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पुस्तक: परिचय

سیرت نبوی پر آج بھی اردو زبان میں سب سے اہم کتاب علامہ شبلی نعمانی اور مولانا سلیمان ندوی کی سیرت النبی ہے۔سیرت کے ہر طالب علم کو اس کتاب کی تمام سات جلدوں کو از اول تاآخر ضرور پڑھنا چاہیے۔ اس کتاب کی خصوصیت یہ ہے کہ اس میں سیرت پاک کو ایک مورخ اور ایک سوانح نگار کے ساتھ ساتھ ایک فلسفی اور مدبر کی نگاہ سے بھی دیکھا گیاہے۔ سات ضخیم جلدوں پر مشتمل یہ کتاب نہ صرف اردو زبان بلکہ دنیا بھر کی مختلف زبانوں میں لکھی جانے والی بہترین کتب سیرت میں شمار کی جاتی ہے، دراصل اس کو علامہ شبلی ؒ نے لکھنا شروع کیا تھا اور دو جلدیں لکھ بھی ڈالی تھی۔ تاہم علامہ شبلی کا انتقال ہوگیا ،تو باقی کی جلدیں سید سلیمان ندوی نے مکمل کیں ۔یہ کتاب محسن انسانیت کی سیرت پر منفرد اسلوب کی حامل ایک جامع کتاب ہے۔"سیرۃالنبی "کی اس چھٹی جلدمیں آپ کے اخلاق اورآپ کی تعلیمات اخلاقی کا تفصیل سے ذکر کیا گیا ہے۔

