aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
ناول اور افسانہ نگاری میں عصمت آپا کا ایک منفرد مقام ہے۔عصمت نے افسانوں میں رشید جہاں کی قائم کردہ روایت کو بلندیوں پر پہنچایا اور عورت کے مسائل کی پیش کش میں رقت آمیز اور رومانی طرز کو بدل کرایک بے باک، تلخ لیکن جرات مندانہ اسلوب اختیار کیا۔ان کا بے باکانہ انداز نہ صرف ان کے افسانوں میں بلکہ ڈراموں میں بھی نمایاں ہے۔وہ ایک کامیاب ڈرامہ نگار بھی ہیں۔انھوں نے اپنے ڈراموں میں حقیقت نگاری پر زور دیا ہے۔ان کے ڈراموں کے کردار ہمارے آس پاس کے کردار ہیں۔ان کی زبان صاف اور دل کش ہے۔پیش نظر ان کے ڈراموں کا مجموعہ "شیطان" ہے،جس میں شیطان،خواہ مخواہ،تصویریں،دلہن کیسی ہے،شامت اعمال اور دھانی بانکپن" ڈرامےشامل ہیں۔
उर्दू फ़िक्शन की बाग़ी ख़ातून
“हमें इस बात को तस्लीम करने में ज़रा भी संकोच नहीं होना चाहिए कि इस्मत की शख़्सियत उर्दू अदब के लिए गर्व का कारण है। उन्होंने कुछ ऐसी पुरानी फ़सीलों में रख़्ने डाल दिए हैं कि जब तक वो खड़ी थीं कई रस्ते नज़रों से ओझल थे। इस कारनामे के लिए उर्दू जाननेवालों को ही नहीं बल्कि उर्दू के अदीबों को भी उनका कृतज्ञ होना चाहिए।” पतरस बुख़ारी
इस्मत चुग़ताई को सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी और कृश्न चंदर के साथ आधुनिक उर्दू फ़िक्शन का चौथा सतून माना जाता है। बदनामी और शोहरत, विवाद और लोकप्रियता के एतबार से वो उर्दू की किसी भी अफ़साना निगार से आगे, अद्वितीय और मुमताज़ हैं। उनकी शख़्सियत और उनका लेखन एक दूसरे का पूरक हैं और जो बग़ावत, अवज्ञा, सहनुभूति, मासूमियत, ईमानदारी, अल्हड़पन और शगुफ़्ता अक्खड़पन से इबारत है। उन्होंने अपने चौंका देने वाले विषयों, लेखन की यथार्थवादी शैली और अपनी अनूठी शैली के आधार पर उर्दू अफ़साना और नावल निगारी की तारीख़ में अपने लिए एक अलग जगह बनाई। मानव जीवन की छोटी छोटी घटनाएं उनके अफ़सानों का विषय हैं लेकिन वो उन घटनाओं को इस चाबुकदस्ती और फ़नकारी से पेश करती हैं कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी की मुकम्मल और जीती जागती तस्वीर निगाहों के सामने आ जाती है। उन्होंने अपने किरदारों के द्वारा ज़िंदगी की बुराईयों को बाहर निकाल फेंकने और उसे हुस्न, मसर्रत और सुकून की आकृति बनाने की कोशिश की।
इस्मत चुग़ताई उर्दू की प्रगतिशील आंदोलन से सम्बद्ध थीं अतः उन्होंने, अपने समकालीन दूसरे कम्युनिस्ट अदीबों के विपरीत, समाज में बाहरी, सामाजिक शोषण के बजाए उसमें जारी आंतरिक सामाजिक और भावनात्मक शोषण को अपनी कहानियों का विषय बनाया। उन्होंने यौन और यौन सम्बंधों के मुद्दे को पूरी इंसानियत की नफ़सियात और उसके मूल्यों के परिदृश्य में समझने और समझाने की कोशिश की। उन्होंने अपनी कहानियों में मर्द और औरत की बराबरी का सवाल उठाया जो मात्र घरेलू ज़िंदगी में बराबरी न हो कर भावना और विचार की बराबरी हो। उनके अफ़सानों में मध्यम वर्ग के मुस्लिम घरानों की फ़िज़ा है। उन अफ़सानों में पाठक दुपट्टे की सरसराहाट और चूड़ियों की खनक तक सुन सकता है लेकिन इस्मत अपने पाठक को जो बात बताना चाहती हैं वो ये है कि आंचलों की सरसराहाट और चूड़ियों की खनक के पीछे जो औरत आबाद है वो भी इंसान है और हाड़-मांस की बनी हुई है। वो सिर्फ़ चूमने-चाटने के लिए नहीं है। उसके अपने जिस्मानी और भावात्मक तक़ाज़े हैं जिनकी पूर्णता का उसे अधिकार होना चाहिए। इस्मत एक बाग़ी रूह लेकर दुनिया में आईं और समाज के स्वीकृत सिद्धांतों का मुँह चिढ़ाया और उन्हें अँगूठा दिखाया।
