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लेखक : मीर तक़ी मीर

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : सरफ़राज़ क़ाैमी प्रेस, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष : 1962

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : तज़्किरा / संस्मरण / जीवनी, अनुवाद

पृष्ठ : 189

अनुवादक : एम. के. फ़ातमी

सहयोगी : गौरव जोशी

tazkira-e-meer
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पुस्तक: परिचय

خدائے سخن میر تقی میرؔ کے مشہور تذکرہ "نکات شعرا" کا اردو ترجمہ" تذکرہ میرؔ" کے عنوان سے حاضر ہے۔ "نکات شعراء" اردو کا پہلا تذکرہ ہے اور "تذکرہ ء میرؔ " کسی بھی تذکرہ ء شعرائے اردو کا پہلا اردو ترجمہ ہے۔ ایک عرصہ دراز تک فارسی شعرو شاعری کا چرچا رہا۔اردو زبان میں شاعری کرنا ضروری نہیں سمجھا گیا،لیکن ولی دکنی کے کلام کو دیکھنے کے بعد کئی ادبا و شعرا اردو شاعری کی طرف راغب ہوئے۔بہت جلد اردو شاعری نے ترقی کرلی۔ قدما میں ولی ،مظہر ،حاتم ،درد سودا، میر ،قائم اور میر حسن وغیرہ جیسے اساتذہ کا کلام اس بات کا واضح ثبوت ہے۔ پھر غالب کے زمانے تک تو اردو شاعری نےبہت زیادہ ترقی کرلی ۔بہرحال اردو شاعری روز افزوں ترقی کے ساتھ تذکرہ نگاری کا آغاز ہوا۔فارسی میں تذکرہ نگاری کی روایات اور اس کے نمونے پہلے سے موجود تھے۔جس کو دیکھ کر اردو والوں کو بھی اردو شعرا کے تذکرے مرتب کرنے کا خیال آیا۔لیکن فارسی زبان میں ہی تذکرے لکھے گئے یہی وجہ ہے کہ میر نے بھی اردو شعر اکا تذکرہ فارسی زبان میں ہی لکھا۔اس تذکرہ کو سب سے پہلے 1922ء میں حبیب الرحمٰن صاحب شروانی کے مقدمہ کے ساتھ انجمن ترقی اردو نے شائع کیا تھا۔اس کے بعد دوسرا ایڈیشن 1935ء میں انجمن سے ہی مولوی عبدالحق کے مستند مقدمہ کے ساتھ منظر عام پر آیا۔ پیش نظر "تذکرہ میر" کو مترجم نے مذکورہ دونوں نسخوں کو سامنے رکھ کر ترجمہ کیا ہے۔اس ترجمہ میں کوشش کی ہے کہ مواد کو اس قدر سلیس اور رواں انداز میں پیش کیا جائے کہ میرکا اصل رنگ اور انداز بیاں مجروح نہ ہو۔اس کتاب میں صرف شاعروں کی فہرست حروف تہجی کے اعتبارسے دی گئی ہے۔ترجمہ میں کہیں کوئی تصرف نہیں کیا گیا ۔لیکن چند شاعروں کے انتخاب کلام میں کچھ تخفیف ،کی گئی ہے۔عموما ان شعرا کا کلام بآسانی دستیاب ہے۔اس طرح یہ تذکرہ اردو قدیم شعرا کے کلام ،فنی خوبیوں اورخامیوں کے ساتھ اہم اور معلوماتی ہے۔

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लेखक: परिचय

लफ़्ज़-ओ-मानी के जादूगर, बेमिसाल शायर मीर तक़ी ‘मीर’ उर्दू ग़ज़ल का वो प्रेत हैं कि जो उसकी जकड़ में आ जाता है, ज़िंदगी भर वो उसके अधीन रहता है। ‘मीर’ ने उन लोगों से भी प्रशंसा पाई जिनकी अपनी शायरी ‘मीर’ से बहुत अलग थी। उनकी शायराना अज़मत का इससे बढ़कर क्या सबूत होगा कि ज़माने के मिज़ाजों में बदलाव के बावजूद उनकी शायरी की महानता का सिक्का हर दौर में चलता रहा। नासिख़ हों या ग़ालिब, क़ाएम हों या मुसहफ़ी, ज़ौक़ हों या हसरत मोहानी, मीर के चाहनेवाले हर ज़माने में रहे। उनकी शैली का अनुसरण नहीं किया जा सकता है, फिर भी उनकी तरफ़ लपकने और उनके जैसे शे’र कह पाने की हसरत हर दौर के शायरों के दिल में बसी रही। नासिर काज़मी ने तो साफ़ स्वीकार किया है:
शे’र होते हैं मीर के,नासिर
लफ़्ज़ बस दाएं बाएं करता है