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लेखक: परिचय

अल्लामा सय्यद सुलेमान नदवी नवंबर 1884ई. में मौज़ा देसना ज़िला अज़ीमाबाद में पैदा हुए। यह बड़ा मरदुम ख़ेज़ इलाक़ा है। इस छोटे से गाँव ने जितने ग्रेजुएट पैदा किए उतने पाक व हिन्द के किसी और गाँव ने पैदा न किए होंगे। उसी तरह उसने अरबी के भी कई विद्वान पैदा किए। उन्ही में सय्यद सुलेमान नदवी का शुमार होता है। उनके वालिद-ए-माजिद का नाम अबुलहसन था। मौलाना सय्यद सुलेमान नदवी ने आरंभिक शिक्षा क़स्बा फुलवारी भंगा में प्राप्त की। उसके बाद दारुल-उलूम नदवा में शिक्षा प्राप्त की। उसी ज़माने में अल्लामा शिबली नोमानी ने मौलाना नदवी साहब को अपने शागिर्दों में शामिल कर लिया। सय्यद साहब जब स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली तो उसी संस्था से सम्बद्ध हो गए लेकिन वो बेहतर मुलाज़मत के सिलसिले में हैदराबाद जाना चाहते थे। अल्लामा शिबली नोमानी ने कोशिशें भी कीं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं हुई। इस सिलसिले में सय्यद साहब सन्1908 में हैदराबाद भी गए थे लेकिन क़ुदरत को उनसे कुछ और ही काम लेना था। सय्यद सुलेमान नदवी साहब अरबी ज़बान पर भी बड़ी क़ुदरत रखते थे। दारुल-उलूम नदवा के वार्षिक बैठक में सय्यद साहब ने पहली बार अरबी में शानदार तक़रीर की जिसे सुनकर अल्लामा शिबली इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने बैठक में अपनी पगड़ी उतार कर उनके सिर पर रख दिया। सय्यद साहिब ने कुछ समय के लिए दारुल-उलूम में शिक्षण सेवाएँ प्रदान कीं जबकि कुछ समय तक “अलहिलाल” में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ काम किया। इसके बाद वो दक्कन कॉलेज पूना में दो साल तक फ़ारसी के अस्सिटेंट प्रोफ़ेसर रहे। मार्च 1911 में सय्यद साहब को फिर हैदराबाद जाने का मौक़ा मिला। अल्लामा शिबली के दौरान क़ियाम इमाद-उल-मुल्क ने उनके नदव तुल उलमा के काम से प्रभावित हो कर अपना बेशक़ीमत कुतुबख़ाना नदवा को दे दिया था। इसलिए उस कुतुबख़ाने को हैदराबाद से लाने के लिए मौलाना शिबली नोमानी ने सय्यद साहब को चुना। सन् 1941में जब अल्लामा शिबली नोमानी का स्वर्गवास हुआ तो सय्यद साहब दक्कन कॉलेज पूना में लेक्चरर थे। अल्लामा साहब ने उनको वसीयत की थी कि सब काम छोड़कर सीरत उन्नबी(पैग़म्बर मुहम्मद की जीवनी) को पूर्ण एवं प्रकाशित करने का कर्तव्य निभाएं। इसलिए सय्यद साहब ने नौकरी छोड़ दी। उनके सामने दो महत्वपूर्ण योजनाओं को पूरा करना था। एक सीरत उन्नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म)  का लेखन व संकलन और दूसरा दार उल मुसन्निफीन के युवा पीढ़ी का पोषण करना। उन्होंने हर तरफ़ से मुँह मोड़ कर अपने आपको उन उद्देश्यों के लिए समर्पित कर दिया। आख़िरकार बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से उन्होंने अपने उस्ताद की अधूरी किताब को पूरा किया। उसकी वजह से ज्ञान की दुनिया में उनका नाम दूर-दूर तक मशहूर हो गया। सीरत के छः खण्डों में आरंभिक पौने दो खंड उनके उस्ताद शिबली नोमानी के हैं जबकि शेष सवा चार किताबें उन्होंने ख़ुद संकलित किया। सय्यद साहब की विद्वता के सम्बंध में जनाब ज़ियाउद्दीन बरनी अपनी किताब “अज़मत-ए-रफ़्ता” में लिखते हैं कि सन्1920 में जब इंग्लिस्तान के विरुद्ध एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का प्रस्ताव सामने आया तो सुलेमान नदवी को उनकी असाधारण विद्वता की वजह से उलमाए हिंद की ओर से प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया गया। वहाँ उन्होंने प्रसिद्ध प्राच्य भाषाशास्त्रियों से मुलाक़ातें कीं और उन्हें अपना हम ख़्याल बनाया। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी भरपूर हिस्सा लिया। सन्1917 में कलकत्ता में आयोजित उलमाए बंगाल की बैठक अध्यक्षता की और सरकार के दमन व हिंसा के बावजूद एक साहसिक उपदेश दिया कि लोगों के ज़ेहन से अंग्रेज़ का आतंक उठ गया। अल्लामा शिबली नोमानी की तरह अल्लामा सय्यद सुलेमान नदवी को भी इतिहास और साहित्य से ख़ास लगाव था। उन्होंने सीरत, जीवनी, धर्म, भाषा और साहित्य के मुद्दों पर शोध कार्य किया और मासिक ‘मआरिफ़’ जारी किया और इसके माध्यम से धर्म और साहित्य की सेवा की। सन्1950 में नदवी साहब पाकिस्तान आगए और कराची में आबाद हुए। यहाँ उन्होंने पाकिस्तान और मिल्लत-ए-इस्लामिया की जो ख़िदमात अंजाम दीं वो कभी भुलाया नहीं जा सकता। नदवी साहब एक प्रतिष्ठित विद्वान, इतिहासकार, लेखक और विचारक थे। उनकी रचनाओं में सीरत उन्नबी खंड तीन से छ:, ख़ुतबात-ए-मदारिस, अरब व हिन्द के ताल्लुक़ात, अरबों की जहाज़रानी, सीरत-ए-आयशा, हयात-ए-शिबली, ख़य्याम और नुक़ूश-ए-सुलैमानी शामिल हैं। अल्लामा सुलेमान नदवी को शे’र-ओ-सुख़न का भी शौक़ था। उनका काव्य संग्रह “अरमूग़ान-ए-सुलेमान” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उनकी सेवाओं को स्वीकार करते हुए पाकिस्तान सरकार ने उनको “निशान-ए-सिपास” से नवाज़ा। नवंबर के आख़िरी दिनों सन्1953 को मौलाना नदवी मुजाहिद-ए-इस्लाम, आलिम, अदीब, शायर, अल्लामा शिबली नोमानी के सहकर्मी और शागिर्द, सीरत उन्नबी के संपादक ने नश्वर संसार से कूच किया और हक़ीक़ी मालिक से जा मिले। मौलाना की आख़िरी आरामगाह इस्लामिया कॉलेज कराची के पीछे एक अहाता में स्थित है। उनकी तदफ़ीन के वक़्त सफ़ीर-ए-शाम ने कहा कि हम सुलेमान नदवी को दफ़न नहीं कर रहे इस्लाम दफ़न कर रहे हैं।

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