है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
ज़मीं पे साया है अपने क़द का कि जादा-ए-मंज़िल-ए-अदम है
यही है रस्म-ए-जहान-ए-फ़ानी इसी में कटती है ज़िंदगानी
कभी है सामान-ए-ऐश-ओ-राहत कभी हुजूम-ए-ग़म-ओ-अलम है
बताओ क्यूँ चुप हो मुँह से बोलो गुहर-फ़िशाँ हो दहन तो खोलो
अज़ीज़ रखते हो जिस को दिल से उसी के सर की तुम्हें क़सम है
हटाओ आईने को ख़ुदारा लबों पे आया है दम हमारा
बनाव तुम देखते हो अपना यहाँ है धड़का कि रात कम है
तुम्हारे कूचे में जब से बैठे भुलाए दिल से सभी तरीक़े
ख़ुदा ही शाहिद जो जानते हों कहाँ कलीसा कहाँ हरम है
अबस है कोशिश हुसूल-ए-ज़र में ख़याल-ए-फ़ासिद को रख न सर में
वही मिलेगा अज़ल से जो कुछ हर एक के नाम पर रक़म है
फ़रिश्ते जन्नत को ले चले थे प तेरे कूचे में हम जो पहुँचे
मचल गए उन से कह के छोड़ो हमें यही गुलशन-ए-इरम है
जुदा हो जब यार अपना साक़ी कहाँ की सोहबत शराब कैसी
पिलाएँ गर ख़िज़्र आब-ए-हैवाँ हम उस को समझें यही कि सम है
जिलाए या हम को कोई मारे बहिश्त दे या सक़र में डाले
रहेगा उस बुत का नाम लब पर हमारे जब तक कि दम में दम है
'हबीब' ता-चंद फ़िक्र-ए-दौलत कभी तो कर दिल से शुक्र-ए-नेअमत
करीम को है करम की आदत मगर ये ग़फ़लत तिरी सितम है
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.