी और सामाजिक ज़िंदगी में बहुत ज़रूरी हैं। जिन विशेषताओं से इंसान इंसान कहलाता है उन पर खुल कर बहस की गई है। मिसाल के तौर पर जैसे इंसान के लिए अक़्ल का होना ज़रूरी है जिसकी अनुपस्थिति में उसकी हरकतें हैवानों से बदतर होजाती हैं। वजही लिखते हैं,

“अक़्ल नूर है। अक़्ल की दौड़ बहुत दूर है। अक़्ल से तो आदमी क़हवाते। अक़्ल है तो अक़्ल से ख़ुदा को पाते। अक़्ल अच्छे तो तमीज़ करे। भला होर बुरा जाने अक़्ल अच्छे तो आपस को होर दूसरों को पछाने। जितनी अक़्ल उतनी बड़ाई। अक़्ल न होती तो कुछ न होता,

अक़्ल के नूरते सब जग ने नूर पाया है
जने जो इल्म सेकिया सो अक़्ल ते आया है

इंसानी भूमिका में जो दूसरी चीज़ सबसे अहम है वो है सदाक़त पसंदी इसलिए सच्चाई के बारे में लिखता है,

“सच्चे पर हंसते, मस्ख़रियां करते, सच्चे को उड़ाते, सच्चे पर बोलां धरते, सच्चे में नईं है झूटी बाज़ी, सच्चे सूँ ख़ुदा रसूल राज़ी, बाज़े नापाकाँ पैग़ंबर को बोलते थे कि यो दीवाना है, साहिर है, ये बात छुपी नहीं ज़ाहिर है। सच्चे का दिल पाक, झूटे के दिल में शक यानी झूट हलाक करता है और सच देता है नजात।” 

उस के नस्र में मिश्रित और योगिक वाक्य लगभग न के बराबर हैं और सारे मायने सादा एकल परिमार्जित हैं। यही वजह है कि “सब रस” आज भी आसानी से पढ़ी और समझी जा सकती है।

वजही की “क़ुतुब मुशतरी” उर्दू साहित्य में एक अहम मसनवी है जो 1018 हि.(सन्1609) में लिखी गई।

मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह को एक नृत्यांगना भागमती से इश्क़ था। कहा जाता है कि उसी का क़िस्सा इस मसनवी का विषय है, उसमें भागमती को मुशतरी के नाम से याद किया गया है। यह मसनवी सिर्फ बीस दिन में मुकम्मल की गई थी, इसका सबब ये था कि भागमती की बरसी क़रीब थी और इस मौक़े पर ये मसनवी पेश कर के वजही बादशाह को ख़ुश करना चाहता था ताकि उसे इनाम-ओ-इकराम से नवाज़ा जा सके। मसनवी रिवाज के अनुसार हम्द-ए-ख़ुदा(ईश्वर की स्तुति) से शुरू होती है, इसके बाद नाअत-ए-रसूल(पैग़म्बर मोहम्मद स.अ. के प्रशंसा गान) फिर मनक़बत-ए-अली और उसके बाद इश्क़ की तारीफ़ की गई है। इसके बाद ही ये बताया गया है कि अच्छे शे’र में क्या खूबियां होनी चाहिएं, जैसे शे’र में सरलता और रवानी होना ज़रूरी है।

