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लेखक : फ़िराक़ गोरखपुरी

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : साहित्या कला भवन, इलाहाबाद

प्रकाशन वर्ष : 1965

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : कुल्लियात, काव्य संग्रह

पृष्ठ : 212

सहयोगी : सेंट्रल लाइब्रेरी ऑफ़ इलाहबाद यूनिवर्सिटी, इलाहबाद

shabnamistan (kulliyat-e-firaq)
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पुस्तक: परिचय

فراق گورکھپوری اپنے عہد کے نابغہ روزگار شخصیت ہیں۔جو اپنی تخلیقی جوہر سے مزئین ایک عظیم شاعر ،نقاد اور مفکر ہیں۔پیش نظر ان کی غزلوں کا انتخاب "شبستان" ہے۔یہ غزلیں دوسری جنگ عظیم کے آغاز 1939ء سے انجام 1945 ء کے درمیان میں تحریر کی گئی ہیں۔ان میں بیشتر غزلیں ہندی بحروں میں ہیں جن کے بعض اشعار کی موزونیت ہندی عروض کے مطابق ہے۔ا ن کےاشعار میں رومانیت، وجدانی کیفیات، مناظر قدرت اور حسن و عشق کا بیان ملتا ہے۔

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लेखक: परिचय

फ़िराक़ गोरखपुरी एक युग निर्माता शायर और आलोचक थे। उनको अपनी विशिष्टता की बदौलत अपने ज़माने में जो प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली वो कम ही शायरों को नसीब होती है। वो इस मंज़िल तक बरसों की साधना के बाद पहुंचे थे। बक़ौल डाक्टर ख़्वाजा अहमद फ़ारूक़ी, अगर फ़िराक़ न होते तो हमारी ग़ज़ल की सरज़मीन बेरौनक़ रहती, उसकी मेराज इससे ज़्यादा न होती कि वो उस्तादों की ग़ज़लों की कार्बन कापी बन जाती या मुर्दा और बेजान ईरानी परम्पराओं की नक्क़ाली करती। फ़िराक़ ने एक पीढ़ी को प्रभावित किया, नई शायरी के प्रवाह में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और हुस्न-ओ-इश्क़ का शायर होने के बावजूद इन विषयों को नए दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने न सिर्फ़ ये कि भावनाओं और संवेदनाओं की व्याख्या की बल्कि चेतना व अनुभूति के विभिन्न परिणाम भी प्रस्तुत किए। उनका सौंदर्य बोध दूसरे तमाम ग़ज़ल कहने वाले शायरों से अलग है। उन्होंने उर्दू के ही नहीं विश्व साहित्य के भी मानकों और मूल्यों से पाठकों को परिचय कराया और साथ ही युग भावना, सांसारिकता और सभ्यता के प्रबल पक्षों पर ज़ोर देकर एक स्वस्थ वैचारिक साहित्य का मार्ग प्रशस्त किया और उर्दू ग़ज़ल को अर्थ व विचार और शब्द व अभिव्यक्ति के नए क्षितिज दिखाए।

