अपनी और किसी से किस दिन राह-ओ-रस्म-ओ-रिफ़ाक़त थी
अपनी और किसी से किस दिन राह-ओ-रस्म-ओ-रिफ़ाक़त थी
आती जाती साँस थी जिस की साअ'त संगत थी
तुझ को ख़याल न आया वर्ना किस दिन इतने गराँ थे हम
इक दो हर्फ़-ए-मुरव्वत सोचो कौन सी ऐसी क़ीमत थी
मैं भी अपनी धुन में रवाँ था वो भी अपने-आप में गुम
बात की नौबत कैसे आती किस को इतनी फ़ुर्सत थी
बीत चुके वो दिन वो ज़माने राहत भरी अज़िय्यत के
याद किसे अब कौन बताए दूरी थी कि वो क़ुर्बत थी
कूचा कूचा फैलें बातें क़त्अ-ए-तअ'ल्लुक़-ख़ातिर की
औरों का तो ज़िक्र ही क्या दीवार-ओ-दर को हैरत थी
कितने हैं जो अब तक पहुँचे अपनी ज़ात की मंज़िल तक
हर्फ़-ओ-बयाँ से बात है बाहर ऐसी कड़ी मसाफ़त थी
गोशा-गीर फ़क़ीर थे हम तो मस्लक इज्ज़-ओ-नियाज़ 'बशीर'
क्यूँ बे-सूद किसी से उलझते अपनी किस से अदावत थी
- पुस्तक : auraq salnama magazines (पृष्ठ 518)
- रचनाकार : Wazir Agha,Arif Abdul Mateen
- प्रकाशन : Daftar Mahnama Auraq Lahore (1967 )
- संस्करण : 1967
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