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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : अमानत लखनवी

प्रकाशक : नामी प्रेस, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष : 1890

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : नाटक / ड्रामा

पृष्ठ : 46

सहयोगी : ग़ालिब इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली

suroor-e-ishrat
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लेखक: परिचय

अमानत लखनवी ने उर्दू का पहला सार्वजनिक नाटक लिख कर साहित्य के इतिहास में हमेशा के लिए अपना नाम सुरक्षित कर लिया। हालांकि उन्होंने ग़ज़ल और दूसरी काव्य विधाओं विशेष कर वासोख़्त और मर्सिया में भी अभ्यास किया लेकिन जो प्रसिद्धि और लोकप्रियता उनको ड्रामे के द्वारा मिली उसका कोई जवाब नहीं। अमानत को ग़ज़ल और दूसरी काव्य विधाओं में शब्दों के अनुपालन का बादशाह कहा जाता है और वो ख़ुद को इस कारीगरी का आविष्कारक कहते हैं, हालाँकि ये उनके दौर का आम रिवाज था।

अमानत लखनवी का नाम आग़ा हसन और उनके वालिद का नाम मीर आग़ा अली रिज़वी था। उनके बाप-दादा ईरान से लखनऊ आए थे। कहा जाता है कि उनके परदादा के वालिद सय्यद अली रज़ी मशहद मुक़द्दस में हज़रत इमाम अली अल रज़ा के रौज़े के कुंजी धारक थे। अमानत 1825 ई.में लखनऊ में पैदा हुए। 20 बरस की उम्र तक उन्हें शिक्षा प्राप्ति का शौक़ रहा और अपने समय के प्रचलित विषयों में बहुत ख़ूबी के साथ दक्षता प्राप्त की लेकिन उसी उम्र में एक बीमारी के बाद उनकी ज़बान बंद हो गई। उसी हालत में वो मुक़ामात मुक़द्दसा(पवित्र स्थानों) की ज़ियारत के लिए इराक़ गए। मशहूर है कि एक दिन हज़रत इमाम हुसैन के मज़ार पर दुआ मांग रहे थे कि अचानक उनकी बोलने की शक्ति वापस आ गई फिर भी ज़बान में लुक्नत (हकलाहट) बरक़रार रही। एक साल इराक़ में गुज़ारने के बाद लखनऊ लौटे लेकिन लुक्नत की वजह से ज़्यादातर घर में रहते और ख़ुद को शे’र-ओ-सुख़न में मसरूफ़ रखते। उन्होंने अपनी इस हालत का उल्लेख शरह इंद्रसभा में भी किया है, "अपनी हालत के ख़्याल से न कहीं जाता था न आता था। ज़बान की प्रतिबद्धता से घर में बैठे-बैठे जी घबराता था।” इसका उल्लेख उनके शे’रों में भी मिलता है:
''है गुंग ज़बां कभी कभी अलकन है
गोया कि अज़ल से नातिक़ा-ए-दुश्मन है 

हूँ महफ़िल-ए-हस्ती में अमानत वो शम्मा
ख़ामोशी में भी हाल मिरा रोशन है”
कुछ लोगों ने अमानत की लुक्नत को पैतृक बताया है।

