दोस्त दुश्मन ने किए क़त्ल के सामाँ क्या क्या
रोचक तथ्य
گیارہویں شعر کا پہلا مصرع ’جل گیا آگ میں آپ اپنے میں مانند چنار‘ دیوان جوشش (مرتب کردہ کلیم الدین احمد) میں یوں ہے ’مانند چنار آگ میں اپنی ہی جلے ہم‘۔
दोस्त दुश्मन ने किए क़त्ल के सामाँ क्या क्या
जान-ए-मुश्ताक़ के पैदा हुए ख़्वाहाँ क्या क्या
आफ़तें ढाती है वो नर्गिस-ए-फ़त्ताँ क्या क्या
दाग़ देती है मुझे गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या
फिर सकी मेरे गले पर न छुरी है ज़ालिम
वर्ना गर्दूं से हुए कार-ए-नुमायाँ क्या क्या
हुस्न में पहलू-ए-ख़ुर्शीद मगर दाबेगा
दूर खिंचता है हमारा मह-ए-ताबाँ क्या क्या
रू-ए-दिलबर की सफ़ा से था बड़ा ही दा'वा
सामने हो के हुआ आइना हैराँ क्या क्या
आँखें गेसू के तसव्वुर में रहा करती हैं बंद
लुत्फ़ दिखलाता है ये ख़्वाब-ए-परेशाँ क्या क्या
गर्दिश-ए-चश्म दिखाता है कभी गर्दिश-ए-जाम
मेरी तदबीर में फिरता है ये दौराँ क्या क्या
चश्म-ए-बीना भी अता की दिल-ए-आगह भी दिया
मेरे अल्लाह ने मुझ पर किए एहसाँ क्या क्या
दोस्त ने जब न दम-ए-ज़ब्ह सिसकता छोड़ा
मेरे दुश्मन हुए हँस हँस के पशेमाँ क्या क्या
गर्दिश-ए-नर्गिस-ए-फ़त्ताँ ने तो दीवाना किया
देखो झंकवाए कुएँ चाह-ए-ज़नख़दाँ क्या क्या
जल गया आग में आप अपने मैं मानिंद-ए-चिनार
पीसते रह गए दाँत अर्रा-ओ-सोहाँ क्या क्या
कुछ कहे कोई मैं मुँह देख के रह जाता हूँ
कम दिमाग़ी ने किया है मुझे हैराँ क्या क्या
गर्म हरगिज़ न हुआ पहलू-ए-ख़ाली बे-यार
याद आवेगी मुझे फ़स्ल-ए-ज़मिस्ताँ क्या क्या
कोई मरदूद-ए-ख़लाइक़ नहीं मुझ सा 'आतिश'
क्या कहूँ कहते हैं हिंदू-ओ-मुसलमाँ क्या क्या
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