नासिर काज़मी के बाद जॉन एलिया ने भी मीर की पैरवी करने की कोशिश की। पैरवी करने की की ये सारी कोशिशें उन तक पहुंचने की नाकाम कोशिश से ज़्यादा उनको एक तरह की श्रद्धांजलि है। रशीद अहमद सिद्दीक़ी लिखते हैं, “आज तक मीर से बेतकल्लुफ़ होने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। यहां तक कि आज उस पुरानी ज़बान की भी नक़ल की जाती है जिसके नमूने जहाँ-तहाँ मीर के कलाम में मिलते हैं लेकिन अब रद्द हो चुके हैं। श्रद्धा के नाम पर किसी के नुक़्स की पैरवी की जाये, तो बताइए वो शख़्स कितना बड़ा होगा”, मीर को ख़ुद भी अपनी महानता का एहसास था:
तुम कभी मीर को चाहो कि वो चाहें हैं तुम्हें
और हम लोग तो सब उनका अदब करते हैं

मीर तक़ी मीर का असल नाम मोहम्मद तक़ी था। उनके वालिद, अली मुत्तक़ी अपने ज़माने के साहिब-ए-करामत बुज़ुर्ग थे। उनके बाप-दादा हिजाज़ से अपना वतन छोड़कर हिन्दोस्तान आए थे और कुछ समय हैदराबाद और अहमदाबाद में गुज़ार कर आगरा में बस गए थे। मीर आगरा में ही पैदा हुए। मीर की उम्र जब ग्यारह-बारह बरस की थी, उनके वालिद का देहांत हो गया। मीर के मुँह बोले चचा अमान उल्लाह दरवेश, जिनसे मीर बहुत हिले-मिले थे,  की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी, जिसका मीर को बहुत दुख था। बाप और अपने शुभचिंतक अमान उल्लाह की मौत ने मीर के ज़ेहन पर ग़म के देर तक रहने वाले चिन्ह अंकित कर दिए जो उनकी शायरी में जगह जगह मिलते हैं। वालिद की वफ़ात के बाद उनके सौतेले भाई मुहम्मद हसन ने उनके सर पर स्नेह का हाथ नहीं रखा। वो बड़ी बेबसी की हालत में लगभग चौदह साल की उम्र में दिल्ली आ गए। दिल्ली में समसाम उद्दौला, अमीर-उल-उमरा उनके वालिद के चाहनेवालों में से थे। उन्होंने उनके लिए प्रतिदिन एक रुपया मुक़र्रर कर दिया जो उनको नादिर शाह के हमले तक मिलता रहा। समसाम उद्दौला नादिर शाही क़तल-ओ-ग़ारत में मारे गए। आमदनी का ज़रीया बंद हो जाने की वजह से मीर को आगरा वापस जाना पड़ा लेकिन इस बार आगरा उनके लिए पहले से भी बड़ा अज़ाब बन गया। कहा जाता है कि वहां उनको अपनी एक रिश्तेदार से इश्क़ हो गया था जिसे उनके घर वालों ने पसंद नहीं किया और उनको आगरा छोड़ना पड़ा। वो फिर दिल्ली आए और अपने सौतेले भाई के मामूं और अपने वक़्त के विद्वान सिराज उद्दीन आरज़ू के पास ठहर कर शिक्षा प्राप्ति की ओर उन्मुख हुए। “नकात-उल-शोरा” में मीर ने उनको अपना उस्ताद कहा है लेकिन “ज़िक्र-ए-मीर” में मीर जफ़री अली अज़ीमाबादी और अमरोहा के सआदत अली ख़ान को अपना उस्ताद बताया है। पश्चात उल्लेखित ने ही मीर को रेख़्ता लिखने के लिए प्रोत्साहित किया था। मीर के मुताबिक़ ख़ान आरज़ू का बर्ताव उनके साथ अच्छा नहीं था और वो उसके लिए अपने सौतेले भाई को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। वो उनके बर्ताव से बहुत दुखी थे। मुम्किन है कि आगरा में मीर की इश्क़बाज़ी ने उनको आरज़ू की नज़र से गिरा दिया हो। अपने इस इश्क़ का उल्लेख मीर ने अपनी मसनवी “ख़्वाब-ओ-ख़्याल” में किया है।

मीर ने ज़िंदगी के इन तल्ख़ तजुर्बात का गहरा असर लिया और उन पर जुनून की हालत पैदा हो गई। कुछ समय बाद दवा-ईलाज से जुनून की शिद्दत तो कम हुई मगर इन अनुभवों का उनके दिमाग़ पर देर तक असर रहा।

