aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
15 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान आज़ाद हो गया। ताज-ए-बर्तानिया की हुकूमत उसी रात ठीक बारह बजे ख़त्म हुई। हुकूमतें आना फ़ानन क़ायम होती हैं और पलक झपकते में ख़त्म होजाती हैं। मगर सभ्यता और संस्कृति के साथ ऐसा नहीं होता। ये न ही कोई तुरंत पैदा होने वाली चीज़ है और न ऐसी तुच्छ है कि जल्द ही इसको मिटा दिया जाये बल्कि सभ्यता का हाल उस स्थूल पेड़ जैसा है जिसको अगर काटा जाये तो पहले उसकी एक एक शाख़ जुदा करना पड़ेगी फिर तना को काटा जाएगा और आख़िर में जड़ें खोदी जाएँगी फिर भी यह डर रहता है कि उस पेड़ के जो बीज और फल जगह जगह बिखरे हुए हैं वो फिर उसी तरह का एक और पेड़ न पैदा कर दें। हिंदुस्तान की तहज़ीब बल्कि इस उपमहाद्वीप की सभ्यता सदियों से एक ही दृष्टिकोण पर आधारित है और इसका विकास और विस्तार प्राकृतिक कारकों के कारण हुआ है। सरकारें स्थापित होती रहती हैं और उनका ख़ातमा होता रहता है लेकिन अवाम का ज़ेहन वही रहता है जो यहाँ के हालात का तक़ाज़ा है कि सब मिल-जुल कर शांति और सुलह से रहें और यहाँ के बिखरे हुए क़ुदरती ख़ज़ानों से ख़ुद को और यहाँ की धरती को माला माल करते रहें। बदक़िस्मती से डेढ़ सदी पूर्व यहाँ के सबसे बड़े मक्कारों, यानी बर्तानिया वालों की हुकूमत स्थापित होना शुरू हुई।1857 ई.से 1947 ई. अर्थात मात्र 90 वर्षों के दौरान उन्होंने यहाँ की शांतिप्रिय मानसिकता को तितर-बितर कर दिया। यहाँ के बाशिंदों के बीच जान-बूझ कर धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक मतभेद पैदा किए और उनको बढ़ावा दिया। पूर्व शासक ने मुस्लिम समुदाय को परेशान करने के लिए ग़ैर मुस्लिमों को उकसाया और ये बात नफ़रत फैलाने के सिलसिले में उनको ध्यानमग्न करा दिया कि तुम्हारा धर्म, दर्शन, भाषा और संस्कृति बिल्कुल अलग है। हिंदुस्तान की आम भाषा को दो लिपियों में लिखने का रिवाज कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज में किया गया। उर्दू के नवजात हिन्दी का प्रतियोगी क़रार दिया। मतभेदों की बात हर तरह से बढ़ा कर दो राष्ट्रीय विचारधाराओं को पेश किया जिसके नतीजे में देश का विभाजन हो गया।
इस विभाजन के बाद अगर भाषाई परिदृश्य को देखा जाये तो मालूम होगा कि उस वक़्त हिंदुस्तान को एक साथ जोड़ने वाली केवल दो भाषाएँ थीं। एक अंग्रेज़ी जो सरकार की भाषा थी और पूरी बर्तानवी अमल-दारी में प्रचलित थी। दूसरी भाषा उर्दू थी जो आसाम से पंजाब तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों को एक भाषाई रिश्ते में जोड़े हुए थी। हर बड़े शहर से उर्दू के बड़े बड़े अख़बार और पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं और दकन में जामिआ उस्मानिया स्थापित थी जहाँ सारे विषयों की शिक्षा उर्दू में होती थी और लगभग सारे हिंदुस्तान में मालगुज़ारी, अदालत और नगरपालिका कार्यालयों और सरकारी कामों में तथा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम लोकप्रिय और प्रचलित भाषा उर्दू थी। उर्दू की अदबी महफ़िलें और मुशायरे सभ्यता और शिष्टता का नमूना थे और ये एक राष्ट्रीय मनोरंजन का साधन थे। ऑल इंडिया रेडियो और फिल्मों की ज़बान भी उर्दू थी। मुशायरों में जो सबसे ज़्यादा लोकप्रिय विधा थी वो थी “उरूस उल असनाफ़” अर्थात ग़ज़ल।
उस ज़माने में यद्यपि हम सब हिंदुस्तानियों के ज़ेहन सियासी कश्मकशों के कारण विचलित थे और दाग़-दाग़ उजाले वाली सुबह-ए-आज़ादी किसी को पसंद न आई थी मगर हमारे शायरों की चिंतन भावना हमेशा की तरह जवान था और वो ये कहते रहे कि,