इस्मत चुग़ताई 21अगस्त 1915 को उतर प्रदेश के शहर बदायूं में पैदा हुईं। उनके वालिद मिर्ज़ा क़सीम बेग चुग़ताई एक उच्च सरकारी पदाधिकारी थे। इस्मत अपने नौ भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। जब उन्होंने होश सँभाला तो बड़ी बहनों की शादियाँ हो चुकी थीं और उनको बचपन में सिर्फ़ अपने भाईयों का साथ मिला। जिनकी बरतरी को वो लड़-झगड़ कर चैलेंज करती थीं। गुल्ली-डंडा और फुटबॉल खेलना हो या घोड़सवारी और पेड़ों पर चढ़ना, वो हर वो काम करती थीं जो लड़कियों के लिए मना था। उन्होंने चौथी जमात तक आगरा में और फिर आठवीं जमात अलीगढ़ के स्कूल से पास की जिसके बाद उनके माता-पिता उनकी आगे की शिक्षा के हक़ में नहीं थे और उन्हें एक सलीक़ामंद गृहस्त औरत बनने की दीक्षा देना चाहते थे लेकिन इस्मत को उच्च शिक्षा की धुन थी। उन्होंने धमकी दी कि अगर उनकी तालीम जारी न रखी गई तो वो घर से भाग कर ईसाई बन जाएँगी और मिशन स्कूल में दाख़िला ले लेंगी। आख़िर उनकी ज़िद के सामने वालिद को घुटने टेकने पड़े और उन्होंने अलीगढ़ जा कर सीधे दसवीं में दाख़िला ले लिया और वहीं से एफ़.ए का इम्तिहान पास किया। अलीगढ़ में उनकी मुलाक़ात रशीद जहां से हुई जिन्होंने 1932 में सज्जाद ज़हीर और अहमद अली के साथ मिलकर कहानियों का एक संग्रह “अँगारे” के नाम से प्रकाशित किया था जिसको अश्लील और क्रांतिकारी ठहराते हुए हुकूमत ने उस पर पाबंदी लगा दी थी और उसकी सारी प्रतियां ज़ब्त कर ली गई थीं। रशीद जहां उच्च शिक्षा प्राप्त एम.बी.बी.एस डाक्टर, आज़ाद ख़्याल, पिछड़े और शोषित महिलाओं के अधिकारों की अलमबरदार, कम्युनिस्ट विचारधारा रखने वाली महिला थीं। उन्होंने इस्मत को कम्यूनिज़्म के आधारभूत मान्यताओं से परिचय कराया और इस्मत ने उनको अपना गुरु मान कर उनके नक़्श-ए-क़दम पर चलने का फ़ैसला किया। इस्मत कहती हैं, “मुझे रोती बिसूरती, हराम के बच्चे जनती, मातम करती स्त्रीत्व से नफ़रत थी। वफ़ा और जुमला खूबियां जो औरत का ज़ेवर समझी जाती हैं, मुझे लानत महसूस होती हैं। भावनाओं से मुझे सख़्त कोफ़्त होती है। इश्क़ मज़बूत दिल-ओ-दिमाग़ है न कि जी का रोग। ये सब मैंने रशीद आपा से सीखा।” इस्मत औरतों की दुर्दशा के लिए उनकी निरक्षरता को ज़िम्मेदार समझती थीं। उन्होंने एफ़.ए के बाद लखनऊ के आई.टी कॉलेज में दाख़िला लिया जहां उनके विषय अंग्रेज़ी, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र थे। आई.टी कॉलेज में आकर उनको पहली बार आज़ाद फ़िज़ा में सांस लेने का मौक़ा मिला और वो मध्यम वर्ग के मुस्लिम समाज की तमाम जकड़बंदियों से आज़ाद हो गईं।
इस्मत चुग़ताई ने ग्यारह-बारह बरस की ही उम्र में कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं लेकिन उन्हें अपने नाम से प्रकाशित नहीं कराती थीं। उनकी पहली कहानी 1939 में “फ़सादी” शीर्षक से प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका “साक़ी” में प्रकाशित हुई तो लोगों ने ख़्याल किया कि उनके भाई प्रसिद्ध अदीब, अज़ीम बेग चुग़ताई ने फ़र्ज़ी नाम से ये कहानी लिखी है। उसके बाद जब उनकी कहानियां “काफ़िर”, “ख़िदमतगार”, “ढीट” और “बचपन” उसी साल प्रकाशित