ख़ाक ओ ख़ूँ की वुसअतों से बा-ख़बर करती हुई
ख़ाक ओ ख़ूँ की वुसअतों से बा-ख़बर करती हुई
राजेन्द्र मनचंदा बानी
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ख़ाक ओ ख़ूँ की वुसअतों से बा-ख़बर करती हुई
इक नज़र इम्काँ-हज़ार-इम्काँ सफ़र करती हुई
इक अजब बेचैन मंज़र आँख में ढलता हुआ
इक ख़लिश सफ़्फ़ाक सी सीने में घर करती हुई
इक किताब-ए-सद-हुनर तशरीह-ए-ज़ाइल का शिकार
एक मोहमल बात जादू का असर करती हुई
जिस्म और इक नीम-पोशीदा हवस-आमादगी
आँख और सैर-ए-लिबास-ए-मुख़्तसर करती हुई
तिश्नगी का ज़हर सीने को सियह करता हुआ
इक तलब अपने नशे को तेज़-तर करती हुई
वो निगह अपने लिए है सद-हिसाब-ए-आरज़ू
और मुझे बेगाना-ए-नफ़-ओ-ज़रर करती हुई
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