ग़म की तरतीब सलीक़े से लगा सकता था
ग़म की तरतीब सलीक़े से लगा सकता था
या'नी मैं रोज़ तिरा हिज्र मना सकता था
सब्र ने चीख़ गले से नहीं आगे भेजी
वर्ना दीवाना बहुत शोर मचा सकता था
ग़ैरत-ए-इश्क़ ने पत्थर का बनाया मुझ को
वर्ना मैं ख़ाक वहाँ उड़ के भी जा सकता था
तंगी-ए-दामन-ए-सद-चाक तिरा क्या रोना
मैं नुमाइश में फ़क़त ज़ख़्म दिखा सकता था
तेरी नफ़रत से अगर थोड़ी सी फ़ुर्सत मिलती
मैं मोहब्बत में बहुत नाम कमा सकता था
आप बे-कार समझ कर जिसे छोड़ आए हैं
इक वही शख़्स मिरी जान बचा सकता था
उस की मा'सूम तबीअ'त की हया ने रोका
वर्ना मैं उस को बड़े ख़्वाब दिखा सकता था
ये तो उस चेहरा-ए-पुर-नूर का जादू समझो
वर्ना दरवेश कहाँ जाल में आ सकता था
यूँही ज़हमत से अकेले मुझे बर्बाद किया
ज़िंदगानी मैं तिरा हाथ बटा सकता था
तुम ही 'तहसीन' मिरी क़द्र नहीं कर पाए
मैं तो वो था जो गया वक़्त भी ला सकता था
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