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आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को

तौसीफ़ तबस्सुम

आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को

तौसीफ़ तबस्सुम

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    रोचक तथ्य

    अंक जनवरी - मार्च 1985

    आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को

    अब वो हैरत है कि पहरों नहीं पाते ख़ुद को

    आश्ना लोग जो अंजाम-ए-सफ़र से होते

    सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम आप मिटाते ख़ुद को

    एक दुनिया को गिरफ़्तार-ए-ग़म-ए-जाँ देखा

    यूँ होता तो तमाशा नज़र आते ख़ुद को

    आइना-रंग का सैलाब है पायाब बहुत

    आँख मिलती तो ये मंज़र भी दिखाते ख़ुद को

    अब ये देखो कि हमीं राह हमीं मंज़िल हैं

    उम्र-भर देख चुके ठोकरें खाते ख़ुद को

    आसमाँ शब को खुले दश्त हा झुक आता है

    ख़ुशबू उड़ती है कि सहरा हैं बुलाते ख़ुद को

    क्या अजब कोई किरन हम-सफ़र-ए-ख़्वाब मिले

    ता-सहर ले के चलें नींद के माते ख़ुद को

    स्रोत :
    • पुस्तक : Shabkhoon (Urdu Monthly) (पृष्ठ 915)
    • रचनाकार : Shamsur Rahman Faruqi
    • प्रकाशन : Shabkhoon Po. Box No.13, 313 rani Mandi Allahabad (June December 2005áIssue No. 293 To 299âPart II)
    • संस्करण : June December 2005áIssue No. 293 To 299âPart II

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