aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
ندا فاضلی ہمارے عہد کے ان شعرا میں ہیں جنھیں منفرد لب و لہجے کا شاعر کہا جا سکتا ہے۔ ان کی انفرادیت یہ ہے کہ انھوں نے ہندی شاعری کے اس آہنگ کو اردو میں کامیابی سے برتا جس کے نمونے ہمیں سنسکرت اور ہندی کے قدیم ادبی سرمایے سے لے کر امیر خسرو اور نظیر اکبرآبادی جیسے شعرا کے یہاں ملتے ہیں۔ زیر نظر کتاب "شہر میرے ساتھ چل" ندا فاضلی کا پانچواں شعری مجموعہ ہے۔ اس مجموعہ میں ندا فاضلی نے خود کو نئے سرے سے متعارف کرایا ہے اس مجموعہ میں ندا فاضلی کی غزلیں زیادہ ہیں، ان غزلوں میں موضوعات اور الفاظ دونوں اعتبار سے مختلف نظر آتے ہیں اس میں وہ نظمیں بھی شامل ہیں جو انھوں نے اپنی بیٹی کے لیے کہیں تھیں ،غزلوں اور نظموں کے علاوہ گیت، دوہے اور اچھی خاصی تعداد میں ماہیے بھی شامل ہیں۔
वर्तमान काल का कबीर दास
“निदा के चिंतन का ये करिश्मा है कि वो एक ही मिसरे में विभिन्न इंद्रियों से उधार इतने सारे शे’री पैकर जमा कर लेते हैं कि हमारी सारी इंद्रियां जाग उठती हैं। मिसरा वो बिजली का तार बन जाता है जिसकी विद्युत तरंगें हम अपनी रगों में दौड़ती महसूस करते हैं। ये असर और प्रभाव नहीं तो शायरी राख का ढेर है।” वारिस अलवी
निदा फ़ाज़ली उर्दू और हिन्दी के एक ऐसे अदीब, शायर, गीतकार, संवाद लेखक और पत्रकार थे जिन्होंने उर्दू शायरी को एक ऐसा लब-ओ-लहजा और शैली दी जिसको उर्दू अदब के अभिजात्य वर्ग ने उनसे पहले सहानुभूति योग्य नहीं समझा था। उनकी शायरी में उर्दू का एक नया शे’री मुहावरा वजूद में आया जिसने नई पीढ़ी को आकर्षित और प्रभावितर किया। उनकी अभिव्यक्ति में संतों की बानी जैसी सादगी, एक क़लंदराना शान और लोक गीतों जैसी मिठास है। उनके संबोधित आम लोग थे, लिहाज़ा उन्होंने उनकी ही ज़बान में गुफ़्तगु करते हुए कोमल और ग़ैर आक्रामक तंज़ के ज़रीये दिल में उतर जाने वाली बातें कीं। उन्होंने अमीर ख़ुसरो, मीर, रहीम और नज़ीर अकबराबादी की भूली-बिसरी काव्य परंपरा से दुबारा रिश्ता जोड़ने की कोशिश करते हुए न केवल उस रिवायत की पुनःप्राप्ति की बल्कि उसमें वर्तमान काल की भाषाई प्रतिभा जोड़ कर उर्दू के गद्य साहित्य में भी नए संभावनाओं की पहचान की। वो मूल रूप से शायर हैं लेकिन उनकी गद्य शैली ने भी अपनी अलग राह बना ली। बक़ौल वारिस अलवी निदा उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हैं जिनकी शायरी और नस्र दोनों लोगों को रिझा गए। अपनी शायरी के बारे में निदा का कहना था, “मेरी शायरी न सिर्फ अदब और उसके पाठकों के रिश्ते को ज़रूरी मानती है बल्कि उसके सामाजिक सरोकार को अपना मयार भी बनाती है। मेरी शायरी बंद कमरों से बाहर निकल कर चलती फिरती ज़िंदगी का साथ निभाती है। उन हलक़ों में जाने से भी नहीं हिचकिचाती जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है। मैं अपनी ज़बान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहाँ शरीफ़ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जा कर अपनी ज़बान लेता हूँ। जैसे मीर, कबीर और रहीम की ज़बानें। मेरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है।” निदा की शायरी हमेशा सैद्धांतिक हट धर्मी और दावेदारी से पाक रही। उन्होंने प्रतीकों के द्वारा ऐसी आकृति गढ़ी कि श्रोता या पाठक को उसे समझने के लिए कोई ज़ेहनी वरज़िश नहीं करनी पड़ती। उनके काव्य पात्र ऊधम मचाते हुए शरीर बच्चे, अपने रास्ते पर गुज़रती हुई कोई साँवली सी लड़की, रोता हुआ कोई बच्चा, घर में काम करने वाली बाई जैसे लोग हैं। निदा के यहां माँ का किरदार बहुत अहम है जिसे वो कभी नहीं भूल पाते... “बेसिन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ/ याद आती है चौका बासन, चिमटा, फुंकनी जैसी माँ।”