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे
मुहब्बत का यह पैग़ाम ग़ज़ल की ज़बान से प्रसारित होता रहा और हमें ये महसूस होता रहा कि कहीं न कहीं एक दूसरे को चाहने की ख़्वाहिश मौजूद है। यह उर्दू ग़ज़ल का पैग़ाम-ए-मुहब्बत था जो हिंदुस्तान की दूसरी स्थानीय भाषाओँ को भी प्रभावित किए बिना न रह सका। इस ग़ज़ल के रिश्ते ने हिन्दी तो हिन्दी, गुजराती, मराठी और तेलगु में भी इसकी आकृति को तमाम हश्र सामानियों के साथ दाख़िल कर दिया और उसी तरह लोकप्रिय हुई जैसी उर्दू में। उन भाषाओँ में उर्दू ग़ज़ल की शब्दावलियाँ भी अपने मूल अर्थ में निसंकोच इस्तेमाल की जा रही हैं।
उर्दू ग़ज़ल की विरासत लाखों शायरों में सदियों से तक़सीम होती आई है लेकिन बहुत कम ऐसे शायर गुज़रे हैं जिनके दामन में लाल-ओ-जवाहर आए हैं और जिनकी ज़बान से शब्दों के मोती बन-बन कर बिखरे हैं। वली दकनी ने उर्दू ग़ज़ल का चराग़ रौशन किया था जो पहले दिल्ली में जगमगाया फिर लखनऊ के ऐवानों में नूर बन के बरसा। चराग़ से चराग़ और शम्मा से शम्मा होती रही। इस मानूस नर्म और दिलकश रोशनी की शम्मों के सिलसिले में संभवतः तरन्नुम के फ़ानुस में रोशन एक आख़िरी शम्मा थी जो मुहम्मद हैदर ख़ां ख़ुमार बाराबंकवी बन कर मार्च सन् 1999 तक जलती रही। एक बेहद पसंदीदा तग़ज़्ज़ुल से भरपूर सोज़ में डूबी हुई ग़ज़लगोई और ग़ज़लसराई में ख़ुमार के समान कोई न था। इस राह में वह अकेले थे, फ़रमाते थे,
हो न हो अब आगई मंज़िल क़रीब
रास्ते सुनसान नज़र आए हैं
उत्तर प्रदेश की राजधानी से पूरब की तरफ़ 23 किलोमीटर दूर शहर बाराबंकी स्थित है। इसकी ख़ास बोली तो किसी क़दर अवधी से मिलती जुलती है लेकिन शिक्षित वर्ग और संभ्रांत लखनऊ की ज़बान बोलते हैं। तहज़ीब भी वही है। शे’र-ओ-अदब की महफ़िलें और मुशायरे और दूसरी अदबी सरगर्मीयां होती रहती हैं। बाराबंकी ज़िला में क़स्बा रूदौली भी है जहाँ के नामवर शायर मजाज़ थे। क़रार बाराबंकवी भी अच्छे शायर थे जिनके कलाम को लखनऊ के अह्ल-ए-ज़बान भी पसंद करते थे। उनही के एक शागिर्द मुहम्मद हैदर ख़ां यानी ख़ुमार बाराबंकवी थे। उन्होंने स्कूल और कॉलेज में तालीम हासिल कर के पुलिस विभाग में नौकरी करली थी। शेरगोई का शौक़ बचपन से था। पहले स्थानीय मुशायरों में शिरकत करते रहे फिर लखनऊ की निजी महफ़िलों में कलाम सुनाया तो हीआओ खुला और बाक़ायदा मुशायरों में आमंत्रित किए जाने लगे। क़ुदरत ने उनको ग़ज़ल के अनुरूप बेहद दिलकश और पुरसोज़ आवाज़ अता की थी जिसको आवाज़ का एक नशात-अंगेज़ सोज़ कहना चाहिए जो जिगर मुरादाबादी के बाद उन ही के हिस्से में आया था। सच तो ये है कि ग़ज़ल उनके लिए और वो ग़ज़ल के लिए बने थे। एक जगह लिखते हैं कि “मैंने समस्त विधाओं का विश्लेषण करने के बाद अपनी भावनाओं और घटनाओं को व्यक्त करने के लिए क्लासिकी ग़ज़ल ही को सबसे ज़्यादा उपयुक्त और अनुकूल पाया, तो ग़ज़ल के ख़िदमत गुज़ारूँ में शामिल हो गया। वक़्त ने कई करवटें बदलीं मगर मैंने ग़ज़ल का दामन नहीं छोड़ा।” ये फ़ैसला ख़ुमार का बिल्कुल सही था। वर्ना उर्दू अदब में महबूब की दिलबरी और आशिक़ की ग़म-आश्ना दिलनवाज़ी से भरपूर हल्की फुल्की मुतरन्निम ग़ज़लों का इतना अच्छा संग्रह एकत्र न होने पाता। ग़ज़ल के चंद अशआर मुलाहिज़ा हों,
कहीं शे’र-ओ-नग़मा बन के कहीं आँसुओं में ढल के
वो मुझे मिले तो लेकिन मिले सूरतों बदल के
ये वफ़ा की सख़्त राहें ये तुम्हारे पाए नाज़ुक
न लो इंतक़ाम मुझसे मरे साथ साथ चल के
ख़ुमार की आवाज़ में जिन लोगों ने उपरोक्त ग़ज़ल को सुना है उनके ज़ेहन में यक़ीनन ये एक ख़्वाब सूरत याद की सूरत में जागज़ीं होगी।