हुईं तो साहित्यिक गलियारों में खलबली मची और इस्मत ने एक प्रसिद्ध अफ़साना निगार की हैसियत से अपनी पहचान बना ली। उनकी कहानियों के दो संग्रह कलियाँ और चोटें 1941 और 1942 में प्रकाशित हुए लेकिन उन्होंने अपनी अदबी ज़िंदगी का सबसे बड़ा धमाका 1941 में “लिहाफ़” लिख कर किया। दो औरतों के आपसी यौन सम्बंधों के विषय पर लिखी गई इस कहानी से अदबी दुनिया में भूंचाल आ गया। उन पर अश्लीलता का मुक़द्दमा क़ायम किया गया और उस पर इतनी बहस हुई कि ये अफ़साना सारी ज़िंदगी के लिए इस्मत की पहचान बन गया और उनकी दूसरी अच्छी कहानियां... चौथी का जोड़ा, गेंदा, दो हाथ, जड़ें, हिन्दोस्तान छोड़ो, नन्ही की नानी, भूल-भुलय्याँ, मसास और बिच्छू फूफी... लिहाफ़ में दब कर रह गईं।
आई.टी कॉलेज लखनऊ और अलीगढ़ से बी.टी करने, विभिन्न स्थानों पर अध्यापन करने और कुछ घोषित, धुंवाधार इश्क़ों के बाद इस्मत ने बंबई का रुख किया जहां उनको इंस्पेक्टर आफ़ स्कूलज़ की नौकरी मिल गई। बंबई में शाहिद लतीफ़ भी थे जो पौने दो सौ रुपये मासिक पर बंबई टॉकीज़ में संवाद लिखते थे। शाहिद लतीफ़ से उनकी मुलाक़ात अलीगढ़ में हुई थी जहां वो एम.ए कर रहे थे और उनके अफ़साने अदब-ए-लतीफ़ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। बंबई पहुंच कर उन दोनों का तूफ़ानी रोमांस शुरू हुआ और दोनों ने शादी कर ली। मुहब्बत के मुआमले में इस्मत का रवैया बिल्कुल अपारंपरिक था। उनका कहना था, “मैं मुहब्बत को बड़ी ज़रूरी और बहुत अहम शय समझी हूँ, मुहब्बत बड़ी मज़बूत दिल-ओ-दिमाग़ शय है लेकिन उसमें लीचड़ नहीं बन जाना चाहिए। अटवाटी खटवाटी नहीं लेना चाहिए, ख़ुदकुशी नहीं करना चाहिए ज़हर नहीं खाना चाहिए। और मुहब्बत का जिन्स से जो ताल्लुक़ है वो स्वाभाविक है। वो ज़माना लद गया जब मुहब्बत पाक हुआ करती थी। अब तो मुहब्बत नापाक होना ही ख़ूबसूरत माना जाता है।” इसीलिए जब शाहिद लतीफ़ ने शादी का प्रस्ताव रखा तो इस्मत ने कहा, “मैं गड़बड़ क़िस्म की लड़की हूँ, बाद में पछताओगे। मैंने सारी उम्र ज़ंजीरें काटी हैं, अब किसी ज़ंजीर में जकडी न रह सकूँगी, फ़र्मांबरदार पाकीज़ा औरत होना मुझ पर सजता ही नहीं। लेकिन शाहिद न माने।” शाहिद लतीफ़ के साथ अपने ताल्लुक़ के बारे में वो कहती हैं, “मर्द औरत को पूज कर देवी बनाने को तैयार है, वो उसे मुहब्बत दे सकता है, इज़्ज़त दे सकाता है, सिर्फ़ बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता। शाहिद ने मुझे बराबरी का दर्जा दिया, बराबरी के उस दर्जे की असास मुकम्मल दो तरफ़ा आज़ादी थी। उसमें जज़्बाती ताल्लुक़ का कितना दख़ल था, उसका अंदाज़ा इस बात से हो सकता है कि जब 1967 में शाहिद लतीफ़ का दिल का दौरा पड़ने से इंतक़ाल हुआ और डाक्टर सफ़दर आह इस्मत से हमदर्दी का इज़हार करने उनके घर पहुंचे तो इस्मत ने कहा, “ये तो दुनिया है डाक्टर साहिब, यहां आना-जाना तो लगा ही रहता है। जैसे इस ड्राइंगरूम का फ़र्नीचर, ये सोफा टूट जाएगा तो हम इसे बाहर निकाल देंगे, फिर उस ख़ाली जगह को कोई दूसरा सोफा पुर कर देगा।”