निदा फ़ाज़ली 12 अक्तूबर 1938 ई. को दिल्ली में पैदा हुए उनका असल नाम मुक़तिदा हसन था। उनके वालिद मुर्तज़ा हसन शायर थे और दुआ डबाईवी तख़ल्लुस करते थे और रियासत गवालियार के रेलवे विभाग में मुलाज़िम थे। घर में शे’र-ओ-शायरी का चर्चा था जिसने निदा के अंदर कमसिनी से ही शे’रगोई का शौक़ पैदा कर दिया। उनकी आरंभिक शिक्षा गवालियार में हुई और उन्होंने विक्रम यूनीवर्सिटी उज्जैन से उर्दू और हिन्दी में एम.ए की डिग्रियां प्राप्त कीं। देश विभाजन के बाद शरणार्थियों के आगमन सांप्रदायिक तनाव के सबब उनके वालिद को गवालियार छोड़ना पड़ा और वो भोपाल आ गए। इसके बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया। निदा घर से भाग निकले और पाकिस्तान नहीं गए। घर वालों से बिछड़ जाने के बाद निदा ने अपना संघर्ष तन्हा जारी रखा और अपने समय को अध्ययन और शायरी में बिताया। शायरी की मश्क़ करते हुए उन्हें एहसास हुआ कि उर्दू के काव्य धरोहर में एक चीज़ की कमी है और वो ये कि इस तरह की शायरी सुनने सुनाने में तो लुत्फ़ देती है लेकिन व्यक्तिगत भावनाओं का साथ नहीं दे पाती। इस एहसास में उस वक़्त शिद्दत पैदा हो गई जब उनके कॉलेज की एक लड़की मिस टंडन का, जिससे उन्हें जज़्बाती लगाव हो गया था, एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। निदा को उस का बहुत सदमा हुआ लेकिन उनको अपने दुख की अभिव्यक्ति के लिए उर्दू के अदब के धरोहर में एक भी शे’र नहीं मिल सका। अपनी इस ख़लिश का जवाब निदा को एक मंदिर के पुजारी की ज़बानी सूरदास के एक गीत में मिला, जिसमें कृष्ण के वियोग की मारी राधा बाग़ को संबोधित कर के कहती है कि तू हरा-भरा किस तरह है, कृष्ण की जुदाई में जल क्यों नहीं गया। यहीं से निदा ने अपना नया डिक्शन वज़ा करना शुरू किया।
शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक दिल्ली और दूसरे मुक़ामात पर नौकरी की तलाश में ठोकरें खाईं और फिर 1964 में बंबई चले गए। बंबई में शुरू में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने धर्मयुग और ब्लिट्ज़ जैसी पत्रिकाओं और अख़बारों में काम किया। इसके साथ ही अदबी हलक़ों में भी उनकी पहचान बनती गई। वो अपने पहले काव्य संग्रह “लफ़्ज़ों का पुल” की बेशतर नज़्में, ग़ज़लें और गीत बंबई आने से पहले लिख चुके थे और उनकी नई आवाज़ ने लोगों को उनकी तरफ़ आकर्षित कर दिया था। ये किताब 1971 ई.में प्रकाशित हुई और हाथों हाथ ली गई। वो मुशायरों के भी लोकप्रिय शायर बन गए थे। फ़िल्मी दुनिया से उनका सम्बंध उस वक़्त शुरू हुआ जब कमाल अमरोही ने अपनी फ़िल्म रज़ीया सुलतान के लिए उनसे दो गीत लिखवाए। उसके बाद उनको गीतकार और संवाद लेखक के रूप में विभिन्न फिल्मों में काम मिलने लगा और उनकी फ़ाका शिकनी दूर हो गई। बहरहाल वो फिल्मों में साहिर, मजरूह, गुलज़ार या अख़्तरुल ईमान जैसी कोई कामयाबी हासिल नहीं कर सके। लेकिन एक शायर और गद्यकार के रूप में उन्होंने अदब पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। “लफ़्ज़ों का पुल” के बाद उनके कलाम के कई संग्रह मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियान, शहर तू मेरे साथ चल, ज़िंदगी की तरफ़, शहर में गांव और खोया हुआ सा कुछ प्रकाशित हुए। उनके गद्य लेखन में दो जीवनपरक उपन्यास “दीवारों के बीच” और “दीवारों के बाहर” के अलावा मशहूर शायरों के रेखाचित्र “मुलाक़ातें” शामिल हैं। निदा फ़ाज़ली की शादी उनकी तंगदस्ती के ज़माने में इशरत नाम की एक टीचर से हुई थी लेकिन निबाह नहीं हो सका। फिर मालती जोशी उनकी जीवन संगनी बनीं। निदा को उनकी किताब “खोया हुआ सा कुछ” पर 1998 में साहित्य अकादेमी अवार्ड दिया गया। 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री के सम्मान से नवाज़ा। फ़िल्म “सुर” के लिए उनको स्क्रीन अवार्ड मिला। इसके अलावा विभिन्न प्रादेशिक उर्दू अकेडमियों ने उन्हें ईनामात से नवाज़ा। उनकी शायरी के अनुवाद देश की विभिन्न भाषाओँ और विदेशी भाषाओँ में किए जा चुके हैं। 08 फरवरी 2016 ई. को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हुआ।
निदा की शायरी में कबीर के जीवन दर्शन के वो मूल्य स्पष्ट हैं जो मज़हबीयत के प्रचलित फ़लसफ़े से ज़्यादा बुलंद-ओ-बरतर है और जिनका जौहर इंसानी दर्दमंदी में है। निदा सारी दुनिया को एक कुन्बे और और सरहदों से आज़ाद एक आफ़ाक़ी हैसियत के तौर पर देखना चाहते थे। उनके नज़दीक सारी कायनात एक ख़ानदान है। चांद, सितारे, दरख़्त, नदियाँ, परिंदे और इंसान सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं लेकिन ये रिश्ते अब टूट रहे हैं और मूल्यों का पतन हो रहा है। उनका मानना था कि ऐसे में आज के अदीब-ओ-शायर का फ़र्ज़ है कि वह इन रिश्तों को फिर से जोड़ने और बचे हुए रिश्तों को टूटने से बचाने की कोशिश करे। उनके मुताबिक़ रिश्तों की पुनःप्राप्ति, आपसी संपर्क और फ़र्द को इसकी शनाख़्त अता करने का काम अब अदीब-ओ-शायर के ज़िम्मे है।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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