फ़िराक़ गोरखपुरी का असल नाम रघुपति सहाय था। वो 28 अगस्त 1896 ई. में गोरखपुर में पैदा हुए। उनके वालिद गोरख प्रशाद ज़मींदार थे और गोरखपुर में वकालत करते थे। उनका पैतृक स्थान गोरखपुर की तहसील बाँस गांव था और उनका घराना पाँच गांव के कायस्थ के नाम से मशहूर था। फ़िराक़ के वालिद भी शायर थे और इबरत तख़ल्लुस करते थे। फ़िराक़ ने उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा घर पर प्राप्त की, इसके बाद मैट्रिक का इम्तिहान गर्वनमेंट जुबली कॉलेज गोरखपुर से सेकंड डिवीज़न में पास किया। इसी के बाद 18 साल की उम्र में उनकी शादी किशोरी देवी से कर दी गई जो फ़िराक़ की ज़िंदगी में एक नासूर साबित हुई। फ़िराक़ को नौजवानी में ही शायरी का शौक़ पैदा हो गया था और 1916 ई. में जब उनकी उम्र 20 साल की थी और वो बी.ए के छात्र थे, पहली ग़ज़ल कही। प्रेमचंद उस ज़माने में गोरखपुर में थे और फ़िराक़ के साथ उनके घरेलू सम्बंध थे। प्रेम चंद ने ही फ़िराक़ की आरम्भिक ग़ज़लें छपवाने की कोशिश की और ‘ज़माना’ के संपादक दयानरायन निगम को भेजीं। फ़िराक़ ने बी.ए सेंट्रल कॉलेज इलाहाबाद से पास किया और चौथी पोज़ीशन हासिल की। उसी साल फ़िराक़ के वालिद का देहांत हो गया। ये फ़िराक़ के लिए एक बड़ी त्रासदी थी। छोटे भाई-बहनों की परवरिश और शिक्षा की ज़िम्मेदारी फ़िराक़ के सर आन पड़ी। बेजोड़ धोखे की शादी और पिता के देहांत के बाद घरेलू ज़िम्मेदारियों के बोझ ने फ़िराक़ को तोड़ कर रख दिया, वो अनिद्रा के शिकार हो गए और आगे की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उसी ज़माने में वो मुल्क की सियासत में शरीक हुए। सियासी सरगर्मियों की वजह से 1920 ई. में  उनको गिरफ़्तार किया गया और उन्होंने 18 माह जेल में गुज़ारे। 1922 ई. में वो कांग्रेस के अंडर सेक्रेटरी मुक़र्रर किए गए। वो मुल्क की सियासत में ऐसे वक़्त में शामिल हुए थे जब सियासत का मतलब घर को आग लगाना होता था। नेहरू ख़ानदान से उनके गहरे सम्बंध थे और इंदिरा गांधी को वो बेटी कह कर बुलाते थे। मगर आज़ादी के बाद उन्होंने अपनी राजनैतिक सेवाओं को भुनाने की कोशिश नहीं की। वो मुल्क की मुहब्बत में सियासत में गए थे। सियासत उनका मैदान नहीं था। 1930 ई.में  उन्होंने प्राईवेट उम्मीदवार की हैसियत से आगरा यूनीवर्सिटी से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. का इम्तिहान विशेष योग्यता के साथ पास किया और कोई दरख़ास्त या इंटरव्यू दिए बिना इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में लेक्चरर नियुक्त हो गए। उस ज़माने में इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग की ख्याति पूरे देश में थी। अमर नाथ झा और एस एस देब जैसे विद्वान उस विभाग की शोभा थे। लेकिन फ़िराक़ ने अपनी शर्तों पर ज़िंदगी बसर की। वो एक आज़ाद तबीयत के मालिक थे। महीनों क्लास में नहीं जाते थे न हाज़िरी लेते थे। अगर कभी क्लास में गए भी तो पाठ्यक्रम से अलग हिन्दी या उर्दू शायरी या किसी दूसरे विषय पर गुफ़्तगु शुरू कर देते थे, इसीलिए उनको एम.ए की क्लासें नहीं दी जाती थीं। वर्ड्स्वर्थ के आशिक़ थे और उस पर घंटों बोल सकते थे। फ़िराक़ ने 1952 ई. में शिब्बन लाल सक्सेना के आग्रह पर संसद का चुनाव भी लड़ा और ज़मानत ज़ब्त कराई। निजी ज़िंदगी में फ़िराक़ बेढंगेपन की प्रतिमा थे। उनके मिज़ाज में हद दर्जा ख़ुद पसंदी भी थी। उनके कुछ शौक़ ऐसे थे जिनको समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता लेकिन न तो वो उनको छुपाते थे और न शर्मिंदा होते थे। उनके सगे-सम्बंधी भी, विशेष कर छोटे भाई यदुपति सहाय, जिनको वो बहुत चाहते थे और बेटे की तरह पाला था, रफ़्ता-रफ़्ता उनसे अलग हो गए थे जिसका फ़िराक़ को बहुत दुख था। उनके इकलौते बेटे ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में ख़ुदकुशी कर ली थी। बीवी किशोरी देवी 1958 ई. में अपने भाई के पास चली गई थीं और उनके जीते जी वापस नहीं आईं। इस तन्हाई में शराब-ओ-शायरी ही फ़िराक़ के साथी व दुखहर्ता थे।1958 ई. में वो यूनीवर्सिटी से रिटायर हुए। घर के बाहर फ़िराक़ सम्माननीय, सम्मानित और महान थे लेकिन घर के अंदर वो एक बेबस वुजूद थे जिसका कोई हाल पूछने वाला न था। वो वंचितों की एक चलती फिरती प्रतिमा थे जो अपने ऊपर ख़ुशहाली का लिबास ओढ़े था। बाहर की दुनिया ने उनकी शायरी के इलावा उनकी हाज़िर जवाबी, हास्य-व्यंग्य, विद्वता, ज्ञान व विवेक और सुख़न-फ़हमी को ही देखा। फ़िराक़ अपने अंदर के आदमी को अपने साथ ही ले गए। बतौर शायर ज़माने ने उनकी प्रशंसा में कोई कसर नहीं उठा रखी। 1961 ई. में उनको साहित्य अकादेमी अवार्ड से नवाज़ा गया, 1968 ई.में  उन्हें सोवियत लैंड नेहरू सम्मान दिया गया। भारत सरकार ने उनको पद्म भूषण ख़िताब से सरफ़राज़ किया। 1970 ई. में वो साहित्य अकादेमी के फ़ेलो बनाए गए और “गुल-ए-नग़्मा” के लिए उनको अदब के सबसे बड़े सम्मान ज्ञान पीठ अवार्ड से नवाज़ा गया जो हिन्दोस्तान में अदब का नोबेल इनाम माना जाता है। 1981 ई. में उनको ग़ालिब अवार्ड भी दिया गया। जोश मलीहाबादी ने फ़िराक़ के बारे में कहा था, “मैं फ़िराक़ को युगों से जानता हूँ और उनकी अख़लाक़ का लोहा मानता हूँ। इल्म-ओ-अदब की समस्याओं पर जब उनकी ज़बान खुलती है तो लफ़्ज़ों के लाखों मोती रोलते हैं और इस अधिकता से कि सुननेवाले को अपनी कम स्वादी का एहसास होने लगता है... जो शख़्स ये तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदू सामईन के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरू और शायरी की मांग का सिंदूर है, वो ख़ुदा की क़सम कोर मादर-ज़ाद है।” 3 मार्च 1982 को दिल की धड़कन बंद हो जाने से फ़िराक़ उर्दू अदब को दाग़-ए-फ़िराक़ दे गए और सरकारी सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। फ़िराक़ उस तहज़ीब का मुकम्मल नमूना थे जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है, वो शायद इस क़बीले के आख़िरी फ़र्द थे जिसे हम मुकम्मल हिन्दुस्तानी कह सकते हैं।

