जो तेरे मुँह से न हो शर्मसार आईना
जो तेरे मुँह से न हो शर्मसार आईना
तो रुख़ करे सू-ए-आईना-दार आईना
कहे है देख के रुख़्सार-ए-यार आईना
कि इस सफ़ाई पे सदक़े निसार आईना
सियाह-रू न करे तर्क-ए-उल्फ़त-ए-गुलफ़ाम
मैं बुल-हवस को दिखाऊँ हज़ार आईना
सफ़ा-ए-दिल की कहाँ क़द्र-ए-तीरा-रोज़ी में
चराग़-ए-सुब्ह है शब-हा-ए-तार आईना
समझ लिया मगर इस सब्ज़ रंग को तूती
कि है नज़ारे का उम्मीद-वार आईना
वो सख़्त-जाँ हूँ कि दिखलाएँ गर दम-ए-मुर्दन
तो तोड़ दे कमर-ए-कोहसार आईना
मुक़ाबिल उस रुख़-ए-रौशन के खुल गई क़लई
न ठहरा आग पे सीमाब-वार आईना
समा रहे हैं मगर तेरे नौ-ब-नौ जल्वे
कि बन गया है तिलिस्म-ए-बहार आईना
शिकस्त-ए-रंग पे मस्ती में हँसते हैं हम भी
दिखाएँगे उन्हें वक़्त-ए-ख़ुमार आईना
मुझे तो कहते हो मत देख मेरी जानिब तू
और आप देखते हो बार बार आईना
बला है मन-ए-वफ़ा नूर उड़ गया नासेह
तू ले के देख तो रंग-ए-अज़ार आईना
समझ तू 'मोमिन' अगर नारवा हो ख़ुद-बीनी
तो देखें काहे को परहेज़-गार आईना
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