aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
सय्यद मोहम्मद बेनज़ीर शाह वारसी जिन का तख़ल्लुस ‘बेनज़ीर’ था, 1863 ई. मैं कटरा मानिक पूर ज़िला इलाहाबाद में पैदा हुए। उनके वालिद माजिद एहसान अली क़ादरी एक मज़हबी और रुश्द-ओ-हिदयात के बड़े मुबल्लिग़ थे जिन्हें मौलाना शाह अबदुलअज़ीज़ मुहद्दिस जैसे बुज़ुर्ग के ख़लीफ़ा भी थे। सय्यद ‘बेनज़ीर’ शाह भी बाप की तरह एक सूफ़ी और दरवेश-मंश इंसान बने और वालिद के मसलक को अपना ज़िंदगी का शिआर बनाया। ये सिलसिला-ए-कादरी चिशती से ताल्लुक़ रखते थे और उन्होंने सिलसिला-ए-आलिया-ए-वारसिया में वारिस अली शाह से भी बैअत से हुए। उनकी तालीम बिलकुल क्लासिक तरीक़े पर हुई और अरबी और फ़ारसी में बड़ी फ़ज़ीलत हासिल की। फ़िक़्ह, हदीस और क़ुरान-पाक वग़ैरा की तालीम भी घर पर ही ली। तसव्वुफ़ तो उनकी घुट्टी में पड़ा था और उनकी पूरी ज़िंदगी पर इसके बहुत गहरे असरात थे।
इल्म-ओ-अदब के हौसले की तकमील के बाद उन्होंने मज़हबी तबलीग़ और हिदायत-ए-ख़लक़ुल्लाह को अपना शेवा-ए-ज़िंदगी बनाया और हैदराबाद दक्कन चले गए। जहाँ बहुत जल्द उनके मोतक़िदीन-ओ-मुरीदीन का एक ख़ास हलक़ा बन गया और फिर इस में रोज़-ब-रोज़ इज़ाफ़ा होता रहा। मौसूफ़ ने एक पाक-ओ-बेयार ज़िंदगी गुज़ार कर वस्ल का जाम नोश किया।
सय्यद मोहम्मद नज़ीर शाह वारसी को शेअर-ओ-शाएरी से फ़ित्री लगाओ था। वो अपने जदीद रंग से बिल्कुल अलग एक मश्शाक़ी ग़ज़लगो भी थे लेकिन अफ़सोस कि उनका बेशतर कलाम किसी सफ़र के दौरान बरबाद हो गया। ग़ज़ल में वो वजहुल्लाह इलाहाबादी और मसनवी में अमीर मीनाई से मश्वरा लेते थे, लेकिन सिलसिला-ए-फ़क़्र-ओ-दरवेशी से मुंसलिक होने की वजह से नए ज़माने के उन क़ादिर-उल-कलाम शो’रा में से हैं जिनका तआरुफ़ भी कभी-कभार ही हुआ है, हालाँकि उनका कलाम ऐसा जानदार साफ़सुथरा व तसव्वुफ़ में डूबा हुआ है कि उन्हें अपने ज़माने के अच्छे शो’रा में शुमार करना चाहीए। प्रोफ़ेसर अबदुलक़ादिर सरवरी और प्रोफ़ेसर इलियास बरनी ने उनके बहुत से इंतिख़ाबात अपनी इंतिख़ाबी जिल्दों में शाया करके उनकी शायरी को उर्दू-दाँ तब्क़ा से ता’रुफ कराया है और उर्दू अदब के तालिब-ए-इल्मों के लिए इस सुखनवर के कलाम से लुत्फ़-अंदोज़ होना तो दरकिनार नाम जानना भी मुश्किल हो जाता है।
‘बेनज़ीर’ शाह की शोहरत की वजह उनकी एक शाहकार मसनवी है जो 1890 मैं मुकम्मल हुई और किताब-ए-मुईन और जवाहर-ए-बेनज़ीर के नाम से दो जिल्दों में शाया हुई। ये मसनवी ख़ासी लम्बी हैं। इस की तसनीफ़ का मक़सद मुरीदीन की रहनुमाई और इंसान के इशक़-ए-हक़ीक़ी तक पहुँचने के मराहिल का बयान इस्तिआरे के पैराए में किया गया है ।
बेनज़ीर शाह का उस्लूब बड़ा साफ़ और सादा है। उनके बयानात में तसलसुल के साथ साथ बड़ी रवानी पाई जाती है और वो तफ़सीलात को ऐसे दिलकश पीराए में बयान करते हैं कि बयानात तवील होते हुए भी अपना जज़्ब और तअस्सुर खोने नहीं पाते।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
Get Tickets