शायरी के लिहाज़ से फ़िराक़ बीसवीं सदी की अद्वितीय आवाज़ थे। कामुकता को अनुभूति व समझ और चिंतन व दर्शन का हिस्सा बना कर महबूब के शारीरिक सम्बंधों को ग़ज़ल का हिस्सा बनाने का श्रेय फ़िराक़ को जाता है। जिस्म किस तरह ब्रह्मांड बनता है, इश्क़ किस तरह इश्क़-ए-इंसानी में तबदील होता है और फिर वो कैसे जीवन व ब्रह्मांड से सम्बंध प्रशस्त करता है, ये सब फ़िराक़ के चिंतन और शायरी से मालूम होता है। फ़िराक़ शायर के साथ साथ विचारक भी थे। प्रत्यक्ष और उद्देश्यपूर्ण सोच उनके मिज़ाज का हिस्सा था। फ़िराक़ का इश्क़ रूमानी और दार्शनिक कम, सामाजिक और सांसारिक ज़्यादा है। फ़िराक़ इश्क़ की तलाश में ज़िंदगी की दिशा व गति और अस्तित्व व विकास की तस्वीर खींचते हैं। फ़िराक़ के मिलन की अवधारणा दो जिस्मों का नहीं दो ज़ेहनों का मिलाप है। वो कहा करते थे कि उर्दू अदब ने अभी तक औरत की कल्पना को जन्म नहीं दिया। उर्दू ज़बान में शकुन्तला, सावित्री और सीता नहीं। जब तक उर्दू अदब देवीयत को नहीं अपनाएगा उसमें हिन्दोस्तान का तत्व शामिल नहीं होगा और उर्दू सांस्कृतिक रूप से हिन्दोस्तान की तर्जुमान नहीं हो सकेगी क्योंकि हिन्दोस्तान कोई बैंक नहीं जिसमें रूमानी और सांस्कृतिक रूप से अलग अलग खाते खोले जा सकें। फ़िराक़ ने उर्दू ज़बान को नए गुमशुदा शब्दों से अवगत कराया, उनके अलफ़ाज़ ज़्यादातर रोज़मर्रा की बोल-चाल के, नर्म, सुबुक और मीठे हैं। फ़िराक़ की शायरी की एक बड़ी ख़ूबी और विशेषता ये है कि उन्होंने वैश्विक अनुभवों के साथ साथ सांस्कृतिक मूल्यों की महानता और महत्व को समझा और उन्हें काव्यात्मक रूप प्रदान किया। फ़िराक़ के शे’र दिल को प्रभावित करने के इलावा सोचने को विवश भी करते हैं और उनकी यही विशेषता फ़िराक़ को दूसरे सभी शायरों से उत्कृष्ट करती है।

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