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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अभी गरज कर बरस पड़ेगा यही मैं पागल समझ रहा था

दीपक अग्रवाल

अभी गरज कर बरस पड़ेगा यही मैं पागल समझ रहा था

दीपक अग्रवाल

MORE BYदीपक अग्रवाल

    अभी गरज कर बरस पड़ेगा यही मैं पागल समझ रहा था

    वो कोई टुकड़ा ख़याल का था जिसे मैं बादल समझ रहा था

    बरस जाएँ कहीं ये आँखें जो नम भी हों तो सँभल सँभल कर

    ज़रा सी सहमी हुई थीं पलकें ज़रा सा काजल समझ रहा था

    कहाँ ये उलझे कहाँ ये सुलझे कहाँ ये मचले कहाँ ये सँभले

    कि वक़्त की सब नज़ाकतों को तुम्हारा आँचल समझ रहा था

    ये क्या करिश्मे से कोई कम है किसी ने देखा उस को जाना

    बहुत दिनों से ज़माना फिर भी उसे मुकम्मल समझ रहा था

    जो एक मंज़र गुज़र रहा था थमा हुआ है वो मेरे दिल में

    जाने क्यों मैं किसी नगर को बुतों का जंगल समझ रहा था

    ये सिर्फ़ धोका था उस नज़र का या कोई मक़्सद छुपा था इस में

    तू उस के ही रू-ब-रू था 'दीपक' तुझे वो ओझल समझ रहा था

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