अमानत को पंद्रह साल की उम्र में शायरी का शौक़ पैदा हुआ और मियां दिलगीर के शागिर्द बन गए। उस्ताद ने अमानत तख़ल्लुस रखा। शुरू में सिर्फ़ नौहे और सलाम कहते थे बाद में ग़ज़लें भी कहने लगे। उनके बेटे सय्यद हसन लताफ़त के बयान के मुताबिक़ अमानत ने 125 मर्सिये लिखे लेकिन मर्सियों का कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ। उनके पंद्रह क़लमी मर्सिये मसऊद हसन रिज़वी को मिले हैं। उनका दीवान “ख़ज़ाइन-उल-फ़साहत” ग़ज़लों का संग्रह है जिसमें एक मसनवी, चंद मुख़म्मस,चंद मुसद्दस, एक वासोख़्त, रुबाईयाँ और क़तआत शामिल हैं। वासोख़्त-ए-अमानत जिसके 315 बंद हैं कई बार शाया हो चुका है। इसके इलावा “गुलदस्ता अमानत” उनके कलाम का चयन है। उनकी सबसे अहम और मशहूर व लोकप्रिय रचना एक म्यूज़िकल फंतासी “इंद्रसभा” है जिसे उर्दू का पहला ड्रामा भी कहा गया है। शरह इंद्रसभा इसी किताब की विस्तृत प्रस्तावना गद्य में है जो लखनवी लेखन शैली का एक अच्छा नमूना है।
अमानत के छंदोबद्ध कलाम की सबसे बड़ी विशेषता शाब्दिक अनुपालन का इस्तेमाल है जिस पर उन्होंने बार-बार फ़ख़्र किया है। शाब्दिक अनुपालन का प्रावधान उन्होंने ग़ज़लों के इलावा वासोख़्त और मर्सियों में भी किया है। शाब्दिक अनुपालन से तात्पर्य ये है कि एक शब्द की रिआयत से दूसरा शब्द लाया जाये, ऐसे दो लफ़्ज़ों में कभी आध्यात्मिक प्रासंगिकता होती है कभी विरोधाभास और कभी प्रासंगिकता या विरोधाभास का धोखा होता है, कभी एक शब्द के दो अर्थ होते हैं जिनमें कभी एक तात्पर्य होता है कभी दोनों। इसकी मिसाल अमानत के कलाम में यूं है:
“पंखा ग़ैर उसको हिलाएँगे उड़ी है ये ख़बर
मेहनतें आज हवा-ख़्वाहों की बर्बाद हैं सब”
 
“क़ब्र के ऊपर लगाया नीम का उसने दरख़्त
बाद मरने के मिरी तौक़ीर आधी रह गई।”

डाक्टर सफ़दर हुसैन लिखते हैं, "ज़िला या रिआयत-ए-शायराना में अगरचे लखनऊ के शो’रा ने सैकड़ों दीवान मुरत्तब किए लेकिन आम लोगों में भी इसका चर्चा कम न था हत्ता कि फ़क़ीर फ़ुक़रा और बाज़ारी औरतें भी ज़िला बोलने में ताक़ थीं।” इस का मतलब यही है कि अमानत ने अपने दौर के लोकप्रिय और पसंदीदा अंदाज़ में शायरी की।