असल मसनवी का क़िस्सा यूं है कि बड़ी मन्नतों मुरादों के बाद बादशाह इब्राहीम के एक बेटा पैदा हुआ। ज्योतिषियों ने उसकी ख़ुश क़िस्मत ज़िंदगी की भविष्यवाणी की। लड़का ऐसा होनहार था कि मकतब में सिर्फ बीस दिन तालीम पाने के बाद विद्वान, शायर और सुलेखक हो गया। जवान हो कर वो ग़ज़ब का ख़ूबरू और बला का ताक़तवर निकला। उसने एक-बार एक हसीना को सपने में देखा और उस पर आशिक़ हो गया। बादशाह के इशारे पर बहुत सी हसीनाओं ने उसे रिझाने की कोशिश की मगर कामयाबी न हुई। आख़िर एक अतारिद नामी चित्रकार को बुलाया गया जिसके पास बेशुमार हसीन लड़कियों की तस्वीरें थीं। उसने मुशतरी की तस्वीर शहज़ादे को दिखाई जो देखते ही उसे पहचान गया। फिर शहज़ादा सौदागर के भेस में अतारिद के साथ मुल्क बंगाल की तरफ़ रवाना हुआ जो मुशतरी का अड्डा था। रास्ते में देव, साँप अजगर और राक्षस जैसी बलाओं का सामना करना पड़ा मगर शहज़ादे ने सबको राम कर लिया। राक्षस की क़ैद में हलब का वज़ीर ज़ादा मिर्रीख़ ख़ां भी था जो मुशतरी की बहन ज़ुहरा पर आशिक़ था। शहज़ादे ने उसे क़ैद से छुड़ाया। अतारिद, शहज़ादा और मिर्रीख़ ख़ां मंज़िलों को तै करते और ठिकानों को पीछे छोड़ते हुए महताब परी के डेरे, परिस्तान पहुँच गए। महताब को शहज़ाद बहुत पसंद आया और उसने शहज़ादे को अपना भाई बना लिया। शहज़ादे को महताब परी के पास छोड़कर अतारिद ख़ुद बंगाल चला गया और मुशतरी का महल तलाश कर लिया। उस महल के नज़दीक उसने अपनी चित्रशाला स्थापित की। जब उसकी चित्रकारी की शोहरत हुई तो मुशतरी ने उसे बुला कर अपने महल की सजावट का काम सपुर्द किया। उसने दीवारों पर बेहतरीन तस्वीरें बनाईं और सबसे प्रमुख स्थान पर शहज़ादे की ऐसी लाजवाब तस्वीर बनाई कि मुशतरी उसे देखकर बेहोश हो गई और उससे इश्वक़ करने लगी। अतारिद ने पत्र भेज कर शहज़ादे को बुलाया और दोनों की मुलाक़ात करा दी। मिर्रीख़ ख़ां को ये इनाम मिला कि उसकी शादी ज़ुहरा से हो गई और बंगाल की हुकूमत उसे अता हुई। शहज़ादा क़ुतुब शाह और मुशतरी लम्बा सफ़र तै कर के दकन पहुँचे जहाँ उनकी धूम धाम से शादी हो गई। इब्राहीम शाह बूढा हो चुका था इसलिए सल्तनत का तख़्त-ओ-ताज बेटे को देकर एकांतवास हो गया। इस तरह ये आसमानी ग्रहों के नामों वाली दास्तान ख़त्म हुई।

इस दास्तान को पढ़ कर ऐसा लगता है कि यह ख़ुद वजही के दिमाग़ की उपज है। हालांकि इस का क़िस्सा मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह और भागमती के मुताल्लिक़ परम्पराओं से मिलता-जुलता है लेकिन दास्तान को सुंदर बनाने के लिए इसमें इतनी कतर ब्योंत की गई है कि न आशिक़ की शक्ल पहचानी जाती है और न माशूक़ की। इसलिए कुछ शोधार्थियों को यह संदेह हुआ कि यह तो कोई दूसरा ही क़िस्सा है जिसका सुलतान से वास्ता महज़ क़ियास है। शायद तब्दीली का यही मंशा रहा हो कि “सर दिलबराँ”, “हदीस दीगरां” में इस तरह बयान किया जाये कि बात खुल कर सामने न आए।

वजही के सन् पैदाइश की तरह उसके मृत्यु के साल के बारे में भी कोई विश्वस्त जानकारी नहीं हैं। अंदाज़ा किया जाता है कि 1076 हि.(सन्1665) और 1083 हि.(सन्।1672) के बीच वह इस संसार से रुख़सत हुआ और अपने पीछे ऐसी यादगारें छोड़ गया जो अब भी क़दर की निगाहों से देखी जाती है।

मुल्ला वजही ने मरसिए भी कहे हैं जो उस ज़माने की अज़ा की मजालिस में पढ़े जाते थे। उस का एक नौहा बड़ा मक़बूल था जिसका मतला ये था,

हुसैन का ग़म करो अज़ीज़ां
नैन से अनझो झरो अज़ीज़ां

मुल्ला वजही के इस परिचय के बाद अब आइए ज़रा उनकी तस्वीर पर। वजही की तस्वीर बड़ी तलाश के बाद उपलब्ध हुई जो इदारा अदबीयात उर्दू, हैदराबाद के सम्पादित एलबम के किनारे पर लगी हुई थी। उसी तस्वीर को मैंने बुनियाद बना कर उसका ख़द्द-ओ-ख़ाल और लिबास से आरास्ता किया है। उस ज़माने में दरबार-ए-सुलतानी से जुड़े शायर निहायत ख़ुशपोश होते थे। इसलिए वजही के क़ीमती लिबास को देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। परिदृश्य में गोलकुंडा में स्थित एक मस्जिद का हिस्सा दिखाया गया है जो क़ुतुब शाही वास्तु कला की नज़ाकत का एक शाहकार है।

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