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लेखक : ख़लील-उर-रहमान आज़मी

प्रकाशक : डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : 2008

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : पाठ्य पुस्तक, शोध एवं समीक्षा, आंदोलन

उप श्रेणियां : आलोचना, आलोचना, साहित्यिक आंदोलन

पृष्ठ : 406

ISBN संख्यांक / ISSN संख्यांक : 81-7587-249-7

सहयोगी : हुमा ख़लील

उर्दू में तरक़्क़ी पसंद अदबी तहरीक
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पुस्तक: परिचय

ہر زبان و ادب میں کچھ نہ کچھ ایسی تحریکیں ہوتی ہیں جن کی وجہ سے ایک پورا کا پورا ادبی پس منظر بدل جاتا ہے ۔ ان تحریکوں کے کچھ اسباب ہوتے ہیں جن کی بنا پر وہ وجود پزیر ہوتی ہیں ۔ جب ایک تحریک آتی ہے تو دوسری زوال پزیر ہونے لگتی ہے یا اس کا اثر کم ہو جاتا ہے ۔ ہر تحریک کا ایک خاص مقصد ہوتا ہے جو اپنے مقصد کو پورے ہونے کے ساتھ ساتھ ماند پڑنے لگی ہیں ۔ علی گڑھ تحریک نے اردو ادب میں ایک انقلاب برپا کر دیا تھا جس انقلاب کو ترقی پسند تحریک نے بالکل پست کر دیا ۔ ترقی پسند تحریک بھی انقلابی نعروں کے ساتھ اٹھی اور بہت جلد ہی اس نے پورے ادبی حلقے کی توجہ کو اپنی طرف مبذول کر لیا۔ یہ کتاب اسی ترقی پسند تحریک پر مبنی ہے۔ کتاب موٹے طور پر تین حصوں میں منقسم ہے ۔ پہلا حصہ ترقی پسند مصنفین کی تحریک پر محیط ہے جس میں تحریک کا آغاز ، ارتقاء انجمن اور ان مصنفین کے بارے میں ہے جو پیش پیش تھے ۔ دوسرا حصہ ترقی پسند ادبی سرمائے کا جائزہ جس میں اس عہد کے شعرا ، افسانہ نگار، ناول نگار، ڈرامہ نگار ، طنز و مزاح ، تراجم وغیرہ کا ذکر ہے ۔ کتاب کا تیسرا جز ترقی پسند تنقید پر مبنی ہے ۔

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लेखक: परिचय

ख़लीलुर्रहमान आ’ज़मी को उर्दू की नई शाइ’री और आलोचना के शिखर-पुरूषों में शुमार किया जाता है। उनकी नज़्मों और ग़ज़लों ने, अपने समय के सवालों से जूझते हुए आदमी की गहरी वेदना को ज़बान दी, तो आलोचना ने 1960 और 1970 के दशकों में, एक संतुलित और वस्तु-परक दृष्टि देकर नए शाइ’रों का मार्गदर्शन किया। 1927 में आ’ज़मगढ़ में जन्मे आ’ज़मी ने मुस्लिम युनिवर्सिटी अ’लीगढ़ में शिक्षा पाई और वहीं शिक्षण कार्य किया। बी़ ए़ करने के दौरान ही ख़्वाजा हैदर अ’ली ‘आतिश’ पर अपने आलोचनात्मक लेख से मशहूर हो गए। 1947 में, ट्रेन से देहली से अ’लीगढ़ के सफ़र के दौरान दंगाइयों का हमला हुआ और तक़रीबन मुर्दा हालत में अस्पताल लाए गए। ये घटना सारी ज़िन्दगी उनके दिल-ओ-दिमाग़ पर तारी रही। 1955 में पहला कविता-संग्रह ‘काग़ज़ी पैरहन’, 1965 में दूसरा संग्रह ‘नया अह्‌दनामा’ और 1983 में ‘ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी’ नाम से तीसरी संग्रह उनके देहांत के बा’द छपा। उन्होंने 1978 में कैंसर से हार कर आख़िरी सांस ली।

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