उनकी ग़ज़लों के कुछ पसंदीदा अशआर नीचे दिए जा रहे हैं,
इस गुज़ारिश है हज़रत-ए-नासेह
आप अब और कोई काम करें
रोशनी के लिए घर जलाना पड़ा
ऐसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बाद
दिल कुछ इस तरह धड़का तिरी याद में
मैं ये समझना तिरा सामना हो गया
अश्क बह बह के मिरे ख़ाक पे जब गिरने लगे
मैंने तुझको तिरे दामन को बहुत याद किया
आपको जाते न देखा जाएगा
शम्मा को पहले बुझाते जाइए
बुझ गया दिल हयात बाक़ी है
छुप गया चाँद रात बाक़ी है
रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे
कट गई उम्र रात बाक़ी है
दास्ताँ को बदलते जाते हैं
इश्क़ की दास्ताँ जारी है
यूं तो हम ज़माने में कब किसी से डरते हैं
आदमी के मारे हैं आदमी से डरते हैं
दिन ज़िंदगी के कट गए दर खड़े खड़े
वो कह गए थे लौट के आने के वास्ते
क़ियामत यक़ीनन क़रीब आगई है
ख़ुमार अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं
ग़म से बाज़ आए थे ख़ुशी के लिए
दो ही दिन में ख़ुशी से बाज़ आए
पैहम तवाफ़ कूचा-ए-जानाँ के दिन गए
पैरों में चलने फिरने की ताक़त नहीं रही
ग़ज़लों के अलावा उन्होंने मनक़बत और सलाम भी कहे हैं। सलाम के कुछ अशआर निहायत बसीरत अफ़रोज़ हैं।
हक़-ओ-बातिल में कहीं जंग अगर होती है
कर्बला वालों पे दुनिया की नज़र होती है
इक नवासे का ये एहसान है इक नाना पर
मस्जिदों में जो अज़ां शाम-ओ-सह्र होती है
एक और सलाम में कहते हैं,
राह-ए-हक़ में मरने वाले रोज़-ए-आशूरा ख़ुमार
मौत से खेला किए और ज़िंदगी बढ़ती गई
सन् 1945 में मुशायरे में शिरकत की ग़रज़ से ख़ुमार, जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुलतानपुरी के साथ बंबई आए थे। ए.आर.कारदार ने जब उनका कलाम सुना तो अपनी फ़िल्म “शाहजहाँ” मैं गीत लिखने की फ़र्माइश की जो ख़ुमार ने क़बूल कर ली। उस फ़िल्म में नौशाद ने संगीत दिया था और कुन्दन लाल सहगल ने गीत गाए थे,
चाह बर्बाद करेगी हमें मालूम न था
हम पे ऐसे भी पड़ेगी हमें मालूम न था
कुछ और गाने भी उनके बड़े लोकप्रिय हुए, जैसे,
1. तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
2. भूला नहीं देना भूला नहीं देना, ज़माना ख़राब है
3. दिल की महफ़िल सजी है चले आइए
4. मुहब्बत ख़ुदा है मुहब्बत ख़ुदा है
बंबई के माहौल और 1947 ई.के दंगों ने उनको बंबई से दुखी कर दिया और वो वापस उत्तर भारत चले गए।
ख़ुमार निहायत सादगी पसंद थे और दिलचस्प गुफ़्तगू करते थे। हर एक से झुक के मिलते थे। शुरू में शराब पीने के बुरी तरह आदी थे लेकिन बाद में तौबा कर लिया था। फिक्र-ओ-ख़्याल की धीमी धीमी आग को वो सीने में लिये फिरते थे और कभी कभी अशआर में उसको व्यक्त कर देते थे मगर शिकायत नहीं। उनकी जवाँ-साल लड़की जब इंतिक़ाल कर गई तो इस बड़े सदमे को उन्होंने सिर्फ़ एक शे’र में व्यक्त किया है जो बजा-ए-ख़ुद मर्सिया है,
उसको जाते हुए तो देखा था
फिर बसारत ने साथ छोड़ दिया
ख़ुमार ने 80 बरस की लम्बी उम्र पाई। 19 मार्च 1999ई. को ज़िन्दगी की शराब का ख़ुमार उतर गया और वो अनंत की दुनिया में पहुँच गए।
उनके तीन काव्य संग्रह “आतिश-ए-तर”, “रक़्स-ए-मय”, “शब ताब” प्रकाशित हो चुके हैं। हैदराबाद के एक मुशायरे में ली गई एक तस्वीर से उनका सिर्फ़ चेहरा लेकर बाक़ी हिस्सा मुकम्मल किया गया है और रंग व परिदृश्य से सजाया गया है। इस पोज़ में वो कलाम सुनाते नज़र आरहे हैं और बहुत सारे लोगों की याददाश्त में उनका यही चेहरा महफ़ूज़ है।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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