महरूम-ए-शहादत की है कुछ तुझ को ख़बर भी
रोचक तथ्य
1912
महरूम-ए-शहादत की है कुछ तुझ को ख़बर भी
ओ दुश्मन-ए-जाँ देख ज़रा फिर के इधर भी
है जान के साथ और इक ईमान का डर भी
वो शोख़ कहीं देख न ले मुड़ के इधर भी
वो हम से नहीं मिलते हम उन से नहीं मिलते
इक नाज़-ए-दिल-आवेज़ इधर भी है उधर भी
ठंडा हो कलेजा मिरा इस आह-ए-सहर से
जब दिल की तरह जलने लगे ग़ैर का घर भी
अल्लाह-री बे-ताबी-ए-दिल वस्ल की शब को
कुछ कश्मकश-ए-शौक़ भी कुछ सुब्ह का डर भी
अंगड़ाइयाँ ले ले के उठे साहब-ए-महफ़िल
कुछ नींद भी आँखों में है कुछ मय का असर भी
हम माँगते ही क्यूँ जो यही जानते साक़ी
फिर जाएगी क़िस्मत की तरह तेरी नज़र भी
हम हाथ से दिल थामे हुए दूर खड़े हैं
देखें तो कोई लेता है कुछ इस का असर भी
ऐ जज़्बा-ए-दिल देख बहुत तू ने कमी की
हाँ आहों में अब चाहिए थोड़ा सा असर भी
अब चुप रहो जो दिल पे गुज़रनी थी वो गुज़री
ऐसा न हो फट जाए कहीं ज़ख़्म-ए-जिगर भी
महरूम-ए-शहादत तुझे कुछ शर्म न आई
कम-बख़्त गला काट के जल्दी कहीं मर भी
भारी है मुसाफ़िर पे बहुत गोर की मंज़िल
सुनते हैं कि इस राह में है जान का डर भी
वो कशमकश-ए-ग़म है कि मैं कह नहीं सकता
आग़ाज़ का अफ़्सोस और अंजाम का डर भी
खोल आँखें ज़रा मस्त है क्या साग़र जम से
है गर्दिश-ए-अय्याम की कुछ तुझ को ख़बर भी
लैली-ए-शब-ए-हिज्र ने बिखरा दिए गेसू
मातम में मिरे चाक-ए-गरेबाँ है सहर भी
किस शान से आती है मिरी शाम-ए-मुसीबत
वो देखो जिलौ में है क़यामत की सहर भी
बुझती हुई इक शम्अ' हूँ क्या दम का भरोसा
दुश्मन है मिरी जान की अब आह-ए-सहर भी
देखे कोई जाती हुई दुनिया का तमाशा
बीमार भी सर धुनता है और शम-ए-सहर भी
सहरा की हवा खींचे लिए जाती है मुझ को
कहता है वतन देख ज़रा फिर के इधर भी
हाँ कट गई शायद तिरे दीवाने की बेड़ी
पिछले-पहर आई थी कुछ आवाज़ इधर भी
क्या वा'दा-ए-दीदार को सच जानते हो 'यास'
लो फ़र्ज़ करो आई क़यामत की सहर भी
अल्लाह मुबारक करे पीरी की सहर 'यास'
मरने की तमन्ना थी तो ले अब कहीं मर भी
- पुस्तक : Kulliyat-e-Yagana (पृष्ठ 168)
- रचनाकार : Meerza Yagana Changezi Lukhnawi
- प्रकाशन : Farib Book Depot (P) Ltd. (2005)
- संस्करण : 2005
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