है अंधेरा तो समझता हूँ शब-ए-गेसू है
बंद आँखें हैं कि ऐ यार नज़र में तू है
दम-ब-दम कहते हो क्यूँ फ़िक्र में नाहक़ तू है
ग़म को क्या काम मिरा सर है मिरा ज़ानू है
इस लिए दिल के तलब करने पे मैं रोता हूँ
तर न हो आप का दामन कि ये इक आँसू है
आज फिर कल की तरह हिज्र की रात आती है
देखिए क्या हो वही दिल है वही पहलू है
एक मुद्दत का है क़िस्सा किसी जानिब दिल था
ये नहीं याद ये पहलू है कि वो पहलू है
याद-ए-अय्याम-गुज़िश्ता में न तड़पूँ क्यूँकर
कि अभी तक मिरे बिस्तर में तुम्हारी लौ है
मुझ को माने' है अदब ज़ब्ह में क्यूँकर तड़पूँ
ओ सितमगर मिरे सीने पे तिरा ज़ानू है
है अयाँ दिल के धड़कने से किसी की उल्फ़त
आज-कल आप के पहलू में मिरा पहलू है
हो गया है जो मिरे दिल का सताना मंज़ूर
आज-कल आप की हर बात में इक पहलू है
तर्क-ए-उल्फ़त तो कुछ आसाँ नहीं मुश्किल है 'रशीद'
रोको आहों को ज़रा इन पे अगर क़ाबू है
स्रोत :
- पुस्तक : Gulistan-e-Rasheed (पृष्ठ ghazal-116 page-105)
- रचनाकार : Piyare Sahab Rasheed
- संस्करण : 1952
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