शाहिद लतीफ़ ने इस्मत को फ़िल्मी दुनिया से परिचय कराया था। वो स्क्रीन राइटर से फ़िल्म प्रोड्यूसर बन गए थे। इस्मत उनकी फिल्मों के लिए कहानियां और संवाद लिखती थीं। उनकी फिल्मों में “ज़िद्दी” (देवानंद पहली बार हीरो के रोल में) “आरज़ू” (दिलीप कुमार,कामिनी कौशल) और “सोने की चिड़िया” बॉक्स ऑफ़िस पर हिट हुईं। उसके बाद उनकी फिल्में नाकाम होती रहीं। शाहिद लतीफ़ की मौत के बाद भी इस्मत फ़िल्मी दुनिया से सम्बद्ध रहीं। विभाजन के विषय पर बनाई गई लाजवाब फ़िल्म “गर्म हवा” इस्मत की ही एक कहानी पर आधारित है। श्याम बेनेगल की दिल को छू लेने वाली फ़िल्म “जुनून” के संवाद इस्मत ने लिखे थे और एक छोटी सी भूमिका भी की थी। इनके इलावा इस्मत जिन फिल्मों से संबद्ध रहीं उनमें छेड़-छाड़, शिकायत, बुज़दिल, शीशा, फ़रेब, दरवाज़ा, सोसायटी और लाला रुख़ शामिल हैं।
फ़िक्शन में इस्मत की कलात्मकता का मूल रहस्य और उसका सबसे प्रभावशाली पहलू उनकी अभिव्यक्ति की शैली है। भाषा इस्मत की कहानियों में मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं अपने आप में एक अमूर्त सत्य भी है। इस्मत ने भाषा को एक पात्र की तरह जानदार, गतिशील और ताप मिश्रित तत्व के रूप में देखा और इस तरह प्रचलित शैलियों और शब्द की अभिव्यक्ति की भीड़ में इस्मत ने शैली व अभिव्यक्ति की एक नई सतह तलाश की और उनकी ये कोशिश अलग से पहचानी जाती है। उनकी भाषा लिखा हुआ होते हुए भी लिखा हुआ नहीं है। इस्मत का लेखन पढ़ते वक़्त पाठक निसंकोच बातचीत के अनुभव से गुज़रता है। उनका शब्द भंडार उनके सभी समकालीनों की तुलना में अधिक विविध और रंगीन है। उनके लेखन में भाषा मुहावरे और रोज़मर्रा के समस्त गुण के साथ एक नोकीलापन है और पाठक उसके कचोके महसूस किए बिना नहीं रह सकता। पतरस के अनुसार इस्मत के हाथों उर्दू इंशा को नई जवानी नसीब हुई है। वो पुराने, परिचित और अस्पष्ट शब्दों में अर्थ और प्रभाव की नई शक्तियों का सुराग़ लगाती हैं। उनकी आविष्कार शक्ति नित नए हज़ारों रूपक तराशती है और नए साँचे का निर्माण करती है। इस्मत की मौत पर कुर्रत-उल-ऐन हैदर ने कहा था, “ऑल चुग़ताई की उर्दू ए मुअल्ला कब की ख़त्म हुई, उर्दू ज़बान की काट और तर्क ताज़ी इस्मत ख़ानम के साथ चली गई।”
इस्मत चुग़ताई एक विपुल लेखिका थीं। उन्होंने अपना अर्ध आत्मपरक उपन्यास “टेढ़ी लकीर” सात-आठ दिन में इस हालत में लिखा कि वो गर्भवती और बीमार थीं। उस उपन्यास में इन्होंने अपने बचपन से लेकर जवानी तक के अनुभवों व अवलोकनों को बड़ी ख़ूबी से समोया है और समाज की धार्मिक, सामाजिक और वैचारिक अवधारणाओं के सभी पहलुओं की कड़ाई से नुक्ता-चीनी की है। उनके आठ उपन्यासों में इस उपन्यास का वही स्थान है जो प्रेमचंद के उपन्यासों में गऊदान का है। उनके दूसरे उपन्यास “ज़िद्दी”, “मासूमा”, “दिल की दुनिया”, “एक क़तरा ख़ून” “बहरूप”, “सौदाई”, “जंगली कबूतर”, “अजीब आदमी” और “बांदी” हैं। वो ख़ुद “दिल की दुनिया” को अपना बेहतरीन उपन्यास समझती थीं।
इस्मत को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं की तरफ़ से कई महत्वपूर्ण सम्मान और इनाम मिले। 1975 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री का ख़िताब दिया।1990 में मध्य प्रदेश शासन ने उन्हें इक़बाल समान से नवाज़ा, उन्हें ग़ालिब एवार्ड और फ़िल्म फेयर एवार्ड भी दिए गए। आधी सदी तक अदब की दुनिया में रोशनियां बिखेरने के बाद 24 अक्तूबर 1991 को वो नश्वर संसार से कूच कर गईं और उनकी वसीयत के मुताबिक़ उनके पार्थिव शरीर को चंदन वाड़ी विद्युत श्मशानघाट में अग्नि के सपुर्द कर दिया गया।
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