मीर ने ख़ान आरज़ू के घर को अलविदा कहने के बाद एतमाद उद्दौला क़मर उद्दीन के नवासे रिआयत ख़ान की मुसाहिबत इख़्तियार की और उसके बाद जावेद ख़ां ख़वाजासरा की सरकार से सम्बद्ध हुए। असद यार ख़ां बख़्शी फ़ौज ने मीर का हाल बता कर घोड़े और "तकलीफ़ नौकरी” से माफ़ी दिला दी। मतलब ये कि नाम मात्र के सिपाही थे, काम कुछ न था। इसी अर्से में सफ़दरजंग ने जावेद ख़ां को क़त्ल करा दिया और मीर फिर बेकार हो गए। तब महानरायन, दीवान सफ़दरजंग, ने उनकी सहायता की और कुछ महीने अच्छी तरह से गुज़रे। इसके बाद कुछ अर्सा राजा जुगल किशोर और राजा नागरमल से सम्बद्ध रहे। राजा नागरमल की संगत में उन्होंने बहुत से मुक़ामात और मार्के देखे। उन संरक्षकों की दशा बिगड़ने के बाद वो कुछ अर्सा एकांतवास में रहे। जब नादिर शाह और अहमद शाह के रक्तपात ने दिल्ली को उजाड़ दिया और लखनऊ आबाद हुआ तो नवाब आसिफ़-उद्दौला ने उन्हें लखनऊ बुला लिया। मीर लखनऊ को बुरा-भला कहने के बावजूद वहीं रहे और वहीं लगभग 90 साल की उम्र में उनका देहांत हुआ। मीर ने भरपूर और हंगामाख़ेज़ ज़िंदगी गुज़ारी। सुकून-ओ-राहत का कोई लम्बा अर्सा उन्हें नसीब नहीं हुआ।

मीर ने उर्दू के छः दीवान संकलित किए जिनमें ग़ज़लों के इलावा क़सीदे, मसनवियाँ, रुबाईयाँ और वासोख़्त वग़ैरा शामिल हैं। नस्र में उनकी तीन किताबें “नकात-उल-शोरा”, “ज़िक्र-ए-मीर” और “फ़ैज़-ए-मीर” हैं । पश्चात उल्लेखित उन्होंने अपने बेटे के लिए लिखी थी। उनका एक फ़ारसी दीवान भी मिलता है।
मीर की नाज़ुक-मिज़ाजी और बददिमाग़ी के क़िस्से मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने हस्ब-ए-आदत चटख़ारे ले-ले कर बयान किए हैं जो बेशतर क़ुदरत उल्लाह क़ासिम की किताब “मजमूआ-ए- नग़ज़” और नासिर लखनवी के “ख़ुश मार्क-ए-ज़ेबा” से उदधृत हैं। इसमें संदेह नहीं कि आरम्भिक अवस्था के आघात और विकारों का कुछ न कुछ असर मीर पर बाद में भी बाक़ी रहा जिसका सबूत उनकी शायरी और तज़किरे दोनों में मिलता है।

मीर ने सभी विधाओं में अभ्यास किया लेकिन उनका ख़ास मैदान ग़ज़ल है, उनकी ग़मअंगेज़ लय और उनकी कला चेतना उनकी ग़ज़ल का मूल है। उनकी शायरी व्यक्तिगत चिंता की सीमाओं से गुज़र कर सार्वभौमिक इन्सानी दुख-दर्द की दास्तान बन गई है। उनका ग़म दिखावटी बेचैनी और बेसबरी की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि निरंतर अनुभवों और उनकी अध्यात्मिक प्रतिक्रियाओं का नतीजा है,जिसकी व्याख्या वो दर्द मंदी से करते हैं और जो ग़म उच्चतम अध्यात्मिक अनुभव का नाम है और अपनी उत्कृष्ट अवस्था में एक सकारात्मक जीवन-दर्शन बन जाता है। मीर का ग़म जो भी था, उनके लिए कलात्मक रचनात्मकता का स्रोत और उच्च अंतर्दृष्टि का माध्यम बन गया। दुख व पीड़ा के बावजूद मीर के यहां ज़िंदगी का एक जोश पाया जाता है। उनके ग़म में भी एक तरह की गहमा गहमी है। ग़म के एहसास की इस पाकीज़गी ने मीर की शायरी को नई ऊँचाई प्रदान की है।

कलात्मक स्तर पर उनके शे’र में अलफ़ाज़ अपने प्रसंग और विषय से पूरी तरह हम-आहंग होते हैं। उनके शब्दों में कोमल भावनाओं का रसीलापन है। उनके शे’रों में पैकर तराशी और विचारशीलता भी पूर्णता तक पहुंची हुई है। उन्होंने ख़ूबसूरत फ़ारसी संयोजनों को उर्दू में दाख़िल किया। मीर को शे’र में एक विशेष ध्वनिक वातावरण पैदा करने का ख़ास महारत है। उनके शे’रों में हर लफ़्ज़ मोती की तरह जुड़ा होता है। मीर अपने पाठक को एक तिलिस्म में जकड़ लेते हैं और उनके जादू से निकल पाना मुश्किल होता है।

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