इंद्रसभा के बारे में एक अर्से तक कहा जाता रहा कि एक फ़्रांसीसी मुसाहिब ने वाजिद अली शाह के सामने पश्चिमी थिएटर और ओपेरा का नक़्शा पेश किया तो उन्होंने अमानत से इंदरसभा लिखवाई, और ये उर्दू का पहला ड्रामा था। लेकिन इंदरसभा न तो फ़्रांसीसी ओपेरा की नक़ल है न वाजिद अली शाह की फ़र्माइश पर लिखी गई। अलबत्ता अमानत का ड्रामा उर्दू का पहला अवामी ड्रामा ज़रूर है। यह प्रकाशित होने से पहले भी लोकप्रिय था और छपने के बाद तो इसकी शोहरत दूर दूर तक फैल गई और इसकी नक़ल में बहुत सी सभाऐं लिखी गईं। दूसरे मुल्कों में भी उसे शोहरत मिली। फ्रेडरिश् रोज़ेन (Friedrisch Rosen) ने इसका अनुवाद जर्मन भाषा में किया और इस पर एक लम्बी प्रस्तावना लिखी। जर्मन भाषा में एक और किताब स्वीडन के एक बाशिंदे ने लिखी जो रोम से प्रकाशित हुई। हिन्दोस्तान में इंदरसभा की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी में इसके अड़तालीस विभिन्न संस्करण मौजूद हैं। ग्यारह देवनागरी में, पाँच गुजराती में और एक गुरमुखी में है। उर्दू में इसके अनगिनत संस्करण लखनऊ, आगरा, बंबई, कलकत्ता, मद्रास, मेरठ, अमृतसर, पटना और गोरखपुर से प्रकाशित हुए। जब बंबई में पारसियों ने थिएटर कंपनियां क़ायम कीं तो इंदरसभा को बार-बार मंचित किया गया और उसकी तर्ज़ पर बेशुमार ड्रामे उर्दू में लिखे और स्टेज किए गए। इस तरह उर्दू नाटक के पहले दौर पर इंदरसभा की परम्परा का गहरा नक़्श है।
मौलाना हसरत मोहानी ने इंदरसभा को पश्चिम के अक्सर ड्रामों से बेहतर क़रार दिया है। वो कहते हैं, “ज़ाहिर में ये देव-परी का एक बे सर-ओ-पा क़िस्सा मालूम होता है लेकिन हक़ीक़त में ये इक मुरादी अफ़साना(Allegory) है। जिसके ज़रिये से अमानत ने पास-ए-शराफ़त और हुस्न-ओ-इश्क़ के निहायत नाज़ुक और अहम मुआमलात का फ़ोटो खींच कर रख दिया है। अंदर से पास-ए-शराफ़त, पुखराज परी से इस्मत, नीलम परी से हया,लाल परी से ख़ुद्दारी, सब्ज़ परी से हुस्न, काले देव से ख़ाहिश, गुलफ़ाम से इश्क़ और लाल देव से ग़म्माज़ी मुराद है। इंद्रसभा की एक दूसरी ख़ूबी संगीत है। इसमें बसंत होली, ठुमरी, मल्हार, सावन ग़ज़ल वग़ैरा, हर क़िस्म की चीज़ें लिखी हैं जो विभिन्न धुनों में गाई जाती हैं। इंद्रसभा के गानों में एक बड़ा हिस्सा तमाम राग-रागनियों का आ जाता है।”

बक़ौल अब्दुल हलीम शरर के इंद्रसभा का सबसे बड़ा कमाल ये है कि हिंदू-मुसलमानों के इल्मी, सांस्कृतिक रुचियों के आपसी मेल-जोल की इससे बेहतर यादगार नहीँ हो सकती। इसमें एक हिंदू देवता मुसलमान बादशाह के भेस में नज़र आता है। शहज़ादा गुलफ़ाम बिल्कुल लखनऊ का कोई शहज़ादा है जो ज़बान से इक़रार करता है:
“शहज़ादा हूँ मैं हिंद का,नाम मिरा गुलफ़ाम
महलों में रहता हूँ और ऐश है मेरा काम”

और वाक़ई में यही काम हमारे बादशाहों और नवाबज़ादों का रह गया था। परियाँ हिंदू देवता की अप्सराएं हैं लेकिन उनको कोह-ए-क़ाफ़ की जादूई परियों का जामा पहनाया गया है। देव ईरान और आज़रबाइजान के हैं। परियों में रंग के लिहाज़ से अंतर होना शुद्ध ईरानी स्वभाव है और परी का एक इंसानी शहज़ादे पर आशिक़ होना अजमी या अरबी ख़्याल है। परियों का राजा इंद्र की महफ़िल में नाचना एक हिंदू स्वभाव है। गुलफ़ाम का क़ैदख़ाना ईरान के कोह-ए-क़ाफ़ का कुँआं है और सब्ज़ परी जब उसकी तलाश में निकलती है तो पूरी हिंदू जोगन है।”

ज़बान-ओ-बयान के हवाले से ऐसे अशआर इंद्रसभा में बहुत मिलेंगे जिनमें शब्दों की महिमा बंदिश की चुस्ती, तबीयत का ज़ोर, रूपकों की नज़ाकत, उपमाओं की परिपक्वता और कल्पनाओं की ऊंची उड़ान शिखर पर है। उर्दू अदब की किसी भी गुफ़्तगु में जब कभी ड्रामे के विकास या लखनऊ की शे’री ज़बान की बहस छिड़ेगी वो अमानत के ज़िक्र से ख़ाली नहीं होगी।

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