हैं अगर दार-ओ-रसन सुब्ह-ए-मुनव्वर के एवज़
फिर तो ख़ुर्शेद ही उभरेगा मिरे सर के एवज़
हम को भी सर कोई दरकार है अब सर के एवज़
पत्थर इक हम भी चला देते हैं पत्थर के एवज़
फ़र्क़ क्या पड़ता है हो जाए अगर दाद-रसी
इक नज़र देख ही लो वादा-ए-महशर के एवज़
हम ने चाहा था कि पत्थर ही से ठोकर खाएँ
सर भी इक हम को मिला राह में पत्थर के एवज़
पासबानान-ए-चमन रह गए बैरून-ए-चमन
नर्गिस-ए-ख़ुफ़्ता मिली सर्व-ओ-सनोबर के एवज़
अब कहाँ पहला सा साक़ी के करम का दस्तूर
आबरू बेचनी पड़ जाती है साग़र के एवज़
क्या ख़बर है वो चले आएँ सजा लूँ घर को
मौज-ए-गुल आने लगी आज तो सरसर के एवज़
उन के वा'दे की जो तस्दीक़ भी चाही 'नूरी'
साफ़ इंकार था ताईद-ए-मुकर्रर के एवज़
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.